चौहान शुभांगी मगनसिंह जी की कविताएँ | Chauhan Shubhangi Poetry
अटल है जो सत्य है
किसी हाल में जिन्हें
पलायन नहीं स्वीकार
कारगिल युद्ध की जीत पर अगुआई की ..
हर मुश्किल की घड़ी में
रहकर तय्यार…
अखंड भारत का स्वप्न करने के लिए साकार
भारत में विशेष गतिविधियों को जिन्होने दिया आकार
रहे जो भारत के महान साहित्यकार कवि लेखक पंतप्रधान और पत्रकार….
राष्ट्र मानेगा जिनके अनंत युगों तक उपकार …
भारत के रतन
चुनौतियों को…
अड़चनों को …
हस हंसकर करते है जो स्वीकार
घनघोर अंधेरे में भी जो
उम्मीद का बुझा दीपक जलाते है
आँधियों में विश्वास का
चमकता हुआ दिनकर
क्षितीज पर ले आते है…
प्राणों का अर्ध्य देकर
भारतभूमि को अपने स्वेद से सिंचकर
सुखा हुआ कमल
मरूस्थल में भी फिर से
जो खिलाते है …..
अखंड भारत के गौरव का पुनरूत्थान का
करते है जो
द्वाराचार …..
अटल है सत्य है ….
ये बनारस के घाट
ये बनारस के घाट….
कभी हँसते हुए
कभी आँखो में आंसुओ को भरते हुए
कभी बहुत सुंदर
कभी बहुत उदास
यह बनारस के घाट….
जीवन को अपने अंदर बसाते
मृत्यु का उत्सव हर्षोल्लास के साथ मनाते
तुम जैसे ही है शीतल शांत
चिता की निरंतर अग्नि से करते है मन को भ्रांत
ये बनारस के घाट…
चिर शांत रात्री में एक जगह ठहरी नौका जैसे
पवित्र प्रज्वलित दीपक भोर के गंगा स्नान जैसे
मुक्ति को आवाहन देते
यह बनारस के घाट…
कुछ तुम जैसे
कुछ मुझ जैसे
कुछ कुछ हम दोनों जैसे
जीवन और मृत्यु से जूझते हुए नजर आते है
ये बनारस के घाट….
ये बनारस के घाट….
हूँ मैं अंधेरी रात
हूँ मैं अंधेरी रात…
मुझसे ही रोशन है जुगनुओं की बारात
चाँद है चमकता
बिखरती है चाँदनी मुझसे ही जब हो पूनम की बात
हूँ मैं अंधेरी रात …
अमावस मेरी ही गोद में है खेलती
और ज्यादा घना अंधेरा करता है
मुझसे दो दो हाथ
गिद्ध की आवाज़
कुत्ते भी है रोते बीन बात
हूँ मैं अंधेरी रात…
टूटते तारों ने भरी है गोद मेरी
प्रार्थनाएँ कयी दुखी ह्दय यों की जानें नहीं दी मैने कभी खाली
दे दीया सुख का उजाला उसे
जिसने की मुझसे प्रेम से बात
हूँ मैं अंधेरी रात…
मैं एक अकेली साक्षी हूँ
इस समशान के जलते हुए अग्निकुण्ड की
शांत भाव से बहती हुई इस नदी की
पंछियों की जिन्हे मनहूस समझा जाता है रात के अंधकार में जो करते है विचरण
और मैं साक्षी हूँ मेरे स्वयं के अंधियारे की
सौगात नहीं माँगती मैं उजाले की
मैं अपने आप में हूँ
समर्थ और साकार
देती हूँ मैं ही दिन को आकार
मुझसे चाँद की है रौनक
जब मैं स्वयं तिमिर की हूँ चादर ओढ़ती फैल जाता तब दिन का प्रकाश
अनाज में भर जाता है मुझसे ही स्वाद
हूँ मैं अंधेरी रात …
मत करो मुझसे उजाले की बात
अपने-आप में हूँ मैं परिपूर्ण जीवन के लिए हूँ एक सौगात
हूँ मैं अंधेरी रात….
हूँ मैं अंधेरी रात….
एक छोटा दीप जलाया है
एक छोटा दीप जलाया है
मन के भीतर
तम हट जाये आज सारा मन के भीतर
चेतना,श्रद्धा, विश्वास
प्रेम और समर्पण
राष्ट्र के लिए हो सदैव सबकुछ अर्पण
भारत का प्रकाश पर्व
मना लें हम
मन के भीतर
तम हट जाये आज सारा
मन के भीतर
तेजपुंज बन जाये आज मन मन के भीतर
प्राण त्याग तपस्या साधना
राष्ट्र की पूजा और आराधना
हो जाये मन के भीतर
काम क्रोध मद मोह और मत्सर का
अंधकार मिट जाये मन के भीतर
एक छोटा दीप जलाया है
मन के भीतर
तम मिट जाये आज सारा मन के भीतर
चेतना, श्रद्धा विश्वास, प्रेम और समर्पण
सबकुछ हो
राष्ट्र के लिये अर्पण…
एक छोटा दीप जलाया है….
लोकगीत
लोकगीत में आप और हम ही तो है
कुछ अलग कहाँ
सबकुछ तो वही है
जो हम सदियों से जीते आ रहें है
संस्कृति और परंपराओं की फुलवारी
पूर्वजों की अगुवाई
ढोलक पर गाई जाती है सोहर बधाई
कभी वीणा और तंबूरे के तार है छिड जाते
कभी लोकनायक राजा महाराजाओं के गुण है गाये जाते
पृथ्वी वीर सांगा महाराणा शिवाजी की है तलवार खणकती
लोकगीत में आज भी है महानायकों की वीरता झलकती
लोकगीत हमारी धरोहर है
भारत जैसे विशालकाय शीतल छाँव देती बरगद की गहरी जडे है
हमें इन लोकगीतों को सजाना होगा
फिर से इन्हे लेखनी में अपनी उतारना होगा
लोकगीतों को गाया करो
समाज और राष्ट्र का उद्धार किया करो
भारत देश को वीरों का देश फिर बनाना होगा
अपनी परंपरा संस्कृति और संस्कार को फिर से जीवन में उतारना होगा
लोकगीतों मे आप और हम ही तो है
कुछ अलग कहाँ
लोकगीत समाज का दर्पण है
साहित्य को सदैव अर्पण है
लोकगीत का उपहार
लोकगीतों मे आप और हम ही तो है
कुछ अलग कहाँ…..
मन की घनीभूत पीड़ा
ये तेरा सादगी से भरा चेहेरा
मुस्कान बिखेरती होंठो की रूखी सुखी हँसी
ये भ्रम से भरा दिन …
ये भय से भरी रात …
तेरे सर पर आँचल की बदली
थोड़े समय के लिए छट जाती और मन की मेरे घनीभूत पीड़ा घनघोर होकर बरस जाती….
मन की घनीभूत पीड़ा…
घनघोर होकर बरस जाती..
बरस जाती…..
मरघट
जलती है चितायें अनगिनत
अग्नि की लपटों को लिए संग
जीवन का फेरा शुरू हुआ
जब इसका मरघट पर अंत हुआ
संघर्ष आकर रूका यहाँ
सांसो का शमन हुआ
यह अग्निकुण्ड जलाया जायेगा जब-जब
जीवन गीत गाकर मरघट सुनायेगा तब-तब
नमन करूँ इस समशान को
जीवन की
शुरुआत और अंत को
जो आया है वह जायेगा
जायेगा वो फिर आयेगा
यही गीता सार सिखाता है हमको
मृत्यु का शोक न कर
मरघट का भय न कर
अंत है जहाँ
वंही तर्पण है
मरघट से ही जीवन फिर अर्पण है
मरघट से ही
जीवन फिर से आरंभ है
जीवन और मृत्यु का दर्शन है
मरघट….
तुम्हे क्या लिखूँ
धड़कन लिखूँ गर
तो एक क्षण भर धड़कन भी धड़कना भूल जातीं है
साँसे लिखूँ तो भरोसा नहीं कब रूक जायेगी
जीवन लिखूँ तो धोखेबाज होता है
स्वप्न लिखूँ अपूर्ण रह जाता है
साथ लिखूँ बीच राह में छूटकर चला जाता है
भाग्य लिखूँ तो अभागा भी हो सकता है
राह लिखूँ तो राहें नया मोड भी ले लेती है
मझधार लिखूँ तो तूफानों में डूबने का डर बना रहेगा
किनारा लिखूँ तो किनारे भी साथ छोड़कर चलें जाते है
किनारे को पाने की नहीं मन में अब कोई आस
समय लिखूँ तो समय देखकर वह भी तो बदल जाता है
भरोसा विश्वास लिखूँ तो टूट जाता है
परिपूर्ण लिखूँ तो कुछ भी परिपूर्ण नहीं होता है
सफर लिखूँ तो एक स्थान पर रूकता नहीं है
कुछ सफर अधूरेपन की सफर में ही खोकर रह जाते है…
क्षणभंगुर ही लिखना उचित लगता है
यहाँ सबकुछ क्षणभंगुर ही तो है…
मैं क्षणभंगुर…
तुम क्षणभंगुर…
तुम्हारे और मेरे बाद जो बचेगा वह भी होगा क्षणभंगुर…
क्षणभंगुर…
रूप चौदस
रूप चौदस का शुभ दिन हैं आया
चौदह भुवन,तीन लोको का वैभव है अकेली धरा पर उतर आया
चौदह भुवन तीन लोकों का सौदर्य चौदस के दीप में है समाया
चौदह रत्नों से भरे भंडार
यमदिप का आज हम करें दान
गोधूलि की बेला है
अमृत की भाँति जल रहा यमदीप अकेला है
चाँद सुरज सब तारे मिलकर
आज लछमी के तेजस्वी
असिम सुंदर रूप का
कर रहे औक्षण
चौदह भुवनों से भरा पवित्र
रूप चौदस का
आज आँगन में
फैले पावन उजाला…
चौदह रत्न से भरे
लगाये चौदह दीप
यमदूत यमदेवता को प्रसन्न करें यह
रूप चौदस का पावन दीप
रूप चौदस का
पावन दीप ….
नेपाल भारत मित्रता
नेपाल अलग कहाँ
भारत का ही एक भाग रहा
शत्रुता का उल्लेख नही
मित्रता की ही सदा बात रही
मित्र कहो
या कह लो भाई
कभी संभव नहीं …
दोनों की जुदाई
माँ सीता की जन्मस्थली रही पवित्र यहाँ
बुद्ध का भी जन्म था यंही हुआ
आज भी श्री राम माँ सीता की झलकियाँ मिलती हैं
हैं असंख्य पवित्र मंदिर यहाँ
विजयादशमी मनाई जाती है बड़ी धूमधाम से यहाँ
रावण के पुतला दहन और रामलिलाओं का होता है समापन यहाँ
जब जब आती हैं विपत्ति
राहत पहुंचाते है दोनों देश एक-दूसरे को
नहीं हैं सरहद कोई
न है आतंकवाद का भय
दोनों एक-दूसरे को देते आये है सदा अभय
सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक महत्व और विश्वास दोनों में बरकरार है
इसलिए मित्रतापूर्ण संबंध में
भारत-नेपाल दोनो देशो का गुणगान है
मित्रता नेपाल और भारत की विश्व में महान है …
मेरी माँ हिंदी सबसे प्यारी मेरी हिंदी
जननी और जन्मभूमि का
ऋण होता हैं जैसे हम पर
वैसे ही होता हैं ऋण
हम पर
हमारी मातृभाषा का
हमारी बोली भाषा का
हमारी राष्ट्रीय भाषा का
ऋण एसा की
किसी भी जनम में उतारा ना जायें
प्रेम और स्नेह से प्यार से हमें दुलारती हैं
माता के गर्भ में ही हमें संवारती
बोली भाषा में तुतलाती हैं
कभी घर-आँगन को किलकारियों से सजाती हैं
मेरी माँ हिंदी…
सबसे प्यारी हिंदी
कभी झरोखे से
छत से
कंगोरी से
पड़ोस की खिड़की से
दरवाज़े से
धीरे से तो कभी बड़ी जोर से आवाज़ लगाती
मेरी माँ हिंदी…
सबसे प्यारी हिंदी
गलियन चौबारे से
बच्चे बड़े बुजूर्ग सब के आवाज़ में अधिक शोर मचाती
सुरज की पहली किरण में गर्म चाय की प्याली के साथ अखबार की सुर्खियों में अपनी अमिट छाप बनाती
मेरी माँ हिंदी…
सबसे प्यारी हिंदी
इतिहास के पन्नों पर
वेद पुराण में गीता रामायण में
पुस्तकालय के पुस्तकों में
अपनी कभी नही मिटने वाली
युगों-युगों तक सदियों से अमिट छाप बनाती
मेरी माँ हिंदी…
सबसे प्यारी हिंदी
शौर्य के स्वाभिमान के गीत गाती
राष्ट्रीयता के प्रखर स्वर जगाती
वैभवशाली इतिहास के
गौरवपूर्ण किस्से सुनाती
अमर भूतकाल वर्तमान और आगे अपना भविष्य दोहराती
मेरी हिंदी
सबसे प्यारी मेरी हिंदी
भारत देश से धीरे-धीरे विदेश की ओर अपने कदम बढ़ाती..
राष्ट्रीय स्तर से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अग्रसर होती
बड़ी तेज रफ्तार से
अभिव्यक्ति के अद्भुत आसार दिखाती
मेरी हिंदी
सबसे प्यारी मेरी हिंदी
तेज-गती
बढ़ती जा रही हैं राष्ट्रीय से अंतरराष्ट्रीय
गंतव्य पर…..
हिंदी हम सबकी हैं
हिंदी तेरी हैं ..
हिंदी मेरी हैं…
हिंदी हम सब की हैं…
हिंदी हमारी जान
हिंदी हमारा मान
हिंदी हमारा स्वाभिमान
हिंदी हमारा अभिमान
हिंदी हैं हमारा आत्मसम्मान…
हिंदी में ही गूंजता हैं हमारे भारत का राष्ट्रगान…
माँ की बोली भाषा हैं हिंदी
गलियों चौबारों की बहार हैं हिंदी
आस पड़ोस से दरवाजे खिड़की से झाँकती हैं मेरी हिंदी
सरहद से आती चिठ्ठी के संदेसे की तड़प हैं हिंदी
बाबूजी की डांट-फटकार हैं हिंदी
बनावटी दिखावटीपन से
कोसों कोस दूर हैं हिंदी
जैसी लिखी जातीं हैं बिल्कुल वैसी ही पढ़ीं जाती हैं हमारी हिंदी
देवनागरी का सम्मान हैं हिंदी
देश की जन-जन की बोली
बन रही अब विदेशियों के भी मन-मन की बोली
धरती से आकाश में चाँद पर लगे तिरंगे में झलकती हैं मेरी हिंदी
हिंदी तेरी हैं …
हिंदी मेरी हैं …
हिंदी हम सब की हैं…
हिंदी हम सबकी हैं ..
देश की विदेश की विश्व भर की हैं हिंदी
आओ हम सब मिलकर
एक प्रण करते हैं
घर- परिवार हो
समाज हो
राष्ट्र हो या हो पर राष्ट्र
हिंदी ही रहें सदा अपनी बोली
अपनी आशा और अभिलाषा की हमजोली
वैश्विक भाषा का स्थान हो
विश्व के हर ह्दय में मेरी हिंदी का मान हो
राष्ट्र भाषा हिंदी का सम्मान हो
सम्मान हो…
माँ आभा तुम्हारी दमके
समीर मंद मंद चले
चरणों को छूकर तुम्हारे
माँ भवानी
तुम मुस्कुराती हो तो
गगन में शरद चाँदनी बरसती है
तुम्हारी एक झलक पाने को
दुनियाँ तरसती है
समीर मंद मंद चले
चरणो को छूकर तुम्हारे
माँ भवानी
लाल लाल चूनर
माँग सिंदूरी आभा दमके, खजूरी चोटी में तुम्हारी मोगरे की खुशबू महके
चंपा चमेली का तेल तुम्हारे मन भाये माँ
बिंदियां चमके
चूड़ियां तुम्हारी सुहाग की बनी लाख से कंगन हरी-लाल खणके
मेहंदी सौभाग्य की हाथों पर रंग लाई
मठियां चाँदी की पहनी माँ तुमने
उजाला चाँद सुरज सा भवन में फैले
समीर मंद मंद चले
चरणों को छूकर तुम्हारे
माँ भवानी
जब तुम मुस्कुराती हो तो
गगन में शरद चाँदनी बरसती है
पायल खणकी तुम्हारी
बिछियां पाँव में सुहाती माँ
महावर की लालई में
दुनियाँ सारी रंग जाती माँ
समीर मंद मंद चले
चरणों को छूकर तुम्हारे
माँ भवानी
जब तुम मुस्कुराती हो
गगन में शरद की चाँदनी बरसे
माँ शरद चाँदनी बरसे….
