प्रकृति व स्त्री विमर्श

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक: प्रकृति व स्त्री विमर्श
लेखिका: डॉ सुमन धर्मवीर
प्रकाशक: पुष्पांजलि दिल्ली 110053
मूल्य: 445 रुपए मात्र

नाटक समीक्षक: डॉक्टर कश्मीरी बौद्ध (साहित्यकार एवं प्रोफेसर रोहतक)

लेखिका परिचय: डॉ सुमन धर्मवीर का लेखन व सामाजिक क्षेत्र में जाना पहचाना नाम है ।उनके द्वारा रचित अनेक कहानियां, कविताएं नाटक एवं लेख भी विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं । उनकी विलक्षण प्रतिभाओं का अनुमान यहीं से लगाया जा सकता है कि कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के बी.ए एवं बी.एड के पाठ्यक्रम में इनकी दो कहानी पढ़ाई जा रही हैं।

इसके अतिरिक्त इन्होंने सामाजिक कार्यों में भी अपनी प्रवीणता दिखाई है। जिसके लिए उन्होंने एन. एस. आई. सी._ ओखला नई दिल्ली से हिंदी अनुवादक पद से इस्तीफा भी दिया ताकि सामाजिक कार्य निष्ठापूर्वक एवं ईमानदारी से किया जा सकें।

“प्रकृति व स्त्री विमर्श “नामक पुस्तक जब मेरे हाथ में आई तब प्रशंसा एवं आलोचना के समान भाव उभरने लगे थे परंतु स्वस्थ साहित्य की पुस्तक का ऊंचा स्तर देख कर मैंने मंचीय नाटकों का अवलोकन सबसे पहले करना अधिक उचित समझा।

सबसे पहले इस पुस्तक के “मानव धर्म “,”विनय “और “रिलेशनशिप” ना मक नाटकों के माध्यम से भारतीय समाज के धार्मिक उन्माद की विभीषिका,भारत के सामाजिक ताने-बाने को आधुनिकता देते हुए नाटककार ने यथार्थ समाज का चित्रण किया है जो प्रशंसनीय एवं महत्वपूर्ण बन पड़ा है।

जैसे “मानव धर्म “नाटक में नाटक तत्वों को ध्यान में रखते हुए निसंदेह नाटककार द्वारा कथानक के माध्यम से वह सब अभिव्यक्त करने का जी तोड़ प्रयास किया गया है जो उनके इर्द-गिर्द फैला हुआ था और उनके मन को कचोटता भी रहता था।

इसी दृष्टिकोण को परख कर मुझे भी लगा की लेखिका आंख मूंद कर न खाती है और न ही चलती है अपितु पग पग पर उन्होंने अपने जीवन में जो देखा जाना एवं भोगा ,वही प्रकट किया है।

तभी तो समाज में व्याप्त विसंगतियों या धर्म क्षेत्र में विकृतियों, आडम्बरों, पाखंडों आदि का फैलाव हो रहा हो, आँख बंद कर कुछ भी अभिव्यत नहीं हुआ जान पड़ा है, अपितु अनुभवी आँखें देखती हुई हमारे सम्मुख भी आ उपस्थित हुई है यथा, जब दोनों सम्प्रदायो के बीच धार्मिक उन्माद की विभीषिका खूब मार-धाड़ और खून- खराबे में परिवर्तित हुई, तो नाटककार ने नाटकीय मोड़ देकर एक आयुर्वेदिक लेडी डॉक्टर जो साध्वी ड्रेस में थी का मंच पर पदार्पण करा कर अपनी सकारात्मकता का परिचय दिया है।

उन्हीं के माध्यम से उन्होंने बताया है कि “मैं किसी धर्म को महत्व नहीं देती। मैं पूरे मानव समाज का एक अंग हूं। मानवकृत किसी एक धर्म का अंग नहीं।”

सच भी है कि मानव-धर्म ही श्रेष्ठ है। मानवता से ऊँचा कोई धर्म नहीं। जब हम सभी ऐसा सोचने लगेंगे, तो कभी कटुता पैदा ही नहीं होगी और सब भाईचारे से रहेंगे और देश का विकास भी चहुँ ओर होगा।

