नारी हूं मैं नारायणी | Nari Hoon Main Narayani
नारी हूं मैं नारायणी
( Nari hoon main narayani )
नारी हूं मैं नारायणी।
कहलाती हूं नारायण की अर्धांगिनी।
अपनी शोभा बढ़ाने की चाह,
जब नारायण के मन में आया ।
तब मेरी उत्पत्ति किया गया,
मुझे गया अपने से अलग कर बनाया।
मैं उनकी शक्ति स्वरूपा हूं।
उन्हें प्रेरणा देने वाली, उनकी प्रेरणा हूं।
नहीं हूं मैं किसी की हवस पूरी करने वाला उपहार।
समझे ना मुझे कोई बेबस और लाचार।
नारायण वृक्ष हैं तो ,मैं उस वृक्ष पर खिली हुई सुंदर फूल हूं।
अपनी सुंदरता से करती हूं ब्रह्माण्ड को सुशोभित,
सारी सृष्टि को गोद में रखने वाली मैं, धरा के रुप में स्थूल हूं।
सारे बीजों को मैं ही गर्भ में पालती हूं,
मैं ही प्रकृति हूं, मैं ही हूं सबको भ्रमित करने वाली माया।
बड़े – बड़े ऋषि, मुनि,तपस्वी, ज्ञानी सबको मैंने घुटने टिकाया।
मैं दुर्गा हूं, मैं काली हूं ।
एक से बढ़कर एक दैत्यों का संहार मैं कर डाली हूं ।
शांत रुप में मैं ममता की मूरत, महा कल्याणी हूं।
रौद्र रूप में मैं खौलता हुआ गर्म पानी हूं।
मैं ही भक्ति हूं, मैं ही प्रभु की पहचान करा ,
अपनी माया स्वरुपा के चंगुल से छुड़ाती हूं ।
मैं ही प्रभु का सामीप्य सुख का रसपान करा सबका भव बंधन तुड़ाती हूं।
श्रीकृष्ण जी की प्राण राधा मैं ही,
मेरे लिए ही करते थे प्रभु नित बंशी बजाया ।
श्रीकृष्ण जी संग रास रचा ,
मैंने ही शाश्वत प्रेम की परिभाषा से सृष्टि को सजाया।
सीता बन मैं ही रावण के संहार हेतु,
अपनी छाया छोड़ अग्नि में प्रवेश किया।
रावण का संहार कर प्रभु ने पुनः मुझे अग्नि से पा लिया।
वनवास का मार्ग अपना मैंने ही,
त्याग, पतिव्रत धर्म की शिक्षा सबको दिया।
जन कल्याण हेतु मैंने उस युग में,
प्रभु विरह का जहर भी जो है पिया।
मैं ही वो वीरांगनाएं हूं, जो अंग्रेजों को करती थी धूल चटाया।
ईश्वर की शक्ति रूप में सबकी शक्ति बन,
मैं ही रहती हूं शक्ति रूप में सबमें समाया।
मेरी ही कृपा से सब करते हैं पुरुषार्थ कमाया।
मेरे ही साथ से सभी ने अपना अपना धाक है जमाया।
नादान है लोग आज,करते हैं मेरा अपमान।
पुरातन समय में हुआ करता था मेरा अलग ही सम्मान ।
गौरवान्वित होते थे पिताएं करके मेरा कन्यादान।
पानी ग्रहण करने वाला भी सर आंखों पर बिठाता था,
बढ़ाने वाली मुझे मानकर अपना खानदान।
सबके हृदय पे मैं राज करती थी ।
परमानंद से मैं घर -आंगन भरती थी ।
सास – ससुर ,,सभी मुझे मानते थे अन्नपूर्णा।
चाहते थे मुझे सब दिन दुगुना ,रात चौगुना।
रचयिता – श्रीमती सुमा मण्डल
वार्ड क्रमांक 14 पी व्ही 116
नगर पंचायत पखांजूर
जिला कांकेर छत्तीसगढ़