आभा तुम्हारी दमके…
गरीबी
जब गरीबी से मुलाकात हो जाए
तब गरीबी पता नहीं चलती
जब गरीबी का आप स्वयं अनुभव ले लो तब गरीबी पता चलती हैं
जब एक छटाक मीठे तेल में
चार वक्त का भोजन बनाना पड़े
सब्जी के लिए मन तरस जाए
तब गरीबी पता चलती है
एक कमाने वाला
दस खाने वाले हो
तब गरीबी पता चलती है
घर में सबसे बड़े होने का एहसास कराकर
आपको बचपन में ही बुजुर्ग बना दिया जाए
बाप बनने से पहले ही
अपने ही छोटे भाई बहनों का बाप बना दिया जाता है
तब गरीबी पता चलती है
आपके बड़े होने की सजा जब पत्नी और बच्चो को मिलती है
बिटिया को खेलने के लिए एक गुड़िया नही मिलती है
बेटा जब एक पतंग को तरस जाए तब गरीबी पता चलती हैं
घर में सबके लिए जुते चप्पल खरीदते खरीदते अपने ही बनियान और चप्पल में पड़े छेद जब इन्सान छिपा लेता है
तब गरीबी पता चलती है
टीकट के लिए जब दस रूपये के लिए किराना दूकान पर हाइब्रिड बेचना पड़ती है
तब गरीबी पता चलती है
नहाने के लिए जब चीक शैम्पू भी न मिले तब गरीबी पता चलती है
चूल्हे पर दस लोगों का खाना तुराटियों पर बनाते बनाते जब धूँआ दोपहर तक साथ न छोडे
और देर रात तक गर्म चूल्हे को पूतना पड़े ना
तब गरीबी पता चलती है
गरीबी अनुभव की तो
उसकी अनुभूति होती है
गरीबी से मुलाकात नहीं बल्कि गरीबी जीनी पड़ती है
अनुभव ही जीवन का सबसे बड़ा गुरू होता हैं …
ह्दय में हो .. अंतर्मन में हो कृष्ण …!
कृष्ण…!
ह्दय में हो..
अंतर्मन में हो
मेरे जीवन के हर क्षण में हर अनुभव में हो. .
कृष्ण…!
मेरे दुख में हो
मेरे सुख में हो ..
पल-पल और हर लम्हे के परिवर्तन में हो..
कृष्ण…!
बाल गोपाल में हो..
बुजूर्ग के आशिर्वाद में हो
स्त्री के मान-सम्मान में हो
अपमान में स्त्री के दौड़कर आते हो
कृष्ण…!
आकाश गगन भर हो
धरती पाताल में हो
अकाल में हो
सुकाल में हो
मेरे मन की अमीरी में हो
झोपड़ी की गरीबी में हो
कृष्ण…!
मित्र सुदामा के एक मुठ्ठी चांवल में हो
तीनों लोक के राजवैभव में हो
युद्ध में हो
शांती में हो
कुशल राजनीतिज्ञ हो..
कृष्ण…!
कंस के वध में हो
विजय के पथ में हो
महाभारत के रथ में हो …
गीता के ज्ञान में हो…
भारत देश के हर मन में हो
कृष्ण….!
जन्मोत्सव में हो
मरण के अंतिम क्षण में हो…
कृष्ण…!
ह्दय में हो
अंतर्मन में हो
मेरे जीवन के हर क्षण में हर अनुभव में हो…
हर जीवन अनुभव में हो…
कृष्ण…!
किसान…
धरा हैं…
तपिश हैं
हल हैं
बैल हैं …
इसी में छिपा किसान का कल हैं..
सुखी रोटी हैं
बच्चों के अधूरे सपने हैं
फटी हुई कमीज हैं
मैली धोती हैं
बगैर चप्पल के पाँव हैं
अकाल हो
या हो सूकाल..
इसी में छिपा किसान का कल हैं …
किसान करता हैं काम
धूप में
बरसात में
सर्दी में
हर मौसम में
करता नहीं कभी आराम
धरा हैं
तपिश हैं
हल हैं
बैल हैं
इसी में छिपा किसान का आज और कल हैं
आज और कल हैं …
स्त्री..
तुने आधी रात को
जब -जब हाथ को पकड़कर बाहर निकाला
तब-तब हौसला मेरा
डर की सारी हदें पार कर गया
डर कभी अंधेरे से नही लगा
बल्कि
डर समाज के तानों का
डर आत्मनिर्भर न बन पाने का
डर बच्चो से छूट जानें का
और डर किसी पूल पर से
या किसी गाड़ी के नीचे रौंद जानें का..
घर में भी
सदा रहा हैं डर
तुम्हारे कमर के पट्टे से शरीर रंगने का
कभी पंखे से टंग जानें का
कभी तुम्हारी गालियों का
कभी थप्पड़ों का
कभी लाथ और हाथ के घूसों का
बाहर भी डर
घर में भी डर
मन में भी डर
हर कंही पर डर
फर्क सिर्फ इतना हैं की चार दिवारी के अंदर
सिर्फ तुम्हारा आतंक सहना होगा यह समझकर सहती जाती हूँ
क्योकि स्त्री चार दिवारी के बाहर होती हैं असुरक्षित..
घर के अंदर पती से
बाहर अत्याचारियों दरिंदों से
दोनों ही जगह पर
होता हैं आतंक
घर और बाहर
मैं पाती हूँ सजा एक स्त्री होनें की
स्त्री होने की….
अनाथ
इन अनाथ बच्चों के चेहरे देखकर
जीने का मन करता हैं…
निस्वार्थ
निश्चल
मानवता से भरी संवेदनाओं से भरी हँसी
हँसने का मन करता हैं
इन अनाथ बच्चों के चहरे देखकर
जीने का मन करता हैं…
खुशियों की झोली माना की खाली हैं
अवसाद से भरी दुनियादारी हैं
उस खाली झोली को देखकर
तार-तार हुए सपनों को
बिखरे हुए बचपन को
धीरे से समेटकर उस झोली में भरने का मन करता हैं
इन अनाथ बच्चों को देखकर
जीने का मन करता हैं…
नही हैं ये बच्चे अपनी माँ का चाँद
और न ही हैं यह किसी पापा की परी
इस विशाल आसमान का
छोटा सा टूटा हुआ तारा हैं यह
इस टूटे हुए तारे को देखकर
दुआओं में
प्रार्थना में
यह खुला आकाश माँगने का मन करता हैं
इन अनाथ बच्चों के चेहरे देखकर
जीने का मन करता हैं …
जीने का मन करता हैं…
घर घर तिरंगा हर घर तिरंगा…
हिमालय पर
सुर्य फैलाए स्वर्णिम किरणें प्रथम यहाँ
वसुंधरा हैं हरी-भरी
खेत लहलहाते हैं जहॉं
चाँद स्वाद भरता हैं अन्न में जहाँ
ठंडी पवन चली..
स्वतंत्रता संग्राम के गीत गाये जाते दोहे छप्पयै यहाँ
अमृत महोत्सव हैं
राष्ट्र का यह आनंद उत्सव हैं
मान हैं तिरंगा
अभिमान हैं तिरंगा
भारतियों का यह आनंद उत्सव हैं
स्वतंत्रता का यह दिन महान हैं..
घर घर तिरंगा हैं
हर घर तिरंगा हैं
आज़ादी का यह उत्सव हैं
भगतसिंग सुखदेव राजगुरु बिस्मिल आज़ाद की यह आज़ादी हैं
फाँसी का फंदा बन गया पुष्प की माला जहाँ
यह देश हैं
गौरवपूर्ण इतिहास का
यह देश हैं वैभव संपन्नता का
अविष्कार की यह जननी हैं
ज्ञान-विज्ञान का भरा भंडार जहाँ
प्रतिभाओं की हैं चमकती आभा यहाँ
आज़ादी का अमृत महोत्सव हैं
राष्ट्र का यह आनंद उत्सव हैं …
घर-घर तिरंगा हैं
हर घर में तिरंगा हैं
अमृत महोत्सव हैं
राष्ट्र का यह उत्सव हैं…
प्रिय भारत हमारा हैं भारत देश हमारा हैं
प्रिय भारत हमारा हैं
भारत देश हमारा हैं…
राष्ट्र हैं
राम का
धनुष के बाण का
कृष्ण की बाँसुरी की सरगम
हैं वीणा के बजते तार जहाँ
बुद्ध का ध्यान हैं
महानिर्वाण मोक्ष का यहाँ मान हैं
प्रिय भारत हमारा हैं
यह भारत देश हमारा हैं …
यह भूमि हैं संतो की
यह भूमि हैं देवों की
त्याग और तपस्या की यह भूमि हैं बलिदान की
वीर-वीरांगनाओं का हैं बहा रक्त जहाँ
माटी की सुगंध हैं चंदन यहाँ
गुलामी हमें स्वीकार नही
परतंत्रता के हम आदी नही
स्वतंत्रता के गाये गीत दोहे छप्पयै जहाँ
यह भूमि हैं कालीदास केशव की तुलसी सुर मीराबाई का अध्यात्मिक हैं प्रेम जहाँ
भारत देश हमारा हैं
यह प्रिय भारत हमारा हैं …
हिमालय पर पड़ती सुर्य की स्वर्णिम किरणें प्रथम जहाँ
माँ वसुंधरा हैं हरी-भरी
लहलहाती हैं धरती संपन्नता से जहाँ
पवित्र गंगा कृष्णा कावेरी सरस्वती नर्मदा का अविरत, अविरल जल बहता हैं जहॉं
चाँद की किरणें भरती हैं अन्न में स्वाद जहाँ
ठंडी पवन हैं बहती जहाँ
भगतसिंग सुखदेव राजगुरू बिस्मिल आजाद की हैं आज़ादी कायम यहाँ
फाँसी का फंदा बन गया फूलों की माला जहाँ
तिरंगा शान से
अभिमान से
उठता हैं स्वतंत्र गगन में ऊँचा जहाँ
ज्ञान-विज्ञान की यह भूमि हैं
अविष्कारों की यह जननी हैं
प्रतिभाओं की हैं चमकती आभा यहाँ
गुरू शिष्य की सदियों से हैं परंपरा यहाँ
यह भूमि हैं वेद-पूराणों की
रामायण गीता का होता नित्य पठन यहाँ
वाल्मिकी वेदव्यास का रहा महान ज्ञान जहाँ
पृथ्वी महाराणा का प्रताप हैं
वीर शिवा का स्वराज हैं
यह राष्ट्र हैं
राम का
धनुष के बाण का
कृष्ण के बाँसुरी की सरगम
हैं वीणा के बजते तार जहाँ
बुद्ध का ध्यान हैं
महानिर्वाण मोक्ष का यहाँ मान हैं
यह भारत देश हमारा हैं
यह प्रिय भारत हमारा हैं …
दुर्भाग्य की मुठ्ठी में सौभाग्य के सितारे
दुर्भाग्य संग संग लिए
चलता हैं
मुठ्ठी में अपने भरकर
सौभाग्य के सितारे
संग संग चलते चलते हुए
कभी-कभार वह
सौभाग्य के सितारों से भरी मुठ्ठी
पिछे की ओर फेंकते हुए चलता हैं
जैसे कोई
कन्या बिदाई होते समय
सौभाग्य के चांवल अपने माँ की गोदी में पिछे की ओर फेंकती हैं
कुछ सितारे मिट्टी में मिल जाते हैं
और कुछ सितारों को हम
अपनी गोदी में भरकर
अंजुरी में भरकर
अपनें माथे से लगा लेते हैं
और फिर वही दुर्भाग्य
चमका देता हैं हमारे
सौभाग्य के सितारों को
दुर्भाग्य के मुठ्ठी में
बंद होते हैं
सौभाग्य के सितारे..
तुम्हे ढूँढती हुई नजर
तुम्हे ढूँढती हुई नजर
रूक गई
गाँव के अंतिम छोर पर जाकर
बेस होतीं हैं गाँव की जहॉं
नजर आती हैं जहाँ पर
रूकी हुई नदी
बहता हुआ पानी
एक जगह पर रूका हुआ मसान
और पानी के साथ
बहतीं हुई राख
मेरी नजरों की अंतिम सीमा …
अस्तित्व तुम्हारा …
दोनों का अंत
नजर आ गया
एक साथ
उस ठहरी हुई नदी में
बहते हुए पानी में…
ठहरे हुए स्तब्ध मसान के
बहते हुए राख में…
एक साथ
अंत नजर आया और रूक गई फिर तलाश..
तुम्हे ढूँढती हुई नजर की
तलाश…
ढूँढती हुई नजर की…
किसान
किसान धूप खा गया था सारी
धूपकाले में रोटी के साथ
अब बीज का अंकुरण देखकर
ले रहा हैं ठंडी कपकपाती हवा में बरसात में अपनी झुग्गी के भीतर अलाव की आँच ..
फटी हुई हैं कंबल ..
कंदील की रोशनी
कभी हवा से बुझती
कभी देतीं हैं जीवन के झंझावातों में साथ…
कीचड़ में हाथ पाँव हैं सने
फसल की रखवाली के लिए
ठंड में ,बरसात में ,हवा में तूफ़ान में खेत में जाता हैं आधी रात…
किसान धूप खा गया था सारी धूपकाले में..
रोटी के साथ …
रोटी के साथ..
यशोधरा
था …
यशोधरा का
मन घबराया
नयनों में था
नीर छलक आया..
बुद्ध का
यूँ
अचानक आधी रात
बिना बतायें जाना
यशोधरा के मन को
नहीं था भाया..
था वैराग्य से भरा मन
बुद्ध का अनोखा था जीवन
सिद्धी और साधना का
बचपन में ही
वरदान था पाया..
यशोधरा..
था तुम्हारा व्यक्तित्व बहुत ही महान..
किया नही कभी भी किसीने जिसका बखान
राज्य का उत्तराधिकारी चुपचाप चला गया
दु:ख तों रहा मन में अति की
बिना बतायें गया..
बुद्ध का बना व्यक्तित्व तेजस्वी
सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध कहलाये
जो भी
बुद्ध के पास था जाता
बुद्धमय वह बनकर रह जाता
बुदधम शरणम गच्छामी..
वह गाता ..
कपिल वस्तू घूमते हुए एक बार बुद्ध आयें
भिक्षाम देही की थे रट लगाये
धर्मशाला की शरण थे पायें
फिर भिक्षाम देही कहते थे
अब राजा के बेटे नही
वह थे एक भिक्षुक..
जैसे ही राजमहल के द्वार पर आयें
भिक्षाम देही की धून लगायें ..
यशोधरा…
ह्दय पर पत्थर रखकर
बाहर थीं आयीं
बेटे का हाथ बुद्ध के हाथ में थीं थमायी..
भिक्षा के रूप में
पिता को पूत्र था दिया
यशोधरा..
बताओ तो जरा तुमने
क्या सही थीं पीड़ा ?
कैसी थीं वेदना ?
यशोधरा..
इतिहास के पन्नो से सदा ही रही वंचित तुम्हारी यातना..
यशोधरा…
बुद्ध..
बुद्ध..
दो फूल लायी हूँ
चरणों पर
करने के लिए अर्पित..
आंसुओ के दो मोती त्यागकर आयीं हूँ..
बुद्ध..
दो फूल लायीं हूँ ..
वैराग्य
और करूणा
के दो फूल..
सद्भावना, दया, धैर्य और धीरज शांती की अधखिली कलियों को अपने साथ लायी हूँ ..
छोड़कर आयीं हूँ
संसारिक बंधन
और त्यागकर आयी हूँ
काम ,क्रोध , मद,मोह ,माया और मत्सर का बंधन ..
मन शुन्य ह्दय प्राण हुआ हैं मौन..
गरीबी उदासी संग लिये मनुष्य जीता हैं मृत्यू का अंतिम सत्य साथ लिये..
देख कर संसार की यातनायें वेदनायें पीड़ाएं अंतर्मन जर्जर हुआ..
अवसाद भरे क्षण संग लायी हूँ ..
साधना का परसाद पाने आयी हूँ..
बुद्ध..
आखिर यह मन तुम्हारे ही चरणों पर आकर स्थिर हुआ..
वैराग्य पाने को आतुर हुआ
बुद्ध..
लेकर आयीं हूँ दो फूल
चरणों पर
करने के लिये
अर्पित तुम्हारे..
दो फूल..
वैराग्य और करूणा के दो फूल
सद्भावना, दया ,शांती और धीरज धैर्य की अधखिली कलियों को अपने साथ लायी हूँ..
चरणों पर तुम्हारे करने के लिये
अर्पित..
दो फूल..
करूणा और वैराग्य के दो फूल
बुद्ध…
बुद्ध…
माँ..
जब मन में
सबकुछ टूटने लगता हैं
तब वह
धीरे – धीरे से काग़ज पर उतरने लगता हैं ..
उस टूटे हुए
बिखरते मन का
पहला भाव
माँ ..होतीं हैं
सबकुछ टूटता हैं
पूर्णरूप होतीं हैं तब
केवल
माँ…
जीवन के तुफान में
हँसता हुआ किनारा होतीं हैं
आंसुओ के सैलाब में सीप का मोती होतीं हैं
माँ..
विरान आँगन में मुस्कराती चाँदनी होतीं हैं
चौखट हैं
दहलीज हैं…
माँ किवाड होतीं हैं
कूंडी होतीं हैं
द्वार होतीं हैं
माँ टूटी हूई झोंपड़ी में राजमहल का सुख होतीं हैं
टपकते हुए छत में धीमा जलता हुआ दीपक हैं माँ
सुखी रोटी में भी पंचपकवान का सवाद हैं माँ
सारी दुनियां जब मूह मोड़कर चलीं जाती हैं
तब साथ मेरे अकेली
हिम्मत से खड़ी होतीं हैं माँ..