इसी को ध्यान में रखते हुए नाटककार ने वातावरण और देशकाल, पात्रों का चरित्र-चित्रण, संवाद शैली, भाषा- शैली एवं अभिनेयता अंग का बखूबी पालन किया है, जो नाटकीय मंच की विशेषताओं एवं मान्यताओं पर खरा उतरता है। सामाजिक उद्देश्य को चेतन स्वरूप देते हुए धार्मिक कठोरता को सहृदयता प्रदान की है। यही विशेषता अत्यन्त सराहनीय है।

इसी तरह” विनय” नामक नाटक में भी सामाजिक वातावरण के ताने-बाने को बनाते हुए कथानक को अग्रसर किया है। प्रकाशित नाटक वस्तुतः कल्पना जगत से निकल कर यथार्थ घरातल पर बैठकर लिखा हुआ प्रतीत होता है।

इसलिए इसे जानकर आश्चर्य ही नहीं, अपितु प्रसन्नता हुई है कि लेखिका ने अपने चारों ओर के परिवेश में घटित घटनाओं को उद्‌घाटित कर नाटक क्षेत्र का प्रतिबिंब प्रस्तुत किया है।

जो नाटक की अद्‌भुत गरिमा बढ़ाता है। निः संदेह सीमित कलेवर में लिपटा- सिमटा यह नाटक, कथा-लेखिका की रूचि एवं अनुभवों को तो प्रकट करता ही है, साथ-साथ हर रुचि-अभिरुचि के पाठक-मन-सर में हिलौरें पैदा करने में भी सक्षम है।

अपने नपे तुले शब्दों में चुभती लड़खड़ाती व्यथाओं को अभिव्यक्त करके डॉक्टर सुमन धर्मवीर ने अपने लेखकीय पैमाने को और भी अधिक ऊंचाई दी है इसमें कोई संदेह नहीं होता । इसके अतिरिक्त लेखिका उन जीवन मूल्यों को प्रकट करने से भी नहीं भूली है। जो प्रत्येक सहृदय के कोने मैं दिखते रहते से हैं।

‘विनय’ नामक नाटक में बिना किसी लाग-लपेट के जीवन-मूल्यों को य थार्थ रूप प्रदान करते हुए उन जीवन्त समसामयिक विषय,, सम्‌प्रेषणयुक्त घटनाओं को महत्व दिया गया है, जो केवल सत्य अनुभव को ही उजागर करती हैं।

तभी तो वे मानव-मन की उद्वेलित संवेद‌नाओं, कुण्ठाओं एवं पीड़ाओ को उद्‌घाटित कर पाई हैं। इस नाटक को पढ़कर कहीं भी ऐसा नहीं लगता, जहाँ लेखिका ने अपनी गहन अनुभूति, तीक्ष्ण अनुभव एवं सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि का परिचय न दिया हो।

इसके अतिरिक्त भावानुकूल भाषा-शैली, सार्थक एवं महत्वपूर्ण उद्देश्य, चरित्र-चित्रण, अभिनय, कथानक की सार-गम्भीरता और संवाद-शैली आदि तथ्यों का ध्यान रखते हुए कथानक के अत्यधिक विस्तार से बचकर इसकी निश्चित मर्यादा का भी अपेक्षित पालन किया है, जो अच्छा लगा।

“रिलेशनशिप” नाटक मे वर्तमान में जहाँ समाज स्वयं को आधुनिक एवं नारी समर्थक के रूप में एक्सपोज कर रहा है, वहीं समाज के भीतर ही इस प्रकार की स्थितियां पैदा की जा रही हैं कि स्त्री का स्वरूप किसी गुलाम की तरह ही दिखाई देता है।

नाटक की मु ख्य पात्र मीना स्त्री-जीवन के कटु अनुभवों को भोगने के रूप में चौबीसों घण्टे काम पर तत्पर रहने वाले गुलाम-सी भूमिका में भारतीय नारी के कटु सत्य को उभारा है।

पारिवारिक त्रास भोगते हुए पति और सास की वाचाल मानसिकता होने के बाद भी पारिवारिक सामंजस्य बनाए रखने को विवश होती है। इस चित्रण में भी लेखिका सफल सिद्ध हुई हैं, जब मीना अपने नारीत्व को प्रमुखता देती है ,संभल कर अपने बेटा-बेटी को वह वातावरण देती है, जिसमें की घुटन न हो और वे स्वच्छंद जीवन जीएं ।

नायिका खुद के मन में पड़ी कुण्ठायों और विकृतियों से बाहर निकलकर खुद को स्थापित कर लेती है और अंत में अपने अस्तित्व को मनवा लेती है कि नारी कब तक गुलाम रहेगी। वह भी आज़ादी की साँस लेना चाहती है।