अर्धविराम लगे मेरे जीवन में
पूर्णविराम हैं माँ..
मन में मेरे
जब सबकुछ टूटने लगता हैं
तब वह धीरे- धीरे कागज पर उतरने लगता हैं
उस बिखरते टूटते मेरे मन का
पहला भाव हैं माँ ..
माँ…
मेरी माँ..
जीवन के तुफान में
हँसता हुआ किनारा होतीं हैं
आंसुओ के सैलाब में सीप का मोती होतीं हैं
माँ..
विरान आँगन में मुस्कराती चाँदनी होतीं हैं
चौखट हैं
दहलीज हैं…
माँ किवाड होतीं हैं
कूंडी होतीं हैं
द्वार होतीं हैं
माँ टूटी हूई झोंपड़ी में राजमहल का सुख होतीं हैं
टपकते हुए छत में धीमा जलता हुआ दीपक हैं माँ
सुखी रोटी में भी पंचपकवान का सवाद हैं माँ
सारी दुनियां जब मूह मोड़कर चलीं जाती हैं
तब साथ मेरे अकेली
हिम्मत से खड़ी होतीं हैं माँ..
अर्धविराम लगे मेरे जीवन में
पूर्णविराम हैं माँ..
मन में मेरे
जब सबकुछ टूटने लगता हैं
तब वह धीरे- धीरे कागज पर उतरने लगता हैं
उस बिखरते टूटते मेरे मन का
पहला भाव हैं माँ ..
माँ …
ओ मेरे मनमीत
ओ मेरे मनमीत
मन का मेरे मौन संगीत
उलझन सुलझी
सुलझी उलझन फिर उलझी
इस उलझने सुलझने की घड़ी में
इक जमाना बित गया
ओ मेरे मनमीत
मन के मेरे मौन संगीत
बात बन गई
बनी बात फिर बिगड गयीं
बात बनने और बनकर फिर बिगड़ने में
इक जमाना बित गया
ओ मेरे मनमीत
मन के मेरे मौन संगीत
ह्दय प्राण के तार छिड़ने में
छिडकर तार-तार होने में
गाँठ पड़ जाने में
पड़ी गाँठ को फिर खुलवाने में
इक जमाना बित गया
ओ मेरे मनमीत
जीवन के मेरे मौन संगीत
तुम्हारे बार-बार रूठने में
मेरे हर बार तुम्हे मनाने में
एक-दूसरे को फिर समझाने में
बार-बार रूठ जाने में
इक जमाना बित गया
ओ मेरे मनमीत
जीवन के मेरे मौन संगीत
शुरूआत और अंत ही हैं जीवन
अनंत अप्राप्य सागर मोती हैं यह जीवन
अवसाद और प्रसाद से भरी -भरी तों कभी उतरती लहर हैं यह जीवन
हैं यही मन की अभिलाषा और आशा
संग तुम्हारा लेकर
जीवन की कोलाहल से कंही दूर
उमर की ढलती साँझ का
किनारा मैं पाऊँ
तुम संग जीवन सागर में विलय और प्रलय का जीवन गीत मैं बन जाऊँ.
ओ मेरे मनमीत
जीवन के मेरे मौन संगीत
मौन संगीत…
माँ सदा तू
माँ सदा तू
साथ रहती हैं..
तू याद बहुत आतीं हैं ..
ह्दय के किनारे से
जब गम की लहर टकराती हैं
तब माँ.
तू याद बहूत आतीं हैं
मेरे हर सुख दुख-दर्द में मेरा साथ निभाती हैं
माँ..!
सच में तू याद बहूत आतीं हैं
एक एक गम की लहर आतीं हैं
तूफान से टकराती हैं
इस गम की तूफानी लहर में
जितने भी कमजोर सगे संबंधी सब बहकर जाते हैं
तब माँ तू याद बहूत आतीं हैं
जीवन का द्विप जैसे जैसे पिछे छूटता जाता हैं
लहर जीवन की वहाँ से यहाँ बहाकर लायी हैं
न जाने और कहाँ तक बहाकर ले जायेंगी यह जीवन लहरें
इस जीवन रूपी समंदर में
रेत पर पडते हैं निशान
कभी आगे बढते हुए कदमों के
तो कभी पिछे छूट गये पाँव के
कभी लकीर मिट जातीं हैं
तो कभी बन जातीं हैं
इस टूटने बनने और मिटने के सफर में
माँ तू याद बहूत आतीं हैं..
एक तेरा ही नाता एसा हैं माँ मुझसे
जो मेरी अंतरात्मा से बंधा हैं
मैं सुख में रहूँ
या दुख मे रहूँ..
जीवन रूपी समंदर में लहर चाहें शांत आयें या आ जायें तूफानी
तू हर लहर में संग हैं माँ
केवल संग ही नही
तूफान के हर लहर में
मेरा हाथ सदा थामती हैं
हर क्षण मेरे साथ साथ चलतीं हो
माँ..
जीवन रूपी इस समंदर में
तू प्रवाह द्विप सी
सदैव साथ साथ चलतीं हैं
हर क्षण..
माँ..
तू साथ मेरे चलतीं हैं
माँ ..
तू सच में याद बहूत आतीं हैं
ह्दय के किनारे से जब -जब गम की लहर टकराती हैं
तब -तब माँ तू बहुत याद आतीं हैं
याद बहुत आतीं हैं
तू माँ…
मृत्यु के जबड़े में
भारत का भविष्य
हैं किस दिशा की ओर जा रहा
क्या यही नवनिर्माण हैं
मेरा भारत महान हैं
तम्बाकू मावा खेनी गुटका
हैं मेरे देश को उलझा रहा
मेरे भारत का भविष्य
हैं किस दिशा की ओर जा रहा
तम्बाकू की लथ
कर देगी तुम्हे पूरी तरह से पस्त
शरीर को तुम्हारे तम्बाकू अंदर ही अंदर हैं जला रहा झुलसा रहा
मेरे भारत का भविष्य
हैं किस दिशा की ओर जा रहा
घर परिवार बीवी बच्चो की
लगा रहें हो बाजी
बन गये क्यों तुम
नशे के इतने आदि ?
नशा यह
अमृतमय जीवन से तुम्हे
मौत के करीब
ओर करीब लेकर जा रहा
मेरे देश का भविष्य
हैं किस दिशा की ओर जा रहा
तम्बाकू ने मिट्टी में मिला दिये हैं
सपनें तुम्हारे सोने-समान
देखो तो जरा ..!
अब तों तुम्हारा मुह भी पूरी तरह खूल नहीं रहा
कैंसर की बड़ी चेतावनी तुम्हे दे रहा
केवल घर-आंगन परिवार समाज से ही नही
अपनी सांसो से
अपने जीवन से यह तुम्हे उठा रहा
भारत का भविष्य
हैं किस दिशा की ओर जा रहा
तम्बाकू रहेगी
चार दिन खास
मार देगी यह तुम्हारी भूख और प्यास
दरद और वेदना होगी इतनी
समाप्त होगी फिर जीने की आस
यह नशेड़ी सफर
तुम्हे जीवन से मृत्यु की ओर खिंचकर ले जा रहा
मेरे देश का भविष्य
हैं किस दिशा की ओर जा रहा
मरोगे एक दिन
तम्बाकू को नही भर रहें हो
तुम अपने जबड़े मे
बल्कि यह भर रही हैं तुम्हे
धीरे-धीरे मृत्यु के जबडे मे
तुम्हारे सांस ह्दय-प्राण को यह
समशान की ओर ले जा रहा
तम्बाकू खैनी मावा गुटका
हैं देश के नई पीढी को उलझा रहा
तम्बाकू से भरा हुआ जबड़ा तुम्हारा
संत तो कभी तेजगती से
तुम्हे
मृत्यु के जबड़े मे ले जा रहा
मृत्यु के जबड़े मे लेकर जा रहा
क्या यही नवनिर्माण हैं
भारत मेरा महान हैं
मेरे देश का भविष्य
हैं किस दिशा की ओर जा रहा..
तम्बाकू मेरे देश को उलझा रहा
हैं देश को उलझा रहा
तम्बाकू..
लेकर जा रहा
मृत्यु के जबड़े में ..
जीवन
संत गति चल रहा
जीवन
नदी सरीखा
तूफ़ानों का अब दौर नही
सागर सरीखा
बस चलते जा रहा हैं
कोई ओर
न कोई छोर
न किसी सीपी की
तलाश हैं न किसी मोती की
फिसल रहा
जीवन
बंद मुठ्ठी में
रेत सरीखा
हर क्षण यहाँ
निर्झर शांत वन सरीखा
परिणामों की
चिंता नहीं
अब
परीक्षाओं का वह दौर कहाँ ?
परीक्षाओं का
अब वह दौर कहाँ ?
शुभ्र मोतियों सा उजला प्रकाश
देखकर तुम्हे
लगता हैं
जैसे फैला हो
शुभ्र मोतियों का
उजला -उजला प्रकाश
चहू ओर
नहा रहा हैं
उस प्रकाश में
भारतवर्ष सारा..
प्रकाश हैं
वीणा के सात सुरों का
जहाँ बज रहा ह्दय-प्राणों का संगीत स्वच्छ सुंदर
सा रे ग म प में
रंग गया हैं
बसंत मनोहर मनभावन
शुभ्र वस्त्र तुम्हारे
देते हैं
मन को शांती अपार
श्वेत कमल में विराजती हो सदा
ज्ञान से देती हो संवार
बुद्धी देती हो निखार
हम मुढ बालक तुम्हारे
देते हैं चरणों पर तुम्हारे माथा नवाये
सदैव करती हो बालको पर स्नेह की भरमार
हें माँ शारदे..!
हम तुम पर अपनी साँसे दे वार
प्राणों के फूल तुम पर न्यौछावर
हमारा जीवन दो संवार
मद , मोह माया मत्सर का जीवन से हमारे दो मिटा अंधकार
शिक्षा का गहना
हमे पहना दो एकबार
हें माँ भारती..!
माँ सरस्वती…!
शुभ्र वस्त्र धारिणी..
हे वाणी की देवी…!
देखकर तुम्हे
लगता हैं
जैसे फैला हो
शुभ्र मोतियों का
उजला-उजला प्रकाश
चहू ओर
चहू ओर
दर्द दबा लिया करते हैं
दर्द दबा लिया करते हैं हम
होंठो की मुस्कान में
रातों को जलते देखा हैं हमने
दिन के बियाबान में
चिरकर ह्दय..
निकली कविता
उभरे मन के घाव सारे
जतन कर रखते हैं अब हम
मन के गहरे ताबूत में
दर्द दबा लिया करते हैं हम
होंठो की मुस्कान में
पाँव के छाले न देखो अब
इस जीवन के मरूस्थल में
सफर जारी रखते हैं हम अपना
तपते हुये इस रेगिस्तान में
दर्द दबा लिया करते हैं हम
होंठो की मुस्कान में
कब्रिस्तान की जलती हैं आग अब
मेरे मन के मसान में
न बुझाओ यह आग बीच में..
समेट लूँ मैं अपनी अस्थियां
अरमानों से खाली पड़े इन हाथों में
दर्द दबा लिया करते है हम
होंठो की मुस्कान में
उजड़ा हुआ विरान सफर हैं
साथी नही अब मैं ही मेरा
सुनसान सी अब हर डगर हैं
दूर-दूर तक नही परछाई कोई
उजडे हुए सपनों की उडती हुयी अब राख हैं ..
दर्द दबा लिया करते हैं हम
होंठो की मुस्कान में
दर्द दबा लिया करते हैं हम…
आँखो की नमी
हर वह आँसू
जो छलक नही पाता हैं
आँखो से खुलकर जो बरस नही पाता हैं
वह
आँखो की नमी बन जाता हैं
जैसे बार-बार
एक ही जगह
घाव होता हैं
तब वह नासूर बन जाता हैं
हर वह आँसू
जो खुलकर छलक नही पाता हैं
वह
आँखो की नमी बन जाता हैं
चातक जिस तरह इंतजार करता हैं
वर्ष भर स्वाती नक्षत्र की
एक बूँद पानी का
जैसे स्वाती नक्षत्र की पहली बूँद
केले पर पडती हैं
तो कपूर बनती हैं
साँप के मुँह में पड़ती हैं
तो जहर बनती हैं
और गर सीपी में बंद हो जाएँ
तो मोती बन जाती हैं
वैसे ही
हमारी आँखो की नमी होती हैं
कभी नमी खुशी की
कभी नमी गम की
कभी नमी इंतजार की
तो कभी नमी कुछ साकार की
नमी इंतजार करती हैं
बेहिसाब, बेसब्र और बेवजह ही बरसने का
तपते रेगिस्तान में जैसे
हल्की नमी छिपी होती हैं
वैसे ही
हमारी आँखे भी
अपनी अंदर लिये होती हैं
एक हल्की नमी
और मन सोचने पर मजबूर होता हैं की,
आखिर बरसात की कमी क्यो हैं ?
आँखो में नमी क्यों हैं ?
आँखो में नमी क्यो हैं ?
हाँ..बदलेगा कलैंडर
हाँ
बदलेगा कलैंडर
बदलेगा कैलेंडर..
बदलेगी तारीख..
बदलेंगे लोग..
शायद बदलेंगे लोगों के मन..
बदलेंगे किस्से मनोहर..
बाकी सब तो वही होगा..
वही भोर..
वही चाय..
वही घिसे -पिटे तीखे कड़वे और जरा से मीठे समाचारों की बौछार..
नया साल..
नया साल..
क्या होगा नया ?
वही रसोई..
वही तरकारी अरहर की दाल
वही नींबू और आम का अचार
वही चूल्हा-चौका..
वही चार दिवारी की बात..
नया साल..
नया साल..
वही प्यारा घर-आंगन
वही रंगोली..
कभी रंगों से खाली..
तो कभी रंगो से भरी – भरी
नया साल..
नया साल..
क्या होगा नया ?
हाँ.. !!
बदलेगा कैलेंडर
बदलेगी तारीख
बदलेगी तारीख…
फिर कभी भोर न हुई
घनघोर काली रात हुई
जीवन में
फिर कभी भोर न हुई
भारत की बिटिया
निभा रहीं थी आधी रात तक मानवता का धर्म
सेवा में थी लगी
रोगियों के…
थककर आँखो में निंद की
थोड़ा-बहुत झपकी क्या लगी
जीवन में फिर कभी
भोर नही हुई
बहुत गहरे घाव मिलें
जख्म खुले क्रूर अमानवीय मिले
शर्म सारी वहशीपन में
हवस की भूख में बेस को टांग दिए
भेड़िए सारे विश्व में मेरे भारत को बदनाम किए
काली घनघोर रात हुई
देश की बेटी के जीवन में
फिर कभी भोर न हुई…
माँगती हैं न्याय
चीखकर उसकी दबी कुचली हुई चीखें चीख चीखकर..
कहती हैं बंद हुई उसकी साँसे
भारत अभी मेरी हार नहीं हुई
अभी मेरी हार नही हुई
जीवन में मेरे फिर कभी भोर नही हुई
काली घनघोर रात हुई
फिर कभी जीवन में मेरे भोर नही हुई…
विसर्जन
दिव्य प्रेम का यह उत्सव है
गणपति आज तुम्हारा विसर्जन है
उड़ा है गुलाल
है अबिर का छिड़काव
दो चार बूँद बरस रही
वीणा के मधुर है तार जो
पड़े है कुछ ढीले
बाँसुरी की सरगम..
मृदंग का है नाद
और तबले की थाप ..
सुनने के लिए उतावला हुआ है मन गणपति आपका और हमारा भी
विसर्जन हो आज
हमारे अवगुणों का
जिसमे विसर्जित हो जाएँ
डी जे की यह भयंकर कर्कश आवाज़
और आँखो की रोशनी छीनने वाले इस लेजर का प्रकाश..
अर्जन हो आज
आपके गुणों का
वीणा के बजने लगे मधुर तार..
हो बाँसुरी की सरगम साथ
और मृदंग और तबले की हो साथ..
हमारे अवगुणों का हो विसर्जन
गणपति आपके गुणों का हो अर्जन..
पृकृति का साथ हो
हरियाली हो
फूल और पान हो ..
और तुम्हारी बड़ी बड़ी मूर्तियों का न कभी अपमान हो
गोबर मिट्टी के हो गोबर गणेश
जिसका हम करें
मन से मौन सुरीले संगीत में आगमन….
आपके गुणों का हो अर्जन
हमारे अवगुणों का हो गणपति आज विसर्जन…
दिव्य प्रेम का यह उत्सव हैं
गणपति आज तुम्हारा विसर्जन हैं..
विसर्जन…
मची हलचल मन में
तेरे जाने से जो मची हलचल मन में
कैसे कहूँ ?
जैसे मेरे चिता में आग लगी
और अस्थियां भी न बची विसर्जन के लिए
जैसे भस्म भी हवा उडाकर ले गई
तेरे जाने से जो मची हलचल मन में
कैसे कहूँ ?
जैसे झूमकर सावन आया और बरसात भी न बरसी एक क्षण के लिए
प्यास मन के यौवन की युगों-युगों तक न बुझी
तेरे जाने से जो मची हलचल मन में
कैसे कहूँ ?
जैसे चिता में मेरे आग लगी और अस्थियां भी न बची विसर्जन के लिए
जैसे भस्म भी हवा उडाकर ले गई
तेरे जाने से जो मची हलचल मेरे मन में
कैसे कहूँ ?
जैसे जोरों की भूख लगी और अकाल में रोटी भी न बची खाने के लिए
जैसे जीने की आस ही मर गई पल -पल के लिए
तेरे जाने से जो मची हलचल मेरे मन में
कैसे कहूँ ?
जैसे मेरे चिता में आग लगी
और अस्थियां भी न बची विसर्जन के लिए
विसर्जन के लिए ..
ब्रज बिसरत नाही
उधो मोहे ब्रज बिसरत नाही
हैं राधा कृष्ण के अंतरात्मा में समाई
जोगी हैं मन हैं जोगी जीवन
राधा गोपियाँ है ह्दय अपना हारी
उधो मोहे ब्रज बिसरत नाही
है उधो आए निराकार प्रेम ज्ञान की पाती लेकर
जायेंगे साकार प्रेम की सीख लेकर
जाने राधा जाने मीरा
कृष्ण तो हैं बिराजे अनंत चराचर
उधो मोहे ब्रज बिसरत नाही
वासुदेव का दिल बैठा जाएँ
माँ देवकी बदले करवटे
इस नयन से उस नयन में आँसू छलकत जाई
जशोदा फूले नही समाई
नंद बाबा का मन हैं अती हर्षाई
कृष्ण का प्रेम सारी मथुरा पाई
उधो मोहे ब्रज बिसरत नाही
हैं राधा कृष्ण के अंतरात्मा में समाई
जोगी हैं मन हैं जोगी जीवन
राधा गोपियाँ हैं ह्दय अपना हारी
उधो मोहे ब्रज बिसरत नाही
राधा के उमर की ढलती शाम अब आई
कलयुग में माँ मीरा कृष्ण में समाई
मथुरा-वृंदावन काशी है मैने कृष्ण के रंग में रंगाई
उधो मोहे ब्रज बिसरत नाही
हैं राधा कृष्ण के अंतरात्मा में समाई
जोगी हैं मन हैं जोगी जीवन
राधा गोपियाँ ह्रदय अपना हारी
उधो मोहे ब्रज बिसरत नाही
सच में ब्रज बिसरत नाही
कृष्ण…
राखी का अधूरा -सा बंधन
अधूरे से रहे गये तुम
अधूरे से रहे गये हम
अधूरी-सी रहे गई तुम्हारी हँसी
अधूरी -सी रहे गई हमारी खुशी
रहे गया अधूरा तुम्हारा गुनगुनाते हुए रहेना
अधूरा रहे गया हमारा खिलखिलाना
जीवन में..
बहुत-सी बातें एसी थी जो नही होनी थी सो हो गई और जो होनी थी वह कभी नही हुई
सुख-दुःख आए और चले गयें
तुम नही आए
आस और काश आयें चले गयें
तुम नही आयें
अभाव-प्रभाव आए और चले गयें
तुम नही आयें
मान-अपमान भरी राहें आयीं और चलीं गयीं
तुम नही आयें
मृत्यू…
जीवंत होकर भी मृत्यू का अनुभव कयीं-कयीं बार आया और चला गया
तुम नही आयें
बाट जोहता बहेना का मन
प्रतीक्षा करता प्रत्येक क्षण
है अब भी इंतजार..
तुम्हारे आने का
तुम्हारे गुनगुनाने का
तुम्हारे हंसी-मजाक का
इंतजार हैं माँ-पिताजी के आसुओं के थमने का
बहेनो की राखी की लंबी उमर का
भाई के अकेलेपन को खत्म करने का
साथ अपने लेकर आना अब..
माँ-पिताजी के परिपूर्ण सपने
आना खुद की अभिलाषाएं पूरण लेकर
बहेनो के राखी की लंबी उम्र लेकर
भाई के अकेलेपन का साथी बनकर
आना अपने अंदर बहुत सारा धीर लेकर
और आना अपना चिरअनंत-सा और चिरसंचित-सा जीवन लेकर
प्रिय भाई रणधीर…
चमकता हुआ दिनकर
थी..
कलम की धार
जिसकी तेजकतार
रखता था जो तेवर अपने सदा तेज तर्रार..
आतंकी खामोशियों में भी
भर देता था जो
निडरता का शोर..
कर देता वह
काली अंधेरी रात में
अचानक सुनहरी भोर..
थी कविताओं में भरी जिसकी तेज अंगार
बुद्धी थी जिसकी राष्ट्रीय धर्म में तेज प्रखर और तेज तलवार ..
गुलामी की बेड़ियाँ थी जिसको नामंजूर
काव्य में अपनी बजाया था जिसने क्रांती का बिगुल
दोरथ पहियों का सुनाया था जिसने अंग्रेज़ों को नाद घर-घर
अंग्रेजी सिंहासन के किये थे जिसने खाली द्वार..
राष्ट्रकवि था वह
युगचारण था वह युगधारण..
दिनकर था
वह राष्ट्र का चमकता हुआ
दिनकर..
चमकता हुआ दिनकर..
दिनकर..
फरमान
ज्वालामुखी हैं धधकती
भारत की बेटियाँ
इन्हें मोमबत्तियों का मत मोहताज बनाओ
हाँ हा..!
भारत सरकार
हवस के भूखे भेड़िए की मौत का अब फरमान सुनाओ
उसे चौराहे पर जिंदा जलाओ
फाँसी के फंदे पर लटकाओ
हाँ हाँ..!
भारत सरकार
हवस के भूखे भेड़िए की मौत का अब फरमान सुनाओ
धधक रहें हैं अंगार
देशवासियों के मन में बेटी की इज्जत लूटने के
राजनीती लगा रहीं हैं कीमत
लुटे हुए इज्जत की
उन जख्मी हुए आत्मसम्मान और स्वाभिमान पर
झूठी सहानुभूति का मत मरहम लगाओ
हाँ हाँ…
भारत सरकार
हवस के भूखे भेड़िए के मौत का अब तुम फरमान सुनाओ
माता-पिता थक गयें हैं
अनुचित प्रश्न के उत्तर देकर
बेटी के मर जानें पर
परिवार को घिनौने कटघरे में मत बिठाओ
हाँ हाँ..!
भारत सरकार
हवस के भूखे भेड़िए के मौत का अब फरमान सुनाओ
फरमान हो एसा की
बलात्कारियों की रूह कांप जाए
बीच चौराहे पर जिंदा जलाओ
फाँसी पर लटकाओ
क्षण भर की देरी किए बीना
भारत की बेटियों की अमानवीय चीखों को उचित न्याय और सम्मान दिलाओ
हाँ हाँ..!
भारत सरकार
हवस के भूखे भेड़िए की मौत का अब फरमान सुनाओ
ज्वालामुखी हैं धधकती
भारत की बेटियाँ
मोमबत्तियों का इन्हें मत मोहताज बनाओ
हाँ हाँ..!
भारत सरकार
हवस के भूखे भेड़िए की मौत का अब फरमान सुनाओ
हाँ हाँ..!
भारत सरकार
फरमान सुनाओ
एक
फरमान….
हवस के भूखे भेड़िए के मौत का
फरमान…
इस युग में भी कृष्ण..
कृष्ण…!
महाभारत कें संग्राम के समय
एक ऊँगली पर
हुआ था घाव तुम्हारे
द्रौपदी ने दिया था अपनें पल्लू का एक कोना फाड़कर तुम्हें
उस घाव पर बाँधने के लिए..
रक्षा की तुमने जीवन भर..
हे कृष्ण…
इस कलयुग में तुम्हारे
भारत की बेटियाँ जो हैं
तीन माह..
तीन वर्ष…
सात वर्ष तों कभी सतरह वर्ष की..
बेटियों की इज्जत पर
दरिंदों के वहशीपन की
सर पर टंगी आज दो धारी तलवार हैं ..
हे कृष्ण..
सुरक्षा हैं करनी तुम्हें
आओ भारत की न्याय व्यवस्था पर
हवस के इन भूखे भेड़ियों के लिए
एक ठप्पा लगा जाओ..
ठप्पा नराधम के लिए मृत्युदंड का
लगा जाओ आकर एक ठप्पा
मृत्युदंड का…
मृत्युदंड का….
हिंदी
मन से मन के सेतुबंध से होकर ह्दय में उतरने वाली
हम सबके दिलों को अतिभाने वाली
भारत के धरती से आकाश के चाँद के तिरंगे पर गढ़कर
विव्श्र पटल पर अपने
अस्तित्व की गहरी छाप
छोड़कर विश्व भर में लहराने वाली माँ हिंदी को शत-शत नमन
चाय
चाय का अपना ढंग हैं
कभी गर्म तो कभी ठंड हैं
छोटे से लेकर बडों की पसंद हैं
बूढ़ों की तलब हैं
चाय अतिथि का स्वागत हैं
चाय शादी से
पहले
मंगनी की रस्म हैं
इसलिये तो गीत हैं
शायद मेरी शादी का ख्याल
दिल मे आया हैं ..
इसलिए मम्मी ने मेरी तुम्हे
चाय पे बुलाया हैं ..
चाय के क्या कहे अफ़साने
बरसात में याद आती हैं
ठंड में बड़ी मन भाती हैं
गर्मी का मौसम भी
पिछा कहाँ छोड़ती हैं
घर किसी के जब भी
जाओ
चाय को ना मत करना
इस डायट की दुनियां में
चाय को मत भूलना
चाय को मत भूलना…
बिजली का आशियाना
दिल में
बिजली का आशियाना रखतीं हूँ
गम नही
बदल गया जमाना
गुमनामियों की तलप रखतीं हूँ
अपनें दिल में
बिजली का आशियाना रखतीं हूँ
चाह नही अब
खिलूं मैं फूलों की तरह
अज्ञातवास में भी
कांटो में अपना ठिकाना रखतीं हूँ
दिल में
बिजली का आशियाना रखतीं हूँ
जिने की तो बात छोड़िए
मरने तो कहाँ देती हैं यह दुनियाँ
और मैं हूँ की ,
मरे हुये सपनों को भी जिंदा रखती हूँ
अपने दिल में
बिजली का आशियाना रखतीं हूँ
जीवन सफर के
इस उतार-चढ़ाव में ,
बिखरी हूँ कयीं-कयीं बार और बिखर जाऊँगी आगे भी कयीं बार
या फिर निखर जाऊँगी
इस बिखरने और निखरने की असमानता में
ह्दय-प्राण अपना सदा गुनगुनाता रखतीं हूँ
दिल में
बिजली का आशियाना रखतीं हूँ
माना की..
बिजली गिरती हैं
जलाती हैं
इस गिरती जलती बिजली में भी
मैं हरदम हंसती मुस्कुराती हूँ
छलकता नही अब
हर आँसू आँख से
कुछ आँसू पलकों में दबाकर ही रखतीं हूँ
परदा पलकों का अब
गिराकर ही रखतीं हूँ
दिल में
बिजली का आशियाना रखतीं हूँ
आशियाना
बिजली का
दिल में रखतीं हूँ ..
अस्तित्व..बोली भाषा का..
दशकों से ..
दिवारों पर लटक रहे हैं
कुछ दर्पण
जिसमें जमी हैं अंग्रेज़ी भाषा की परतें बहुत हद तक
और उन जमी परतों की वजह से मैं देख नही पा रही हूँ
अपना रूप – स्वरूप
अर्थपूर्ण और निश्चल
हूँ अभी मैं वेंटिलेटर पर
अंतिम सांस लेती हुई
मैने देखा दशकों से लगे उस दर्पण में अपना चहेरा
कुछ बेसुरापन नजर आया
बहुत हद तक मुझको तोडा और मरोडा गया हैं
खुद को पाती हूँ मैं
अंग्रेजी का सहारा लेते हुए
अपाहिज और विकलांग आँगन में
करती हूँ कोशिश ..
की देख सकूँ मैं अपना मूल रूप और स्वरूप
शब्दालंकार से और अर्थपूर्ण रूप से सजा हुआ
और करती हूँ कोशिश
बचा सकूँ
मैं ..
अपना मूल अस्तित्व..
मूल अस्तित्व…
मेरी क्या खता ?
आँखे जब देखते
तुम मेरी
जान जाते तुम
पहचान जाते की,
मैं क्या सोच रही हूँ
और तुमसे क्या कहेना चाहती हूँ
मैने न तुमसे कभी कोई सवाल किया
और न ही तुमने कभी कोई जवाब दिया
केवल मेरी आँखे देखकर ही
तुम वह कहते
वह करते
जो मैं सोच रही होती थी
तुमसे कहना चाहती थी
मौन रहकर ही
वह सब कहते
जो मैं सुनना चाहतीं थी
जैसे तुम्हारी और मेरी आत्मा
दो नही
एक ही हो
एक दिन
तुम चले गयें
मेरी आँखो में बिन देखे
बिन कुछ कहे ही
मौन हो गयें
आँखो की भाषा को
पूर्णविराम लग गया…!
बस यूँ ही
इस क्षण
इस पल
तुम याद आयें..
मेरे टूटे हुए मौन दिल से
संगीत बज उठा..
बताओ ना..
इसमे मेरी क्या खता..
मेरी क्या खता ?
सुना है कल एक कवी चला गया
बढ़ाया था उसने अपना हाथ
सहारे के लिए
कयीं बार
लेकिन उसे एक उँगली का भी
सहारा किसी ने नही दिया
अब अर्थी सजाई जायेगी बडे ही
जोर-शोर
सुना हैं ..!
कल एक कवि चला गया
अपनी आत्मा में उतरकर
लेखनी चला गया
ह्दय के गहरे राज खोल गया
कभी जिंदा होकर
तो बहुत बार मरकर
कुछ लिख गया
सुना हैं…!
कल एक कवि चल गया
सप्त तारकों की ओर लगातार रहती उसकी नजर
देखता था आने वाले जीवन के
कुछ स्वप्न
और उसके साथ ही वह याद करता
गुजरे जीवन में
गुजरे हुए लाखों स्वप्न
सपनों का खाता खाली ही छोड़कर गया
सुना हैं..!
कल एक कवि गुजर गया
झूठी बनावटों की खातिर
झूठी शान की खातिर
वह एक क्षण नही जिया
क्या पाया उसने
लिख-लिखकर
और जाते -जाते वह क्या खो गया
पिछे छोड़कर गया हैं
कुछ सामान अपना
कलम हैं ..
छुटी पड़ी हैं
उसकी उँगलियों से वंही के वंही
कुछ शब्द रहे अधूरे
और पड़े हैं
कुछ कागज कोरे-कोरे
खाली सा एक कमरा
हैं किताबों से भरा-भरा
जिसमे बसती थी उसकी आत्मा
और किताबों भरे कमरे में
छानता रहेता
दिन भर खंगालता अपनी दुनियाँ
कुछ अनछूई अनपढी किताबें भी
हैं कमरे में
शायद एकांत में
उस कमरे में
उन किताबों में
उतर जायेगी उसकी आत्मा
सुना हैं…!
कल एक कवि चला गया
कमरा था किराए का
सुना हैं ..!
कवि था एक किराएदार
किराए की कुछ किश्त चुकाना बाकी हैं
शायद..!
उसकी सस्ती लेखनी और रचनायें
कमरे का किराया चूका न सकी थी
लेकिन हाँ…!
अपने अंतर्मन की स्याही
उंढेल-उंढेल कर उसने
कुछ पाठकों का मन जरूर जीता था ..
कोई कर देगा उसके साथ उसका कमरा खाली
जो किराए का था
और पड़ा है जो उसका कीमती सामान लावारिस
एक कलम..
कुछ अधूरे शब्द..
कुछ भरे हुए तो कुछ खाली पड़े
कोरे कागज
और कुछ किताबे
कुछ पढ़ी तो कुछ अनगढी
निकाल दी जायेगी
उस कमरे के बाहर..
कवि की इन कीमती वस्तुओं को इस कीमती सामान को
बेच दिया जायेगा
रद्दी के भाव
मिला भाव
मिली रकम
चूका भी नही पायेगी शायद
किराए के कमरे की किश्त
जिसे वह जीवनभर जतन करता गया
कीमती धन सरीखा
सुना हैं..!
कल एक कवि चला गया
पिछे छोड़कर गया
अपना कुछ कीमती सामान
कीमती सामान…
एक तुम्हारा आना राम
एक तुम्हारा आना राम..!
हमें क्या से क्या बना गया
आस्था से भर गया
ह्दय-प्राण हमारा
गहरी आस्था से भर गया
एक तुम्हारा आना राम
माता कौशल्या अति हरषाई
राजा दशरथ की आत्मा गती पाई
माँ सुमित्रा और कैकयी फूले नही समायी
राम..
एक तुम्हारा आना राम..!
हमे क्या से क्या बना गया
आस्था से भर गया गहरी
ह्दय-प्राण हमारा
गहरी आस्था से भर गया
एक तुम्हारा आना राम
शबरी की आँखे इंतजार में तुम्हारे जो पथरायी थी
उन्हे आंसुओ के उजले-उजले मोतियों से भर गया
उसके बेरों को आज मीठे से घना मीठा बना गया
एक तुम्हारा आना राम..!