* रंगमंच की दृष्टि से नाटक का कथानक कुछ ज्यादा विस्तार ले गया है, जो विश्लेषणात्मक रूप से अनावश्यक जान पड़ा है। फिर भी नाटकीय दृष्टिकोण से रुचिकर रहा। भावों के अनुरूप उद्देश्यपूर्ण शीर्षक अंकित कर लेखिका ने सहृदय पाठकों की नवज़ को पह‌चान लिया लगता है। पात्रानुकूल भाषा, संवादो की सहजता।

नाटककार ने नाटक के सर्वांगीण विकास में अपनी रूह फूंक दी है। नाटक का इस तरह सृजन किया गया है
मानों लेखिका वर्तमान समाज की मार्मिकता एवं संजीदगी को अपने उक्त नाटक के माध्यम से व्यथा कथा के य थार्थ को नया आयाम देना चाहती हो। इसी के अनुरूप वातावरण देकर उन्होंने अपने अनुभवों का अनूठा संगम प्रस्तुत किया है।

समग्र मूल्यांकन में मैं यही कहूँगी कि तीनों नाटक एक अनुभवी की ऐसी साधना है, जो रिसते घावों पर मरहम का काम भी करती है और पाठकों के बोझिल मन की गांठों को खोलकर रोचकता का भी ध्यान रखती है।

विषय-अन्तर्मन को चीरती कहानियाँ एवं कविताएँ।

“प्रकृति व स्त्री विमर्श’ नामक पुस्तक कहानियों, कविताओं तथा नाटकों का मिला जुला रूप है, जिसमें भारतीयता का सामाजिक धार्मिक एवं सांस्कृतिक चित्रण किया गया है।

इसके अतिरिक्त काव्य भाग में भी भारतीय सभ्यता में आई विकृतियों या जो कुरीतियां घुस आई हैं, उसे लेखिका ने अपनी पूर्ण निष्ठा, कर्मठता एवं निःसंदेह अनूठी शैली से कविताओं को असदार बना दिया है। और सिद्ध कर दिया है कि लगन से किए गए कार्य की ही पह‌चान होती है।

इस पुस्तक में प्रकाशित हुई कहानियाँ, कविताएँ व नाटक अत्यन्त रोचक, ज्ञानवर्धक, दिशानिर्देशक तथा नवीन जानकारियों से युक्त हैं।

वंदना’ नामक कहानी में डॉ. सुमन धर्मवीर ने एक विधवा के सामने आई विकट परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण करते हुए ससुराल और मायके का दोहरा चरित्र प्रकट किया है और ब ताया गया है कि वंदना ‘ नामक एक औरत अपने पति कर्तव्य की अचानक दुर्घटना में हुई मौत से कैसे पहाड़ से संकटों से घिर जाती है।

मगर वह अपना ‘आपा’ नहीं’ खोती और देवर द्वारा स्वार्थ जन्य देह के लिए वह समर्पित न होते हुए अपने हक, अधिकारों की दावेदारी करती है। मगर ससुराल के लोग अपने बेटे व भाई के जाने के पश्चात् कैसे आँख बदल लेते हैं।

घर मे वंदना कोअधिकार तो क्या वहाँ रहने भी नहीं देते, जहाँ तरह-तरह के सपने संजो कर वह गई थी । फिर ऐसे हालात पैदा हो गए कि उसे अपने मायके में शरण लेनी पड़ी। वहाँ भी माँ-बाप वृद्ध होने के कारण भाई-भाभी का राजपाट हो चला था, जिसकी वजह से वहाँ रहना भी उसे मुस्किल लगने लगा। वंदना स्वाभिमानी स्त्री थी।

इसलिए उसने अलग से स्थापित होने के लिए परिवार से कुछ धन राशि की मांग की , तो वह भी उसे मयस्सर न हुई। तत्पश्चात वह तुरन्त उठी और अपना सामान-वामान लेकर रास्ते भर तेज हवाओ, आँधियों और अंधेरों से लड़ती हुई आगे बढ़ती गई और मन ही मन निश्चय किया कि बेशक समाज पुरुषप्रधान हो पर वह भी इस पुरुष प्रधान समाज में स्वयं का रास्ता तलाशती हुई बताएगी की स्त्रियां भी पुरुषों से कम नहीं है, वे भी पुरुषों से अधिक मजबूत हैं और स्त्रियों ने ही व्यापार में उसे साझा करके नारीत्व सिद्ध कर दिया । यही इस कहानी की सफलता है।