क्या से क्या कर गया
आस्था से भर गया
ह्दय-प्राण हमारा
गहरी आस्था से भर गया
एक तुम्हारा आना राम..
केवट का मन हर्षोल्लास से भर गया
जीवन की नाव जो हिचकोले खा रही थी
तूफानों में डगमगा रही थी
उसे जीवन की शरयू पार करा गया
एक तुम्हारा आना राम..!
हमें क्या से क्या बना गया
आस्था से भर गया
ह्दय-प्राण हमारा
गहरी आस्था से भर गया
एक तुम्हारा आना राम..
उर्मिला का विरह असीम अनकहा विरह मिटा गया
भाई लछमन भाई भरत का मन हरषा गया
एक तुम्हारा आना राम
हमें क्या से क्या बना गया
गहरी आस्था से भर गया
ह्दय-प्राण हमारा
गहरी आस्था से भर गया
एक तुम्हारा आना राम
था ह्दय पड़ा वर्षो से क्षीण-सा
हमारे बेहिसाब सब्र साहस को
धैर्यशिल और धैर्यवान बना गया
युगों-युगों के नाम गुणगान को
आज प्राण-प्रतिष्ठा से फिर से जीवंत कर गया
एक तुम्हारा आना राम
हमे क्या से क्या बना गया
ह्दय-प्राण हमारा
गहरी आस्था से भर गया
एक तुम्हारा आना राम
था तब एक ही रावन
जो दस के दस मुखौटे बाहर रखता था
समाज में अब इतने कपटी रावण
उन नकली मुखौटों का
दिल अब दहला गया
एक तुम्हारा आना राम
हमे क्या से क्या बना गया
ह्दय-प्राण हमारा
गहरी आस्था से भर गया
एक तुम्हारा आना राम
आये हैं आज सरकार हमारे
सिया आज बनी हैं दुल्हन और दूल्हा हमारे रघुराई हैं
बाराती हैं देश -विदेशी
वानरसेना अति हरषाई हैं
भारतवर्ष हमारा भाग्यशाली हैं
आज अति सौभाग्य शाली हैं..
एक तुम्हारा आना राम..!
हमें क्या से क्या बना गया
आस्था से भर गया
ह्दय-प्राण हमारा गहरी आस्था से भर गया..
एक तुम्हारा आना राम..!
एक तुम्हारा आना..
तन्हाई
तनहाई क्या होती हैं ?
पूछना एक बार
उस अनाथालय से
जिसने सदियों से समा ली हैं
अपने अंदर अनंत तनहाईयां
और समा लिया हैं उसने
आँचल में अपने
अधूरे तडपते सपनों को
एसी तन्हाइयों को
जो तरसी हैं
जन्म से लेकर मृत्यू तक हर रिश्ते को
तनहाई क्या होती हैं ?
पूछो उस मधुबन से
जिसका कोई माली गुजर चूका हैं
और सारा मधुबन बिन माली उजड चूका हैं
तनहाई क्या हैं ?
पूछो उस देश पर शहीद हुए
जवान की पत्नी से
जिसकी याद में सारा घर आँगन परीवार ही शहीद हो गया हैं
तनहाई क्या हैं ?
पूछो उस रात के घने अँधेरे में
जलते हुये दीपक से
जो औरों को प्रकाशित करने की चाह में
तेल बाती और अग्नि के साथ
स्वयं का अस्तित्व मिटा देता हैं
तनहाई क्या हैं ?
पूछो उस समशान से
जो अकेला सुनसान स्थान पर रहेता हैं
और न जाने कितने मृत शरीर को
अपने अंदर अग्निकुण्ड के सहारे भस्म कर देता हैं
और अंत में तनहा ही रह जाता हैं
इस इंतजार में की
न जाने और कितने
मृत शरीर आ जाये
और मैं उन्हे अपने आगोश में ले लूं
इसी इंतजार में
युगो-युगों से हैं वह
तनहा …
तनहा…
तनहाई क्या हैं …?
तनहाई क्या हैं…?
कफ़न
चेहरे पर मुस्कराहट का
कफ़न ओढ़कर चलते हैं
हताशा और निराशा को चलो आज
मन के संदूक में ताला लगाकर बंद करते हैं
सपने क्या हैं ?
पानी का बुलबुला
इन पानी के बुलबुलों को
आज मिट्टी में दफन करते हैं
हताशा और निराशा को चलो आज
मन के संदूक में
ताला लगाकर बंद करते हैं
कफ़न हो
सफेद मोतियों सा
मिट जायें जिसमें
सांसारिकता के सारे भेदों का
घनघोर अंधेरा
जीवन के इस रंगमंच को
ह्दय के भाव अभिनय और कला के द्वारे अभिव्यक्त करतें हैं
हताशा और निराशा को आज
मन के संदूक में
ताला लगाकर बंद करतें हैं
चेहरे पर मुस्कराहट का
कफ़न ओढ़कर चलते हैं
हताशा और निराशा को
मन के संदूक में आज ताला लगाकर बंद करतें हैं
चेहरे पर कफ़न
मुस्कुराहट का ओढ़कर चलतें हैं …
कफ़न ओढ़कर चलतें हैं
मुस्कुराहट का…
हिंदी हम सबकी हैं
हिंदी तेरी हैं ..
हिंदी मेरी हैं…
हिंदी हम सब की हैं…
हिंदी हमारी जान
हिंदी हमारा मान
हिंदी हमारा स्वाभिमान
हिंदी हमारा अभिमान
हिंदी हैं हमारा आत्मसम्मान…
हिंदी में ही गूंजता हैं हमारे भारत का राष्ट्रगान…
माँ की बोली भाषा हैं हिंदी
गलियों चौबारों की बहार हैं हिंदी
आस पड़ोस से दरवाजे खिड़की से झाँकती हैं मेरी हिंदी
सरहद से आती चिठ्ठी के संदेसे की तड़प हैं हिंदी
बाबूजी की डांट-फटकार हैं हिंदी
बनावटी दिखावटीपन से
कोसों कोस दूर हैं हिंदी
जैसी लिखी जातीं हैं बिल्कुल वैसी ही पढ़ीं जाती हैं हमारी हिंदी
देवनागरी का सम्मान हैं हिंदी
देश की जन-जन की बोली
बन रही अब विदेशियों के भी मन-मन की बोली
धरती से आकाश में चाँद पर लगे तिरंगे में झलकती हैं मेरी हिंदी
हिंदी तेरी हैं …
हिंदी मेरी हैं …
हिंदी हम सब की हैं…
हिंदी हम सबकी हैं ..
देश की विदेश की विश्व भर की हैं हिंदी
आओ हम सब मिलकर
एक प्रण करते हैं
घर- परिवार हो
समाज हो
राष्ट्र हो या हो पर राष्ट्र
हिंदी ही रहें सदा अपनी बोली
अपनी आशा और अभिलाषा की हमजोली
वैश्विक भाषा का स्थान हो
विश्व के हर ह्दय में मेरी हिंदी का मान हो
राष्ट्र भाषा हिंदी का सम्मान हो
सम्मान हो…
माँ भारती का मन मुस्कुराया हैं
माँ भारती का मन मुस्कुराया हैं
चाँद से चकोर चंद्रयान जो मिल आया हैं
हैं चाँदनी भी खिली-खिली
माँ भारती जो उनसे जा मिली
पड गये चाँद पर कदम
बहेका-बहेका सा हैं मन
बहेके-बहेके से हम
कड़ी मेहनत की निशानी हैं
विक्रम चंद्रयान की सफल कहानी हैं
अगस्त के महीने में सावन रंग लाया हैं
माँ भारती का मन मुस्कुराया हैं
चाँद से चकोर चंद्रयान जो मिल आया हैं
हैं चाँदनी भी खिली-खिली
माँ भारती जो उनसे जा मीली
हम थके नही
हम रूके नही
लगा वैज्ञानिकों ने दिया अपना तन-मन-धन सारा
उंडेल दिया जगभर का विश्वास सारा
बना “विश्वगुरु ” भारत फिर से हमारा
माँ भारती का मन मुस्कुराया हैं
चाँद से चकोर चंद्रयान जो मिल आया हैं
हैं चाँदनी भी खिली-खिली
माँ भारती जो उनसे जा मिली
भारत का हर बच्चा मुस्कुराया हैं
चंदा मामा को अब दूर का नही हमारे घर का बनाया हैं
सदियों का गीत आज रंग लाया हैं
चंदा मामा आओ ना दूध बतासा खाओ ना
बतासा सारे विश्व ने खाया हैं
आज हकीक़त रंग लाई हैं
मां धरती फुले नही समाई हैं
निंबोनी का पेड भी आज मुस्कुराया हैं
सदियों से चाँद निंद से जाग आया हैं
माँ भारती का मन मुस्कुराया हैं
चाँद से चकोर चंद्रयान जो मिल आया हैं
हैं चाँदनी भी खिली-खिली
माँ भारती जो उनसे जा मिली
विश्वगुरु कहेलाया हैं
भारत फिर से विश्वगुरु कहलाया हैं
जय माँ भारती..
माँ भारती के अखंड प्राण
थी जो अखंड
गई हो खंड-खंड
आजादी का क्या जश्न मनायें
बहा लहू माँ का कैसे बिसरायें
अफगान हुआ
चिखी माँ भारती जब पाकिस्तान हुआ
कितने गवायें अपने लाल
हाल हुआ बेहाल
थी जो अखंड
गई हो खंड-खंड
माँ भारती के कितने विच्छेद हुए
काटे जब तिब्बत और भूटान गये
फिर अलग हुआ श्रीलंका और म्यांमार
हुआ ह्दय माँ का तार-तार
सोने की लंका को विलुप्त किया
माँ की गौरव-गरीमा का अस्त हुआ
थी जो अखंड
गई हो खंड-खंड
जन्मभूमि माँ सीता औ,बुद्ध की नेपाल
हो गई अलग हर हाल
अपनी आँखो से देख अपना मातम
माँ भारती को मृत्यूशोक हुआ
हो गई लहू-लुहान माँ भारती
पड़ा देश में एकता का अकाल
शुरू हुआ विदेशी-अक्रांताओं का काल
जलियांबाग हत्याकांड हुआ
माँ के मिट्टी का रंग लाल हुआ
हमारे ही कुछ जयचंद गद्दार हुए
टुकड़े माँ के हजार हुए
थी जो अखंड
गई हो खंड-खंड
आज़ादी का क्या जश्न मनायें
बहा लहू जो माँ का कैसे बिसरायें
सुनो देश के वीर-जवान !
माँ भारती के रखना अखंड प्राण
सदैव अखंड प्राण
वंदे मातरम
बंजारा मन
बंजारा सा मन तरसता हैं
जब सावन बरसता हैं
याद आते हो इस कदर
जैसी काली बदली आये भर-भर हर तरफ
आने वाले तो हो नही कभी
कलाइयां सुनी सी हो गई कंगन बीन चूडी
सुना हो गया बिंदी बीन माथा
सिंदूर की रंगत कंही खो सी गई
कानों मे बुंदे नही सुहाते अब
पाँव सुने सुने से हैं बीन पायल
बिछियां मन भाती नही अब
महावर की रंगत भी कंही खो सी गई
बंजारा सा मन तरसता हैं
जब सावन बरसता हैं
विरह -वेदना गाता मेरा मन
संगीत अब नही भाता मेरे मन
अब वैसी भोर कहाँ
कहाँ वह तपती चमकती दुपहरी
कहाँ वह शामे भरी-भरी
अब तो बस
उमर की ढलती शाम का पतझड़ हैं
लडखडाते मन के गीत हैं
तुम बीन संगीत उदास हैं
मन गाता अवसाद में
जीवन विरह गीत हैं
बंजारा सा मन तरसता हैं
जब सावन बरसता है
राही
राही पथ में बिछड गयें
क्षणिक रहा मिलन
कुछ दूर संग-संग चलें
कभी हंस लिए तों कभी रो लिए
राही पथ में बिछड गयें
देख होठों की मुस्कान तुम्हारे
मेरे होंठ खिल-खिल गए
आँसू कभी इस नयन से उस नयन में लुढ़क गए
राही पथ में बिछड गए
लगती थी मेरी बातें कभी तुम्हे अनमोल
अब मेरे वचन माटी मोल हुए
राही पथ में बिछड गए
जीवन में भले न रही मेरी उपलब्धी कुछ भी
हर वक्त तुम सिंहासन आरूढ़ हुए
राही पथ में बिछड गए
क्षणिक रहा मिलन
कुछ दूर तक संग-संग चले
कभी हंस लिए कभी रो लिए
राही पथ में बिछड गए
बिछड गए..
जब तीज आती हैं
अधरों पर मुस्कराहट खिलती हैं
ह्दय में खुशियों की
बाँसुरी बजती हैं
वर्ष बीतने पर
जब तीज आती हैं …
जब तीज आती हैं …
सुहागिन के चेहरे पर लालिमा छाती हैं
सिंदूरी माँग
मेहंदी से रंगे हाँथ
हरी-हरी चूड़ियाँ
हरी-हरी चुनरी
सब के संग …
अधरों पर मुस्कराहट खिलती हैं
ह्दय में खुशियों की बाँसुरी बजती हैं
सावन की बहार हैं
झूलों की कतार हैं
हरियाली की छाई बहार हैं
अधरों पर मुस्कराहट खिलती हैं
ह्दय में खुशियों की बाँसुरी बजती हैं
कोयल बोलती हैं
पपीहा सावन का गीत मल्हार गाती हैं
भंवरों की गुंजन फूलों के मन को अति भाती हैं
अधरों पर मुस्कराहट खिलती हैं
ह्दय में खुशियों की बाँसुरी बजती हैं
वर्ष बीतने पर
जब तीज आती हैं ..
जब तीज आती हैं…
बेटीयों के हँसी के ठहाकों से गूँजता हैं पिता का घर-आँगन
खुशियाँ घर भर
गलियों में चौबारे में नाचती हैं
सब सखियाँ तीज-त्यौहार का उत्सव हर्षोल्लास के साथ मनाती हैं
अधरों पर मुस्कराहट खिलती हैं
ह्दय में खुशियों की बाँसुरी बजती हैं
ह्दय में खुशियों की बाँसुरी बजती हैं…
जब तीज आती हैं..
जब तीज आती हैं…
जानें वाले
जानें वाले…
जानें वाले कभी लौटकर नही आते..
क्षण भर हम उन्हें नहीं भूल पाते ..
शाम की सुरमईं अंधेरे से मन आज भी घबराता हैं..
बीता दुख दोहराती हूँ तो आज भी केवल पछताती हूँ..
घर भर आज भी साया तुम्हारा लहराता हैं..
आहट से आज भी तुम्हारे ह्रदय मेरा छटपटाता हैं..
चौंक जाती हैं आज भी आँखे देखकर तस्वीर तुम्हारी..
राह तकती हैं आँगन की तुलसी तुम्हारी..
सुना-सुना हैं तुम बिन गलियन का चौबारा..
घर की दहलीज-चौखट आज भी सुनी हैं तुम बिन..
उम्मीदों के दिये जलते हैं आज भी पलकों पर हमारी..
थे तुम जुगनू की तरह ..
थोडी सी चमक दिखाकर गुम से हो गयें..
कभी जो याद आयें हमारी..
मन ललचायें कभी जो तुम्हारा..
क्षण भर ठहर जाना..
चौखट को प्रणाम अंतिम कर जाना..
अंतिम प्रणाम कर जाना..
एक मन होता हैं
मनुष्य नाम के प्राणी में
एक मन होता हैं
जो बहुत ही गहरा और अतल होतां हैं
कुछ सुख भरा होता हैं अंदर
तों कभी दुख-दर्द का बवंडर होता हैं
मनुष्य नाम के प्राणी में
एक मन होता हैं
मन में कभी मेला होता हैं
तों कभी यह बहुत हीं अकेला होता हैं
क्षणभंगुर से इस सफर में
मनुष्य का जीवन
पानी का बुलबुला होता हैं
मन का दरवाजा
देखते हीं देखते बंद होता हैं
सारा किस्सा ही तमाम होता हैं
ध्रुव के तारे के भाँति चमकने वाला मन हमारा
अंतर्ज्ञान में विलीन होता हैं
मनुष्य नाम के प्राणी में
एक मन होता हैं
जो बहुत हीं गहरा और अतल होता हैं
एक मन होता हैं …
देश के बेटी का पत्र
दर्द आँखों से खून बनकर बह गया हैं
देश के बेटी का पत्र
आज कोरा आया हैं
हाथ-पांव की हड्डियों को तोड़कर
गर्दन को मरोड़कर
भारत को पंगु अपाहिज और विकलांग बनाया गया हैं
इसलिए मेरे देश के बेटी का पत्र आज कोरा आया हैं
बेटी …
तीन माह की
तीन वर्ष की
सात तों कभी हैं सत्रह वर्ष की
भारत के आत्मसम्मान और स्वाभिमान के कलश को तोड़ा गया हैं
इसलिए देश के बेटी का पत्र आज कोरा आया हैं
पत्र के ऊपर दाग बिखरे हैं कुछ
दाग हैं ..
हवस के भूखे भेड़िए के..
क्रूरता के
वहशीपन के
दरिंदगी के
और कुछ दाग हैं …
गंदी राजनीती के
लूटी हुई इज्जत की कीमत के
बेटी के अमानवीय चीखों के दाग
और दाग हैं
भारत की कमजोर न्याय व्यवस्था के
तिरंगे का सर झूक गया हैं
इसलिए मेरे देश के बेटी का पत्र आज कोरा आया हैं
पत्र के अंत में
बेटी ने लगाई हैं गुहार
चीख चीखकर…
भारत की न्याय व्यवस्था को
हवस के भूखे भेड़िए के फाँसी की गुहार
फाँसी के दण्ड की गुहार
फाँसी का दण्ड…
वही गुरू हैं महान कहलाते
अंतकरण में हमारे
जगमग ज्ञान की ज्योति हैं जगाते
सुर्य चंद्र ग्रह नक्षत्र तारे भी
हैं जिनके आगे शीश अपना नवाते
वहीं गुरू हैं महान कहलाते
हैं गुरू वही महान कहलाते…
अन्याय अत्याचार का जो हैं
प्रतिकार करना सिखाते
निडर और साहसी जो हैं हमें बनाते
सच्चाई की पथ पर
हर हाल हमें जो हैं चलना सिखाते
झूठ के आगे हमें नही झुकाते
वहीं गुरू महान हैं कहलाते
वही गुरू महान हैं कहलाते
अज्ञानता के अंधकार से
हमें जो हैं तारते
ज्ञान का आलोक जो हैं सारे संसार में फैलाते
भारतीय प्रतिबिंब का जो हैं प्रतिक कहलाते
परिष्कृत हमें दर्शन कला शास्त्र और ज्ञान विज्ञान गणित और भूगोल से हैं कराते
मातृभाषा का प्रेम हमें जो हैं सिखलाते
वही सच्चे गुरू हैं कहलाते
वही सच्चे गुरू हैं कहलाते…
ज्ञान के महासागर में
जो गोता हैं लगाते
जन्मजात प्रतिभा को हमारे जानकर
सुप्त गुणों के मोती गहरे सागर से जो हैं चुनकर लाते
वही सच्चे गुरू हैं कहलाते
वही सच्चे गुरू हैं कहलाते…
शिक्षा का जो नही करते हैं व्यापार
ज्ञान की तेजस्विता को नही बेचते कभी बाजार
माँ सरस्वती का करते हैं जो सदैव आदर और सत्कार
संसार हित के पथ पर जो चलतें रहते हैं निरंतर निर्विकार
देश की पदोन्नती का जो नित्य करते हैं जीवन भर सपना साकार..
अंतकरण में जो हमारे
जगमग ज्ञान की ज्योति हैं जगाते
सुर्य चंद्र ग्रह नक्षत्र तारे भी जिनके आगे हैं अपना शीश नवाते
वह गुरू महान हैं कहलाते
वही गुरू हैं महान कहलाते..
एक उम्र तक आते आते
एक उम्र तक आते-आते
सबकुछ चल जाता हैं
बचपन में जिद करने वाला मन
अपने-आप ही संभल जाता हैं
समय पर..
वक्त पर…
हर बात के लिए हर वस्तू के लिए
मन जिद्दी हुआ करता था
अब ..
हर समय..
हर वक्त..
मन अपने आप ही समझौता करता हैं
बचपन में जिद करने वाला मन
अपने आप ही संभल जाता हैं
बचपन वाली बरसात
काग़ज की कश्तीयों में भी
आनंद देती थी
जलयान के लंबे सफर का
अब कश्तीयों का सफ़र भी
सुलगते हुए दावानल की तरह झुलसा देता हैं
बचपन में जिद करनें वाला मन
अपने -आप ही संभल जाता हैं
बात-बात पर आँखो से
छलका करतें थे आँसू
होंठ सादगीपूर्ण मुस्कान से खिल जाते थे
बड़े से बड़े हादसे पर भी
अब ह्दय पत्थर पाशान बन जाता हैं
बचपन में जिद करनें वाला मन
अपने-आप ही संभल जाता हैं
एक उम्र तक आते-आते
सबकुछ चल जाता हैं
बचपन में जिद करने वाला मन
अपने-आप ही संभल जाता हैं ..
एक उम्र तक आते-आते…
चिता की लपटें
सबके पाँव
आँगन दरवाजे पर जम गयें थे
बरसात हो रहीं थी
तुम चले गये थे
आँगन दरवाजे में जमे पाँव
समशान की ओर
चले गये..
अंधेरा हो गया था
चिता की अग्नि
दूर से नजर आ रहीं थी
ऊपर उठती आग की लपटें
जैसै तुम उठना चाहते थे
ऊपर की ओर
रात कट नही रहीं थी
चाँद उस रात भी चमक रहा था
विरान हूए आँगन में
माँ रो -रो कर
चूप हो गई थी
कलेजा फट गया था उसका
पिताजी पत्थर बन गयें थे
जैसे पाशान से
पानी झरता हैं
वैसे झर रहीं थी पिताजी की आँखे बगैर किसी आवाज की शांत..
माँ-पिताजी की ओर देखते देखते
कब रात का अंधेरा उजाले में बदल गया था पता ही नही चला था..
सुरज की किरण
अपने साथ
लेकर आयीं थीं
चिता के आग की लपटे
तुम्हारे चिता की
लपटे…
लकीरें
लकीरें हाथो की
हो गई
बेईमान
जगह छोड़कर अपनी
हो रहीं हैं अब
माथे पर विराजमान
इक-इक लकीर
एसी की
गढ दी गई हो
जीवन की किताब
पढ़ ली गई हो
यह बनाती जायेंगी
अस्तित्व अपना
सारे चहेरे पर
समय के साथ
साफ और रिक्त चहरे को
भर देंगी स्वयं से
धीरे-धीरे
जीवन के
हर क्षण की
हर पल की
करायेंगी पहचान
यह लकीरें
हमारे ही जीवन के जैसी
कभी सीधी-सरल -स्पस्ट
तों कभी
टूटी हूई लकीरें
धूंधली सी
यह लकीरें
माथे की लकीरें..
स्पष्ट..
सीधी..
धूंधली..
टूटी हूई…
लकीरें…
माँ सरस्वती ने फीर वीणा बजाई हैं
शुभ घड़ी आई हैं
बसंत ऋतू लहराई हैं
माँ भारती ने
माँ सरस्वती ने फीर वीणा बजाई हैं
हो गयीं पृकृति की गोदभराई हैं
आम में बौर लगी
गेंहूँ और सरसो लहराई हैं
गेंदा ने अपनी पीलई
बबूल ने मखमली
और बनफूल ने हर मौसम
अपनी मुस्कान बचाई हैं
शुभ घड़ी आई हैं
बसंत ऋतु लहराई हैं
माँ भारती ने
माँ वाणी ने फीर से वीणा बजाई हैं
सजी हैं पृकृति नयी नवेली दुल्हन जैसी
हरा,लाल पीला ओढ घूंघट
माँ वसुंधरा शर्माई हैं
चूडियों की हैं खणक
हैं बिंदी की चमक
महावर और मेंहदी की लाली हैं
सिंदूर की रंगत छायी हैं
गुलाल की गुलाबी रंगत मन को भायी हैं
शुभ घड़ी आयी हैं
बसंत ऋतु लहराई हैं
माँ भारती ने
माँ सरस्वती ने फीर वीणा बजाई हैं
घड़ी हैं यह अति चंचल
वियोगी की परीक्षा कड़ी अब आयी हैं
योगियों का तपस्वी मन
हो रहा भंग
भोगी ले रहा बसंत का आनंद
प्रेमियों को बसंत ऋतु गतिमान बनायी हैं
शुभ घड़ी आयी हैं
बसंत ऋतु लहराई हैं
माँ भारती ने
माँ सरस्वती ने फीर वीणा बजाई हैं
सातों सुरों का गाण हैं
माँ सरस्वती
तेरे चरणों मे मेरा ह्दय प्राण हैं
तेरे चरणों में शत-शत प्रणाम हैं
शुभ घड़ी हैं
बसंत ऋतु हैं
माँ सरस्वती ने फीर वीणा बजाई हैं
माँ भारती ने
फीर वीणा बजायी हैं ..
रद्दीवाला
वह..
बहुत खुश नजर आ रहा था
उसकी हाथ गाड़ी
आज खचाखच भर गई थी
कुछ पुराने अखबार..
टूटी हुई कुर्सियां..
कुछ घर के इस्तेमाल का टूटा-फूटा सामान
और साथ लेकर जा रहा था
अपने चहरे की खुशहाल मुस्कान..
रद्दी..
रद्दी वाला..
बरसात की बूंदे टूट रही थी..
और वह खुश होकर जल्दी में जा रहा था..
मुस्कान एसी मानो
पारस मनी जो लोहे को सोना बनाता हैं हाथ आया हो..
मैने आवाज लगाई..!
ओ रद्दी वाले..
कुछ पूरानी यादें धूल खाती पड़ी हैं..
कबाड बनकर..
ले जाओगे ?
उसने आश्चर्य से मेरी ओर देखा..
और पूछा..
क्या दीदी..?
अरे मैने कहा भूतकाल की कुछ पूरानी यादें धूल खाती हुई पड़ी हैं कबाड के रूप में आज वर्तमान समय में क्या तुम लेकर जाओगे उन्हे ?
वह फिर आश्चर्य से देखने लगा..!
मैने मन ही मन कहा ..
तुम सिर्फ रद्दी कहाँ लेकर जाते हो ?
उसके साथ साथ लेकर जाते हो न जाने कितनी यादें समेटकर साथ अपनी
वो यादें जो जूडी हैं ..
पूराने अखबार की सुर्खियों के संग
वो यादे जो जूडी हैं उन टूटी-फूटी छोटी मोटी वस्तुओं के संग..
जिसे तुम ले जा रहे हो
रद्दी के रूप में
रद्दी सामान यह सोचकर ही
खुशी-खुशी घर से बाहर निकलता होगा की कंही ओर नये से वह काम आ सकें
मैं सोच ही रही थी ..
की उसने आवाज लगाई..
दीदी..!
आपके लिए वह बिती भूतकाल की यादें हैं…!
कबाड हैं..!
लेकिन मेरे लियें..
वर्तमान में मेरे उपजीविका का एकमात्र आधार..
दीदी…!
आज बूंदा-बांदी का अंदाजा हैं
गाड़ी भी आज खचाखच भर गयी हैं ..
अपनी रोजी-रोटी हम कल ले जायेंगे..
और वह अपनी अमीर मुस्कान बिखर कर ..
चिल्लाता हुआ चला गया..
मैं भूतकाल की धूल खाती यादों में फिर से खो गई..
उसी आवाज के साथ..
रद्दी..
रद्दीवाला….
मेरी क्या खता ?
आँखे जब देखते
तुम मेरी
जान जाते तुम
पहचान जाते की,
मैं क्या सोच रही हूँ
और तुमसे क्या कहेना चाहती हूँ
मैने न तुमसे कभी कोई सवाल किया
और न ही तुमने कभी कोई जवाब दिया
केवल मेरी आँखे देखकर ही
तुम वह कहते
वह करते
जो मैं सोच रही होती थी
तुमसे कहना चाहती थी
मौन रहकर ही
वह सब कहते
जो मैं सुनना चाहतीं थी
जैसे तुम्हारी और मेरी आत्मा
दो नही
एक ही हो
एक दिन
तुम चले गयें
मेरी आँखो में बिन देखे
बिन कुछ कहे ही
मौन हो गयें
आँखो की भाषा को
पूर्णविराम लग गया…!
बस यूँ ही
इस क्षण
इस पल
तुम याद आयें..
मेरे टूटे हुए मौन दिल से
संगीत बज उठा..
बताओ ना..
इसमे मेरी क्या खता..
मेरी क्या खता ?
जिंदगी तेरे लियें
जिंदगी तेरे लियें
तेरे ही रंग में रंग लिये
हर बार तेरे ही रंग में रंग लियें
भावनाओं के रंगमहल सजाते गयें
उदासी में भी
संगीत ह्दय-प्राणों का गाते रहें
दीवाली होली खुशी खुशी हर बार मनाते गयें
जिंदगी तेरे लियें
तेरे ही रंग में रंग लियें
हर बार तेरे ही रंग में रंग लियें
सांसो की कश्ती बना लियें
मिट्टी का मन लियें
मिट्टी का तन लियें
जीवन रूपी सागर में
कयी-कयी बार गोते लगाते गयें
अस्थियों की अपने
अर्थी बहुत बार निकालते गयें
जिंदगी तेरे लियें
तेरे ही रंग में रंग लिये
हर बार तेरे ही रंग में रंग लियें
जीवन की डायरी के पन्ने
अधूरे ही रहे गयें
लिखे कुछ टूटे-फूटे शब्द
आंसुओ में बहे गये
बगैर गुनाह के ही
हर बार गुनाहगार बना दियें गये
बेगुनाही की सजा स्वीकार करते गये
जिंदगी तेरे लियें
हर बार तेरे ही रंग में रंग गये
सिर्फ तेरे ही रंग में रंग लियें
विनम्रता का गहना हर बार पहन गयें
परिणाम स्वरूप हताश रह गये
अन्याय और अत्याचार के
मजबूरी में चरण गहे
धूंधले सपनों के घोड़े
आसमान में दौड़ाते रहें
सुखे नदी में
लहरों के निशान ढूंढते रहें
बरसते सावन में भी
सुखे रेगिस्तान बन गयें
बसंती शाम में
जेठ की तपती दुपहरी बन गयें
जिदगी तेरे लियें
तेरे ही रंग में रंग लिये
हम तेरे ही रंग में रंग लियें
सांसे जब मंद पडने लगी
जीवन की हर बार रणभेरी बजाते गये
जिंदगी अब तू हमारे रंग मे थोड़ा सा रंग ले
आकाश में चांदनी बेवजह ही बिखेर दे
गगन में चाँद की तरह बेपरवाह होकर मुस्कुरा दे
उजली उजली चाँदनी रात में बेवजह ही नहा ले
पंजाब के हरे -हरे गेंहू सरीखा लहलहा ले कभी
और कन्याकुमारी सा शर्मा ले कभी
और हाँ कभी कश्मीर सा बेपनाह मुस्कुराना नही भूलना
जिंदगी नही होगा फूलों का मधुबन यहाँ
तो तू हमारे संग बबूल के बन चून ले
पिले- पिले बबूल के मखमली फूल चून ले
उन्ही के पीलई में हमें रंग दे
जिंदगी तेरे लियें
तेरे रंग मे रंग लिये
हर बार हम
कभी तू भी
हमारे रंग में रंग ले
सांसो की कश्ती बन गये हम तेरे लियें
तू भी कभी हमारी धड़कन बन ले
हमारे लियें
तू भी हमारे रंग मे रंग ले
रंग में हमारे
तू भी कभी रंग ले
समय का चित्र
बूढ़ा चित्रकार
समय के कैनवास पर
उतार रहा हैं चित्र
कंप कंपाते हांथो से ..
कुछ रंग..
बिखर गए हैं
अनजान और अनदेखी परछाई पर
अक्स कुछ
सदृश्य कुछ अदृश्य अस्पष्ट रूप में
काल की अवकाश में
कुछ चित्र
बने हैं बहुत स्थिर और गंभीर
इस घड़ी मे
इस बेला में
चित्रित होते जा रहे हैं अनेक चित्र
कुछ चित्र
नयन में नीर भरे
और कुछ चहेरे पर स्मित हास्य लिए
कुछ चित्र हैं चहेरे पर अनगिनत झुर्रियाँ लियें
एक -एक झुर्री जीवन अनुभव लिए हुए आनंद से उल्हास से भरी हैं
समय की कैनवस पर
चित्रित हुए जा रहें हैं
चित्र..
कुछ धूंधले
चित्र
कुछ ईश्वरीय तेज चेहेरा संग लिये चित्र
आँखे कपोल में धंस गई हैं
कपोल की गहराई में पिछे उतरते चित्र..
काल की कपाल में समाये चित्र
समय का दोरथ पहिया घूम रहा हैं
समय कल भी था
समय आज भी हैं
शायद कल भी रहेगा
बेशक साथ देगा अथवा न देगा
सुरज समय पर उगेगा
शाम भी तो अपनी लाली समय पर बिखेर जायेगी
समंदर की ढलान में उतरती जायेगी धीरे-धीरे
अपने साथ लिये
एक सुनहरी चमक
जैसे नयीं दुल्हन
लाल सिंदूरी शालू पहने हुए
और उतरी हो उसपर
सुनहरी किनार
जो धूंधली अस्पष्ट हो जायेगी
समय के साथ – साथ
एक चित्रकार
उतार रहा हैं चित्र
बूढ़ा चित्रकार
कुछ स्पष्ट तो कुछ अस्पष्ट
समय के कैनवस पर
उतार रहा हैं चित्र..
कैनवस पर..
समय का चित्र..
कृष्ण
कृष्ण मेरे गोविंद
हे माधव…!
कहाँ रहा तुम्हारा भी जीवन सरल और सुखमय..