मुक्ति कहानी एक ऐसे युवा को लेकर लिखी गई है जो परदेस में रोजगार की तलाश में निकलता है। मगर किशोर नाम के ड्रग गिरोह सरगना का शिकार हो जाता है। यहाँ देह व्यापार भी और जानलेवा नशा कराकर पैसा कमाया जाता है।

कुछ दिनों तक तो वह उसी का शिकार रहा। मगर, मुंबई नगर का गंदा रूप देख कर उसने मन ही मन इसे मिटाने का बीड़ा उठाया।नशा मुक्ति से जनता को जागरूक करता है।

उसकी जागरूकता ने मुंबई महानगरी में हलचल पैदा कर दी। पुलिस की सहायता से इस विषाक्त नरकतुल्य जीवन का पर्दाफाश भी किया और भिखारियों के सरताज रमेश शर्मार्और प्रवीण मिश्रा को पुलिस के हवाले कर दिया। सभी गंजे ढ़ियों, नशेड़ियों एवं देह _ व्यापार करने वाले और उनके परिवारों को उस नरक तुल्य जीवन से आजाद करा लिया। मगर अंत में वह प्रवीण मिश्रा की गोली का शिकार हो गया ।

प्रस्तुत कहानी आज के परिवेश की दमदार कहानी है। भाषा सहज और सरल है। अन्त सार्थक उद्देश्य लिए हुए तो है: पर सरगना प्रवीणशर्मा की गोली से नायक का मरण दर्दनाक है।

इस प्रेरणास्पद कहानी को लेखिका ने अपने जागरूक अनुभव से युवा वर्ग को सचेत किया है और बताया है कि नशा किस तरह मनुष्य पर हावी हो जाता है और उसके जीवन की बर्बादी का कारण भी बनता है। मगर दृढ संकल्प एवं साहस द्वारा द्रुत की भांति इससे छुटकारा भी पाया सकता है। कहानी का उद्देश्य सकारात्मक रहा। यही इस कहानी की मुख्य विशेषता है।

कुसुम कहानी एक ऐसे दंपत्ति की कहानी है जो अपने अभिमान स्वाभिमान एवं नाम उपनाम की भट्टी में जलता रहता है। वास्तव में कुसुम व कुणाल नामक पति-पत्नी के विवादों से यह दिखाया है कि आज भी संवैधानिक समानता के अधिकार में पुरुष प्रधानता ही दृष्टिगोचर होती है पत्नी कितनी ही प्रवीण कुशल एवं योग्य हो पुरुष उसे दोयम दर्जे की ही रखना चाहता है वह नहीं चाहता की नारी यानी पत्नी उससे आगे बढ़े।

पति यानी कुणाल हीनता ग्रस्त है। वह अपनी पत्नी कुसुम को जैसे तैसे कर कर के उसके रुचिकर ग्राउंड से पछाड़ना चाहता है। परंतु कुसुम अपनी प्रतिभाओं और कार्य कुशलता से अपना रास्ता खुद तराशती चलती है और नाम उपनाम की लक्ष्मण रेखा पार कर अपनी बुद्धिमत्ता, स्त्रीत्व व स्वाभिमान को बचा लेती है।

यही इस कहानी का निष्कर्ष है पुरुष प्रधान समाज पर क्रोधित होते हुए भी डॉक्टर सुमन धर्मवीर ने सुखी संसार के दृष्टिकोण को बनाए रखने के लिए हर संभव प्रयास किया है।

यही कहानी की विशेषता और उसका उद्देश्य है जो प्रशंसनीय बन पड़ा है। प्रस्तुत कहानी परिवेश और जीवन मूल्यों को यथार्थ रूप प्रदान करते हुए उन जीवंत एवं सम विषम संप्रेषण युक्त घटनाओं का ताना-बाना बनाती हुई जीवन के अनुभवों का प्रकट करती हैं वह भी पूर्ण मनोदशा से।

तभी तो वह मानव मन की उद्वेलित संवेदनाओं, पीड़ाओं एवं पुरुषदंभ को स्थापित कर पाती हैं। इसके अतिरिक्त पात्रों एवं समय सीमा का भी ध्यान रखते हुए पात्रा नुकूल भाषा शैली, संवादात्मकता, एवं सहजता का भी परिचय दिया है।