जन्म हुआ कारागृह में
बंद अंधेरी कोठरी में
बजी नहीं थी कोई सोहर बधाई जन्म पर तुम्हारे …
शांती थी सात समंदर पार की
भयभीत मन था
वसुदेव और माँ देवकी का
कंस कंही कर न दे वध तुम्हारा
आधी रात में
घने अंधकार में
वसुदेव ने बहती बाड़ आई यमुना से तुम्हे पहुंचाया था
गोकुल में
ग्वाल बाल संग तुम गौ चराए
चरवाहा भी बनना पड़ा तुम्हे
मेरे गोविंद
मेरे कृष्ण…
प्राणों से प्रिय राधा से बिछड़ गयें बनें कितने कष्ट सहकर तुम राजा
अपनें जीवन में तुमने कब कौनसा सुख पाया…
तुमने कंस का फिर वध कराया…
हे गोविंद…
मेरे कृष्ण ..
हे माधव…
कारागृह में जन्म हो ,चरवाहा का कार्य हो ,राधा से बिछड़ना हो, महाभारत का युद्ध हो , मुरली बजाने की बात हो ,द्रौपदी की लाज बचानी हों अथवा कंस का वध हो..अर्जुन को बताने जीवन के कठोर वचन हो..थे तुम सहर्ष तत्पर…
मेरे माधव…!
सरल और सुखमय तों तुम्हारा जीवन भी नहीं रहा …
मेरे गोविंद…
मेरे कृष्ण….
हे माधव…
आँसू
पलकों में बंद थे
झर-झर निर्झर बहे रहे थे
निरंतर
जैसे हो बंद
सीपी में
उजले उजले मोती अविरल
बहे जा रहे थे
लगातार
पूछा कारण
था जवाब
मौन..
थी पलकें बंद
निरंतर बहे जा रहे थे
उजले उजले मोती
हो जैसै सीपी में बंद मोती
बोलना चाह रहे थे
मन का हाल
ह्दय पट खोलना चाह रहे थे
थी अभिलाषाओं की करवट
या था कोई प्राप्य
न रहा प्रश्न कोई
और न मिला उत्तर कोई
परिणाम स्वरूप
बहे जा रहे थे
बंद पलकों से
उजले उजले मोती
जैसे
सीपी में बंद हो मोती
उजले उजले मोती…
माँ हिंदी
हिंदी का क्या गुणगान करूँ
कैसे इस माँ का सम्मान करूँ
पैदा होते ही पड़ी जो कान में
माँ की बोली भाषा हिंदी
जनम होते ही शगुन की थाली जो बजाई गयी
उसका इक-इक स्वर नाद था हिंदी
ढोलक पर सोहर बधाई जो गाई गयी
उसका भी हर बोल था हिंदी
जनम-जनम से जिसने हमारा साथ निभाया
देवनागरी का सम्मान हैं हिंदी
एक-एक रंगों के मिलने से
जैसे खिलता हैं बसंत
वैसे सब भाषाओं में
खिल जाती हैं मेरी हिंदी
अस्तित्व को अपने केवल देश मे ही नही
विदेश में भी टिकाती हैं मेरी हिंदी
हिंदी का क्या गुणगान करूँ
कैसे इस माँ का सम्मान करूँ ?
माँ का कैसे सम्मान करूँ..!!
आओ नव स्वप्न जगायें
आओ नव स्वप्न जगायें
भोर की किरण
चाँदनी से भरा आँगन
चाँद के उस पार जायें
आओ नव स्वप्न जगायें
आँसू बचा हैं एक
उसको जीवन की खुशियों से मिलायें
मुस्कान मौन अधरों पर सजायें
आओ नव स्वप्न सजायें
एक सांस बची हैं
उसे जीवन की पुनः सैर करायें
ह्दय स्पंदन फिर से धडकायें
आओ नव स्वप्न जगायें
कितने रतन छिपे हैं इस मिट्टी में
इन रतनों से माँ भारती की गोद भरायें
भारत को फिर विश्वगुरु बनायें
आओ नव स्वप्न जगायें
चलते -चलते थक गये पाँव
चलना हैं चलते जाना हैं
रूक-रूक कर फिरसे खुद को चलायें
आओ नव स्वप्न जगायें
नेत्रों के कमलों में
नव प्रकाश की ज्योति जगायें
निराशा पर आशा की विजयपताका फहरायें
आओ नव स्वप्न जगायें
खुशी की एक बेल
विश्वास के पेड पर चढायें
कच्ची रचना को पक्का साहित्य बनायें
मानव धर्म की सेवा का प्रण उठायें
इस स्वप्न में
कागज हो ..
कलम हो..
एक हँसती सुब्ह हो
मनचली दुपहरी हो
शाम की सिंदूरी लाली हो
चाय की प्याली हो
अखबार की सुर्खिया हो
मैं और मेरा साहित्य हो
जाते हुए वर्ष का अनुभव साथ हो
आते हुये वर्ष की सौगात हो
आओ नव स्वप्न सजायें
चलो नव स्वप्न सजायें..
दर्द आभूषण बन गये हैं
कैसे कहूँ की,
दर्द आभूषण बन गये हैं
दर्द तो अब मनमीत बन गये हैं
अनगिनत यातनाओं और वेदनाओं के गीत बन गये हैं
पीडाओं के जीवन संगीत बन गये हैं
सच में दर्द तो अब आभूषण बन गये हैं
क्षण …
तुम बिन युग सा लगता हैं
अचानक तुम्हारा चले जाना कलयुग सा लगता हैं
माँ- पिताजी ने देखे थे जो स्वप्न तुम्हे लेकर
जैसे पानी के बुलबुले बन गये हैं
सच में दर्द तो अब आभूषण बन गये हैं
मेरी राखी की थाली
और तुम्हारी आगे आती हुई कलाई
सारे किस्से अब तमाम बन गये हैं
सच में अब दर्द तो आभूषण बन गये हैं
भाई के अकेलेपन के रतजगों मे
रहेता है केवल तुम्हारा ही आना जाना
संगीत के गाने बजाने के ऋतु
अब पूराने खंडहर बन गये हैं
सच मे दर्द तो आभूषण बन गये हैं
तु एसे गाता था
तु एसे गुनगुनाता था
तु एसे हंसता मुस्कुराता था
तुझे यह बहुत भाता था
कहते कहते आज भी नही थकते हम ..
गाँव के पीपल बरगद के तले के चबूतरे सुने पड गये हैं
मित्रों के हँसी के ठहाके भी कुछ नम पड गये हैं ..
इंतजार हैं आज भी
तुम्हारे आने का
तुम्हारे गाने गुनगुनाने का
तुम्हारे हँसने का
मुस्कराने का
तुम्हारी हर बात के किस्से आज भी रंगीन बन गये हैं
कैसे कहूँ की..
दर्द आभूषण बन गये है
दर्द आभूषण बन गये हैं
भाईदूज
आहट तेरी जब आतीं हैं
दहलीज मेरी मुस्कुराती हैं
बनफूल की भांति खिलते हो
दूज के चाँद लगते हो
अपना हर दूख सदा छिपाते हो
सुख की वर्षा मुझपर करते हो
पिताजी की बाहूभूजा बनते हो
माँ की होंठों पर मुस्कान सजाते हो
बनफूल की भाँति खिलते हो
दूज के चाँद लगते हो
कर्तव्य पथ पर अग्रसर रहते हो
सुख-दुःख में साथ निभाते हो
खुशी ठहाके की महफिल सजती है तुमसे
बच्चों के संग सदा बच्चे बन जाते हो
बनफूल की भाँति खिलते हो
दूज के चाँद लगते हो
हरा-भरा परिवार रहें..
तेरे सर पर माँ-पिताजी का हाँथ रहें
बहनों का तू राजदूलारा हो
संग संगिनी साथ रहें
भाग्यलक्षमी का हाँथ रहें
भाईदूज का व्रत मैं करूँ
तेरे लंबी उमर की आस धरूं
माथे पर तेरे सौभाग्य का तिलक सजे
तू जीवनपथ पर सदैव विराजमान रहें
आहट तेरी जब आतीं हैं दहलीज मेरी मुस्कुराती हैं
बनफूल की भाँति खिलते हो
दूज के चाँद लगते हो ..
दूज के चाँद लगते हो ..
वह एक ग्लास पानी
बीस वर्ष की परीक्षाओं का
शायद वह परिणाम था
कैफ़ियत सुनाई थी डाक्टर ने
की वह कैंसर था
जो न थकते थे कभी शिकायतें करते -करते
और मैं सहेमी सी चुप्पी में रहे जाती सहेते-सहेते
मेरी कहानी के उसी किरदार ने आज
एक ग्लास पानी का ..
बिन मांगे ही मेरे हाँथ में थमाया था
मन मेरा बावरा हुआ
एक बड़ा सा प्रश्नचिन्ह लगा मन में
क्या यह प्रेम है ?
निरूत्तर ही रहे गया मन
दिल अंदर से घबराया था
जिस शक्स ने नही पढ़ी थी मेरी भावनायें कभी
उसने आज मेरे आँखो का पानी पढ़ा था
कैफ़ियत सुनाई थी डाक्टर ने
की वह कैंसर था
सोचा यह कैंसर होता हैं इतना ताकतवर
जो मैं बीस वर्षो में नही कर पाई थी
उसने वह कुछ पल में ही कर दिया था
कैफ़ियत सुनाई थी डाक्टर ने
की वह कैंसर था
पूछा था बच्चों ने सवाल मुझसे
बुझे-बुझे से स्वर में
माँ अब तुम चली जाओगी ?
उस सवाल ने ही मेरा ह्दय-प्राण निचोड दिया था
बच्चों से कहा मैंने
नही बेटा पहली ही स्टेज हैं सब ठीक होगा
बेटी माँगा करती थी फूल -पौधों के गमले
जो मैं उसे दिला न सकी थी
दो वर्ष से पड़ा था एक गुल्लक अधभरा-सा
उसे आज मैंने तोड दिया था
और बेटी का अनमोल उपहार खरीद लिया था
कैफ़ियत सुनाई थी डाक्टर ने
की वह कैंसर था
थोड़ा-बहुत महंगा इलाज था
मेरी आँखो में पानी से ज्यादा जिम्मेदारियों का बोझ था
आया वह दिन था…
जब डाक्टर आयें भगवान बनकर
कैंसर को निकाल फेंका उन्होने काँटे की तरह
मेरे माँ-पिताजी ने अपनी सेवा दी मुझे विधाता की तरह
अब उन गमलों में कैंसर नही बल्की उगे हैं फूल -पौधे आशाओं औ, अभिलाषाओं वाले
बच्चों के चेहरे खिले हैं चाँद और चाँदनी की तरह
पती की शिकायतों का दौर जो रूक गया था कुछ समय के लिए
अब वह फिर से शुरू हुआ हैं
पती का अधिकार वह फिर से जताने लगे हैं
लाख शिकायतें फिर से वह करने लगे हैं
पती अब पती की तरह लगने लगे हैं
बीस वर्षो के परीक्षाओं का शायद वह परिणाम था
कैफ़ियत सुनाई थी डाक्टर ने की वह कैंसर था
इंतजार हैं फिर से …
उसी एक ग्लास पानी का
जो बिन मांगे ही मेरे कहानी के किरदार ने मेरे हाँथ में थमाया था
बही एक ग्लास पानी का …
समशान
वही रास्ता
वही मोड़
वही पड़ाव
हैं सबका वही अंतिम ठहराव
पृकृति का हैं मौन आमंत्रण
दे रहा समशान हम सबको निमंत्रण
सिसकियाँ लेता हैं
घर-आंगन परिवार
मौन खड़ा रहता हैं द्वार
गली मोहल्ला हो जाता हैं सुनसान
जब होता हैं समशान मेहरबान
वही रास्ता
वही मोड़
वही पड़ाव
हैं सबका वही अंतिम ठहराव
मरघट…
चाहे जीवन का हो
अथवा हो मृत्यू का
कभी बुझता नही हैं
अविरत जलता रहता हैं
पृकृति का हैं मौन आमंत्रण
दे रहा समशान हम सबको निमंत्रण
हाथों के लकीरों की क्या बात करें अब
क्षण भर में मिटा देता हैं वह हमारे जीवन की लकीरें
और मिट जाता हैं पलभर में मिलों का सफर
कैनवस जीवन का बदल रहा हैं हर पल
मृत्यू भरेगा उसमे अपना अंतिम रंग
पृकृति का हैं मौन आमंत्रण
दे रहा समशान हम सबको निमंत्रण
हैं सब कुछ नश्वर
जाना हैं सबको एक ही दिशा की ओर
सुनता नही वह किसी का एक अक्षर
कोई दो दिन पहले
कोई दो दिन बाद
कोई शुरूआत तो कोई मझधार
तो कोई अंतिम चरम पार
हैं जाना हर मौसम हर हाल
जलती हैं अग्निशिखा बिना थके बिना रूके
युगों-युगों से निर्भय निराधार
हो राजा रंक कुबेर हो या हो कोई फकीर
आलिंगन में लेता हैं सबको एक बार
चिता सुलगती हैं
उडती हैं अग्नि की लपटें
शरीर अस्थियां जलकर हो जाती राख
उसी रास्ते से जब लौटने लगते हैं सब
हंसता हैं समशान चिरअनंत और चिरसंचित मुस्कान
मौन होकर बोलता हैं
यही रास्ता
यही मोड़
यही पड़ाव
हैं सबका यही अंतिम ठहराव
आना हैं तुम सबको लौटकर
यंही इसी दिशा की ओर ..
इसी दिशा की ओर…
जीवन
जीवन न बीता हुआ कल हैं
जीवन न आने वाला कल हैं
जो हैं बस आज हैं अब हैं इस पल हैं
इस क्षण हैं ..
जीवन..
हो उस दीपक की भाँति
जो औरों को प्रकाशित करने के लिए तेल बाती और अग्नि के साथ स्वयं का अस्तित्व मिटा देता हैं
जीवन..
हो उस पुष्प की भाँति
जो एक शव पर भी उसी भाव के साथ चढ़ता हैं और ईश्वर की चरणों पर भी उसी आनंद के साथ स्वयं को समर्पित कर देता हैं
जीवन..
हो उस वर्षण की भाँति
जो काले-काले बादलों से घिरकर भी उन्मुक्त होकर बरसता हैं और स्वयं को मुक्त कर देता हैं
जीवन..
हो उस टूटे हुए तारे की भाँति जो अम्बर के चमकते चाँद को छोड़कर टूट जाता हैं और गिर कर बिखराव के बाद भी जाते-जाते कई-कई यों की अभिलाषाएं पूर्ण कर जाता हैं
जीवन…
हो उस अनाथालय की भाँति जो कयीं अनाथों को अपनी छाँव में समेट लेता हैं और उन्हें प्रेम से अपनी गोदी में दूलारकर सानाथ बना देता हैं
जीवन..
कभी -कभी उस समशान की भाँति भी होना चाहिए जहाँ न फूल अर्पित करने का सुख होता हैं और न ही अस्थियां जलकर राख होने का दूख होता हैं…
जीवन न बीता हुआ कल हैं
जीवन न आने वाला कल हैं
जो हैं बस आज हैं अब हैं इस पल हैं इस क्षण हैं
इस क्षण हैं….
गोधूलि की बेला में
गोधूलि की बेला में
कभी हल्की-हल्की बौछार
तो कभी धीमी-गती चाल
मेघ गरजते हैं
मेघ बरसते हैं
किशन की बांसुरी की धून में
राधा की विरह में
गोपियों की छटपटाहट में
उधो की याचनाओं के
मेघ गरजते हैं
मेघ बरसते हैं
शंखनाद के युद्धभूमि में
विराम युद्ध के मौन सन्नाटे में
अनाथों के आक्रोश में
समशान की अग्निकुण्ड में
मेघ गरजते हैं
मेघ बरसते हैं
कभी-कभार तनहाई में
तो कभी भीड में
कभी निराले -से अकेलेपन में
मेघ गरजते हैं
मेघ बरसते हैं
कभी विरह में
तो कभी मिलन में
कभी घात-प्रतिघात तो कभी मन के आघात में
मेघ गरजते हैं
मेघ बरसते हैं
अशांत-से महासागर में
कभी समंदर की आवेशरहीत लहरों में
कभी उगते सुरज की आभा में
तो कभी शाम की सिंदूरी लाली में
मन के भीतर तो कभी मन के बाहर
मेघ गरजते हैं
मेघ बरसते हैं
गोधूलि की बेला में
कभी हल्की-हल्की बौछार
तों कभी धीमी-गती चाल
मेघ गरजते हैं
मेघ बरसते हैं
एक दरिन्दा (साक्षी हत्याकांड)
था एक दरिन्दा
फस गया जिसकी जाल में एक मासूम परिंदा
एसा न किसी का साहिल हो
न एसा कोई किनारा हो
साक्षी हैं माँ भारती !
पूछती हैं हमसे एक सवाल
क्या मेरी विशाल गोदी में
नही था कोई माई का लाल ?