सुरभि कहानी एक कॉरपोरेट ऑफिस के तमाम एटमॉस्फेयर एवं गतिविधियों का लेखा जोखा है जिसमें सुरभि नामक पात्रा स्वयं को घिरा हुआ महसूस करती है। और सारा दिन उल्टे पुलटे ऑफिशियल मैटर में फंसी हुई सी हुई मालूम पड़ती है।

लगता है सुरभि को यहां के निठल्ले , उबाऊ और नीरस वातावरण में अच्छा नहीं लगता इसलिए वह खुश नहीं रहती औरदिन पर दिन कमजोर होती जाती है।

फिर एक रोज उसे उसका हमदर्द मित्र मिल जाता है और उसे अपनी समस्याओं का हल भी मिल जाता है।अरविंद की सहायता से सुरभि को उसके ही ऑफिस में नौकरी मिल जाती है। वह खुश रहने लगती है। फिर उससे शादी भी कर लेती है।

सुरभि कहानी में ऐसा कोई सार तत्व नजर नहीं आता जो कि पाठक को ज्यादा देर तक बांधकर रखता हो। बस बोझिल मन की उबाऊ दुविधाग्रस्त सर्विस के अलावा कहानी थकती चलती है जो एक ऐसे मोड़ पर पहुंच जाती है अमूमन जहां सभी का किनारा होता है। जहां दोनों सुरभि और अरविंद नामक पात्र मित्र बनते हैं तथा एक दूसरे के संबंध में बंध जाते हैं । बस यही आत्म विश्वास के बलबूते पर खड़ी कहानी है।

वर्तमान परिवेश भाषा स्वरूप संवाद शैली, पात्रा नुकूल प्रयोग कर डॉक्टर सुमन धर्म वीर ने अपने आधुनिक विचारों का परिचय देकर कहानी को आगे बढ़ाने की भरपूर चेष्टा की है परंतु सरसता कहीं खो गई है।प्रकृति नामक कहानी में जैसा नाम वैसा काम का चित्रण किया गया है।

बादल नामक राजा का ऐसा चित्रण है जो अपने राज्य की सूखी ,बंजर,जमीन,ठूंठ, टूटे कटे पेड़ यानी उजड़ी हुई प्रकृति को देखकर द्रवित ही रहता है। क्योंकि वह बाल्यावस्था से ही प्रकृति प्रेमी रहा था। इसलिए वह जंगल अधिकारियों की गैर जिम्मेदारी भ्रष्टाचार व लापरवाही पर खीझ उठता है और बढ़बढ़ाने लगता है कि वे प्रकृति को नुकसान क्यों होने देते हैं। वह इसमें ही दुखी रहने लगता है । कभी बादल आ जाते हैं तो वह आशा भरी नजरों से बादलों को देखकर खुश हो जाता है।

बादल को एक दिन जंगल में जर्जर और बिखरे बालों वाली प्रकृति नाम की एक लड़की मिली। राजा ने उसकी दवा दारू करके उसे खिला पिलाकर स्वस्थ करके उससे विवाह भी कर लिया। परंतु प्रकृति की कुरूपता देखकर वह पछता रहा होता है और उसे अपने आसपास भी फटकने नहीं देता है परंतु एक दिन सपने में राजमाता द्वारा प्रकृति के प्रति प्रेमपूर्ण भावों पर उसने विश्वास किया।

और राजा बादल प्रकृति से प्रेमा लाप करने लगा। और वह उसे अब सुंदर भी दिखाई देने लगी। यह उसके प्रेम का ही प्रभाव था। यह कहानी बादल और प्रकृति को लेकर प्रतीकात्मकता का आभास देती नजर आती है। यही इस कहानी की उत्कृष्टता है और उद्देश्य भी।

उज्जवल भावों का विश्लेषण करते हुए उजड़ी प्रकृति और संवरी प्रकृति का सामंजस्य बिठाया गया है तथा मनोवैज्ञानिक कारण की स्पष्ट प्रबलता दिखाई देती है।

करण और काली चिड़िया के बच्चे नामक दोनों कहानी भी प्रतीकात्मक है। और मानो मातृत्व बोध का आभास कराती हैं।
मनोवैज्ञानिक आधार पर लेखिका ने पुस्तक का नामकरण “प्रकृति व स्त्री विमर्श”किया है।

जो तारतम्य काली चिड़िया के बच्चे नामक कथानक में प्रकृति एवं स्त्री विमर्श का बिठाया है वह लाजवाब बन पड़ा है। इसमें कोई संदेह नहीं है की कहानीकारा प्रकृति के साथ-साथ पशु पक्षियों के क्रियाकलापों से भी भली भांति अवगत है और उनके मनोभावों को समझ जाती है तथा उनके अनुरूप ही उनकी देख रेख भी करती है। यह इनकी ममता का अनूठा ही रूप है।

तभी तो प्रकृति ने नारी को ही सृष्टि रचने का वरदान दिया हुआ है। और उसी में ममत्व भरा हुआ है। यह सुद्रढ़ कहानी कहानी कारा का चित्रण है जो प्राकृतिक छठा को सुंदर तरीके से सामने लाकर रख देता है। यह कहानी प्रतीकात्मक रूप से लिखी गई है।नए-नए प्रतीको को लाकर सुंदर सुहाने वातावरण को दिखाया गया है।

ये सब कहानियां इसी शीर्षक की द्योतक हैं।
“करण” नामक कहानी में बाल्यावस्था का बाल सुलभ चित्रण अत्यंतअनूठा व ममत्व भरा है। जो पाठक को भी अपनी अनुभूतियों में सम्मिलित कर लेता है।

कथा शिल्प की दृष्टि से भी कहानी में नए नए प्रतिमानों और नए स्वरूप शब्दों का प्रयोग करके सहज ,सरल, सुबोध, गरिमा पूर्ण विचारों से कहानी को रुचि कर बनाने में सफल रही हैं।

शादी नामक कहानी जैसा शीर्षक है वैसा ही उसका कथानक पात्रों का चरित्र चित्रण ,संवाद शैली ,देश काल, वातावरण को आधारित मान कर रची बुनी गई है। और आधुनिक दृष्टिकोण को महत्व दिया गया है। बेशक कुमुदिनी और अरुण के मां-बाप अरुण पर यह आक्षेप लगा चुके हैं कि लड़की क्यों पसंद नहीं आती?” मैं भी तो सुनू की लड़की में क्या नुक्स है?आखिर उससे शादी क्यों नहीं की जा सकती?”

इस बार अरुण तीखे स्वर में मंशा जाहिर कर देता है कि जो लड़की मुझे पसंद आएगी मैं उसी से शादी करूंगा।मानता हूं की लड़कियां सभी अच्छी होती हैं पर सभी को तो पसंद नहीं कर लूंगा। पसंद तो मुझे एक ही लड़की करनी है। वाद विवाद को अधिक न बढ़ाते हुए अपनी गंतव्य की ओर चला जाता है यह कहकर कि(बहन) कुमुदिनी अगर लड़का अदर कास्ट में पसंद आए तो शादी करने से बिल्कुल मत झिझकना।

इस कहानी में यह भी ध्यान ध्यान देने योग्य विचार आया है कि एससी एसटी दलित वर्ग के लड़के लड़कियों में सुंदर व योग्य न होने की मानसिकता की परिचायक लगती है। जो कि गलत धारणा है ऐसा बिल्कुल नहीं है। जातिवाद की कट्टरता पर भी सवाल उठाया गया है जो की वाजिब भी है और महत्वपूर्ण भी है। हम कब तक दलित बने रहेंगे? ऐसे सवाल उठाकर कहानी कारा ने कहानी को सार्थक और सरस बना दिया है।

इस कहानी के अतिरिक्त अपनी सभी कहानियों में डॉक्टर सुमन धर्मवीर ने सरस सरल सुबोध भाषा शैली का प्रयोग कर कहानियों को सुगम , पठनीय व प्रभावी बनाया है।

सभी कहानियों के उद्देश्य खुलकर स्पष्ट किए गए हैं जो कि कहानी के मुख्य तत्व एवं गरिमा लिए हुए हैं।
इसलिए मैं डॉक्टर सुमन धर्मवीर को उनके उज्जवल भविष्य के लिए ढेरों शुभकामनाएं देती हूं। ढेरों शुभाशीष देते हुए यह कामना करती हूं कि उनका भविष्य अत्यंत उज्जवल हो।

भीमाशीष एवं बुद्धाशीष!
ढेरों शुभकामनाएं!

 

समीक्षक : साहित्यकार व प्रोफेसर कश्मीरी “बौद्ध”
म. न 1651/,21,
हैफेड चौक, रोहतक:_124001
हरियाणा

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