रोकता जो इस मरणयातना को केवल एक बार
रोकता एक बार
था एक दरिन्दा
फस गया जिसकी जाल में एक मासूम परिंदा
था वह एक शैतान
था एक हैवान
देख गले रूद्राक्ष की माला
हाँथ में देख लाल कलावा
साक्षी के मन का हुआ भुलावा
था एक दरिन्दा
फस गया जिसकी जाल में
एक मासूम परिंदा
उस दानव ने कर डाली सारी मानवता की हदें पार
देख कर दृश्य हो गई इन्सानियत आज शर्मसार
हर एक वार के साथ मन- शरीर होता रहा तार-तार
चिल्लाती रही …
वह चिखती रही..
ठेचा बदन पत्थर से सारा
हत्यारे ने किये अनगिनत तीक्ष्ण भयानक वार
मरणयातना होती रही हर क्षण हर बार
आया नही बचाने मगर कोई माई का लाल
आज रो रही माँ भारती ..
पूछती हमसे बार-बार एक सवाल
क्या मेरी विशाल गोदी में नही हैं कोई माई का लाल ?
था एक दरिन्दा
फस गया जिसकी जाल में एक मासूम परिंदा
मासूम परिंदा..
माँ की गोद सुनी
माँ की गोद सुनी
दिया पिता ने सपनों का बलिदान
बहेना ने खोला राखी का बंधन
फिका पड़ा पत्नी का सिंदूरदान
बच्चों के पालने की छूट गई दोरियां
सुनी-सुनी पड गई आज उनकी लोरियाँ
हे देश के वीर जवान
त्यागे तुने अपने प्राण
त्यागा घर-आंगन
गली चौबारा
खेत-खलिहान
और त्यागा परिवार सोने-समान
हे देश के वीर जवान
त्यागे तुने अपने प्राण
माँ की आँखे धूंधला गई अब
कहे पिताजी मेरा शेर जवान
देखे पत्नी राह डाकिये की
नम आँखो से बच्चे करे पाठ रामायण और करे गीता बखान
हे देश के वीर जवान
त्यागे तुने अपने प्राण
मातृभूमि की गोद भरी है
आज तुने माँ अपना लाल देकर
हो चला अमर आज मैं
तुम्हारे सपनों का बलिदान देकर
स्वर्ग-सा सुख मिला हैं
आज माँ मातृभूमि की गोद में सोकर
गुलाल-सा रंग छा गया आज
मेरी आँखो में सारा मंजर पाकर
माँ…
मातृभूमि के लिए मरकर भी न मरूंगा कभी मैं
अमर ज्योति में रहूँगा अमर
युगों-युगों तक रहूँगा अमर
लूँगा फिर से भारत माँ की कोख से जनम
अमर ज्योति में हो जाऊँ
युगों-युगों तक अमर..
वंदे मातरम
पूनम की रात
तेरी यह बातें और यह पूनम की रातें
क्षण भर का प्रेम तेरा
मैने जीत लिया जगभर का विश्वास सारा
बिखरे चाँदनी सरीखा बिखेर दिया मैने खुद को
होश तो तब आया जब तुमने खुद को समेट लिया
शुन्य बन गई फिर से मैं
थी शुन्य ही कभी मैं
अंत में बन शुन्य ही रहे गई
तेरी यह बातें और यह पूनम की रातें
मन करता मेरा अब चलूँ बुद्ध की राह
न रहे मन में कोई चाह
अब न निकले मन से कोई आह !
आह !
न निकले मन से कोई आह !
तेरी यह बातें और यह पूनम की रातें..
यह पूनम की रातें..
उमर की ढलती शाम
अब उमर की ढलती शाम अच्छी लगती हैं
थी कभी संगिनी संग गर्म चाय की आस
अब संगिनी बीन ठंडी चाय अच्छी लगती है
उमर की ढलती शाम अब अच्छी लगती हैं
कभी थी सुरज सी चमकीली राहें
अब यह आशा रहीत चाँद रात अच्छी लगती हैं
उमर की ढलती शाम अब अच्छी लगती हैं
थी कभी अपनों से आशायें उम्मीदे
अब यह इच्छाओं विरहीत मुस्कान अच्छी लगती हैं
उमर की ढलती शाम अब अच्छी लगती हैं
कभी थी चंचलताओं भरी लंबी राहें
यह धीमी-धीमी गती पगडंडी चाल अब अच्छी लगती हैं
उमर की ढलती शाम अब अच्छी लगती हैं
सपने गुजर से गये
मैं ठहर गयीं
मैं ठहर क्या गयीं
सपने तो जैसे गुजर ही गयें
यह सपनों के गुजर जाने की चाल अब अच्छी लगती हैं
यह उमर की ढलती शाम अच्छी लगती हैं
अब उमर की ढलती शाम अच्छी लगती हैं
मित्र
तीनों लोक का स्वामी आँसू भरकर आँखो में अपनी जो मित्र के पग धुलाता हैं
वह मित्र होता हैं …
वह मित्र होता हैं…
जिसके आधे चांवल के भोग से
पूरे ब्रह्माण्ड का पेट भरता हैं
वह मित्र होता हैं ..
वह मित्र होता हैं…
स्कूल बैग जो अपनीं
हमारी कंधो पर सौंपकर खाली चलता हैं
बरसात में कागज की नाव बनाकर हमें आभासी जलप्रवास का आनंद देता हैं
वह मित्र होता हैं …
वह मित्र होता हैं …
एक रुपये की किराए की साईकिल जो देढ घंटे बाद भी भगाता हैं
वह मित्र होता हैं…
वह मित्र होता हैं…
मृत्यु पर हमारी
समशान तक आकर सगे संबंधी भाई बंधू के लौटकर वापस जानें के बाद भी जो समशान में खड़ा रहता हैं
वह मित्र होता हैं ..
वह मित्र होता हैं….
शोकसभा में हमारी तस्वीर को फूलों की माला चढ़ा नहीं पाता हैं
वह मित्र होता हैं ..
वह मित्र होता हैं..
पलायन
मन में जब मृत्यु का भय होता हैं
असुरक्षितता का अनुभव होता हैं
होतां हैं तब पलायन…
खाली-खाली सड़कें थीं
दूर-दूर मिलों तक
परिंदा भी पर नहीं मारता था जिसपर
चलतें चलें जा रहें थे
अनेको अनेक बिगारी मजदूर उन सुनसान सड़कों पर
मनुष्य के मन में जब
मृत्यु का भय होता हैं
तब होता हैं पलायन..
भय चाहें
महामारी का हो
बेरोजगारी का हो
युद्ध का हो
अथवा हो
जातीय दंगो का
हिंसा का …
पत्थरबाजी का …
मृत्यु आतंकवाद के भय के चलतें ही होता हैं
पलायन..
पलायन…
पलायन मन के विचारों से
पलायन घर से
पलायन समाज से
और होता हैं पलायन देश से राष्ट्र से
विस्थापन का दर्द जो बेमन होकर सहता हैं
कहा जातां हैं जिसको
शरणार्थी..
याचना करता हैं जो अपनें सुरक्षा की संरक्षण चाहता हैं.
जो स्वीकार किया जाता हैं
मिलती हैं शरण जिसको अथवा करता हैं जो अनेको मुश्किलों का सामना
कहलाता हैं वहीं शरणार्थी..
मन में जब मृत्यु का भय होता हैं
तब होता हैं
पलायन..
पलायन…
बेटियाँ
बरसता हुआ सावन होतीं हैं बेटियाँ..
काका बाबा सबके लियें
प्रेम मनभावन अति पावन
होतीं हैं बेटियाँ..
सावन में बांधे हुयें झूलों का गीत
कलाई का कंगन हरी-लाल चूडियों की रौनक होतीं हैं बेटियाँ..
माता-पीता के लिए दर्पन होतीं हैं
घर-परिवार कें सुख के लिए सदैव अर्पण होतीं हैं बेटियाँ
दादी नानी के लिए मायके की डोली और ससुराल की अर्थी के बीच का सफर होतीं हैं बेटियाँ..
कर्तव्य निभाने में जीवन का तर्पण होतीं हैं ..
उदासी संग होने पर भी
मुश्किल घड़ी में
कभी धुली हुई चाँदनी
तों कभी खुले आकाश का चमकता हुआ चाँद होतीं हैं बेटियाँ
परिवार को सुरक्षित रखनें में
दो धारी तलवार भी होतीं हैं बेटियाँ..
बरसता हुआ सावन और प्रेम की बरसात होतीं हैं बेटियाँ
आँगन की हरी-भरी तुलसी के बिरवा सी और उसके आगे जलते हुए दीपक की मंद-मंद जलती दीपशिखा होतीं हैं बेटियाँ
बरसता हुआ सावन
होतीं हैं।बेटियाँ…
बरसता हुआ सावन
होतीं हैं बेटियाँ….
मेघ गरजते हैं मेघ बरसते हैं
मेघ गरजते हैं ..
मेघ बरसते हैं…
चंपा की कली हैं खिली-खिली
हो रहीं बेला
चमेली की झड़ी
मंद-मंद मुस्कुराती हैं
जूही की कली
बौछार हैं लगी बूँदों की लड़ी..
आषाढ की चाँदनी हैं
धरा पर उजली मोतियों से धुली..
चाँद बादलों की चादर ओढ़कर चुपके से निहारता हैं
टूटी हूई कोई चाँदनी ..
ठंडी हवायें चली…
चंपा की कली हैं खिली-खिली
हो रही बेला
चमेली की झड़ी
मंद-मंद मुस्कुराने लगी हैं
जूही की कली..
मेघ गरजते हैं
मेघ बरसते हैं …
धरती की हरियाली से हैं गोद भरी
फूलों ने अपनी बहार हैं बिखराई
भौरों ने बगीचे में हैं गुंजन लगाई
सावन की हो गई हैं दस्तक
झूलों ने बेटियाँ अपनें गोद में झूलाई
मायके में भाई बहन के राखी की शुभ घड़ी हैं आयीं…
मेघ गरजते हैं
मेघ बरसते हैं ..
आग उगलता सुर्य
दिन – प्रतिदिन..
आग उगलता जा रहा हैं सुर्य
पृकृति की बची हुई
ठंडक को भी जला रहा हैं
आग उगलता यह सुर्य..
चालिस से पैंतालीस
पचास तक और फिर
साठ पर चला जायेगा तापमान
फिर कहाँ बच पायेगा
कोई भी इन्सान
नहीं रहेंगा प्राणीमात्र का
कोई नामोनिशान..
दिन-प्रतिदिन..
आग उगल रहा हैं तपता हुआ सुर्य..
पृकृति की बची हुई ठंडक
भी जला रहा हैं
यह आग उगलता सुर्य..
धरा झुलस जायेगी
नही रहेगा ..
जीवन का कोई भी अवशेष
रक्षा करो पृकृति की
बची हैं जितनी भी
शेष..
करो जल का संवर्धन
हरियाली का होगा अभिवर्धन
तपती गर्मी
दिन ब दिन कर रही परेशान
दे रही चेतावनी
बता रही चीख़-चीख कर
पेड पौधौं की करो निगरानी
पर्यावरण की करो
रक्षा..
आनेवाले पिढीयों की हमारे
होगी सुरक्षा ..
दे रहा
आग उगलता सुर्य
यह चेतावनी..
शेष हैं ..
जितनी भी पृकृति..
उसी को बनाओ विशेष
मानव प्राणी..
मानव प्राणी…
दिन प्रतिदिन आग उगलता जा रहा हैं सुर्य..
आग उगलता सुर्य…
मैं पथिक मेरी मंजिल हैं कहाँ..
मैं पथिक..
अंजानी राहों का
कोई बताये तों जरा मेरी मंजिल हैं कहाँ..
कभी सुखमय जीवन
कभी जीवन में हैं दुख-दर्द भरा
कोई बताये तों सही
मेरी मंजिल हैं कहाँ..
इस जीवन पथ में
कुछ नही हमारे बस में ..
आज यहाँ
कल वहाँ
न जानें परसों होंगे हम कहाँ..
जीवन हैं
बैरागी..
हम सब जोगी हैं यहाँ
ले लो प्रेम का जोग..
जीवन का हर सपना तज दो यहाँ
कोई दिन नहीं तुम्हारा
न ही कोई शाम
रात हैं नहीं कोई हमारी यहाँ..
कोई बिछड़ गया हैं बीच राह में तों कोई संग-संग आया साथ यहाँ..
यादों का मेला हैं
जीवन का सफर यहाँ..
पथ में थकें नही
यह जीवन का सफर कभी रूके नहीं ..
मैं पथिक..
अंजानी राहों का ..
मेरी मंजिल हैं कहाँ..
कोई बताये तों जरा मेरी मंजिल हैं कहाँ..
मैं पथिक..
भारत होगी तुम्हारी जीत..
प्रलय..
कितने आये..
और आकर चले गये..
काफिले युद्ध के कितने गुजर गये..
भारत तेरे वीर
सदैव
रणधीर रणवीर और रणविजय ही रहें ..
अनुयायी हम रहें
अतिथि देवो भव: के
राम ,कृष्ण, बुद्ध के हम वंशज रहें
महान अशोक और विक्रमादित्य के हम पग चिन्ह पर पग धरे..
छीना नहीं कभी किसी से कुछ
बस देना ही देना हमे आया हैं
विदेशियों की गुलामी करना
कभी नही हमें भाया हैं ..
झुकना और भागना
हमारे स्वभाव में नहीं
रण से युद्ध पहले
मन में जीतते हैं हम ..
दान करना
हमने युगों युगों से
पूर्वजों से हमने अपनाया हैं
भारत..
आज भी तुम महान हो
प्रलय ..
कितने आये..
और आकर चलें गये
काफिले युद्ध के
कितने गुजर गये..
भारत के वीर
सदा हीं रणधीर ,रणवीर और रणविजयी रहें
प्रलय कितने आये..
और आकर चलें गये..
लहू की नदियाँ बहाकर
वीर जवान अनेको बार शहीद हुए..
भारत माता की शान में ..
महान प्रतापी बलिदानी अमर हुए..
प्रलय कितने आयें
और आकर चलें गये….
माँ धरती करतीं हरियाली का श्रृंगार
माँ धरती ..
हरियाली का श्रृंगार करतीं हैं.
हरा -भरा घूंघट ओढ़कर
पृकृति को अपनी बाँहों में भरती हैं
माँ धरती..
हरियाली का श्रृंगार करतीं हैं ..
गोदी में खिलते हैं इसके
रंग-बिरंगे फूल
धूल भरी तुफानों को भी यह
अपने सीने में भरती हैं
माँ धरती..
हरियाली का श्रृंगार करतीं हैं ..
सफेद बर्फीले पहाड़ों पर भी
अपना असीम सौदर्य बिखेरती हैं
ओस की बूँदों को भी यह
सिरमौर सजाकर लेती हैं
माँ धरती..
हरियाली का श्रृंगार करतीं हैं…
यह पेड-पौधौं की
अपनी उर्जा से सिंचाई करतीं हैं
हरा-भरा घूंघट ओढ़े
पृकृति को अपने बाँहों में भरती हैं
माँ धरती..
हरियाली का श्रृंगार करतीं हैं..
जल को अपने गर्भ में धरती हैं
सागर की लहरों में
नदी के झरनों में
बरसात की शीतलता में
खेत-खलिहानों में
अपना अनोखा एक रूप-सौदर्य
बिखेरती हैं ..
पृकृति की सुंदरता में
स्वयं को सरोबार करतीं हैं
लुटाकर प्रेम
निस्वार्थ मनोहार करतीं हैं
पृकृति शांति का संदेश सारे विश्व को देतीं हैं
जल का करतीं सदैव मान
इसलिए हरी-भरी रहतीं हैं..
माँ धरती हरियाली का श्रृंगार करतीं हैं …
हरा-हरा घूंघट ओढ़कर
पृकृति को अपनी बाँहों में भरतीं हैं..
माँ धरती..
पृकृति का श्रृंगार करतीं हैं…
माँ धरती…
सिंदूरी समंदर..सूरज की सुनहरी आभा..
समंदर की लहरें..
शांत होतीं गई..
जैसे ही सूरज अपनी ढलती शाम की तरफ अग्रसर होनें लगा..
अपनी सिंदूरी लालिमा की आभा…
बिखेरता हुआ..
धीरे-धीरे..
ढलता गया ..
क्षितिज के उस पार..
दूर..
बहुत दूर..
समंदर की लहरों में हीं ..
स्वयं की सिंदूरी आभा..
बिखेरता हुआ..
जैसे नयीं नवेली दूलहन..
शालू पहनी हैं..
सिंदूरी रंग वाला..
उस पर किनार लगीं हैं
जैसे..
रंग सुनहरी..
सुनहरी..
क्षितिज पार..
सूरज की लाली ..
सुनहरी किनार वाली.
सिंदूरी..
सिंदूरी…
हमारे पिताजी
साईकिल की सवारी करते
सदा हँसते मुस्कुराते हमारे पिताजी
घर का सारा काम करके
थक चूके माँ के चहरे पर क्षण भर में मुस्कान लाते
बेटों को जिगर का टुकडा बनाते
बेटियों पर जान न्यौछावर करते
हमारे पिताजी..
साईकिल की सवारी करते
जीवन में
सदा हँसते मुस्कुराते हमारे पिताजी..
साईकिल पर अपनी उमर के
हर पड़ाव में
मिलों लंबा सफर करते
फिर भी कभी नही थकते
हमारे पिताजी
हम सबको प्रेम के साथ-साथ
समय पडने पर
कठोर अनूशासन में बाँधते हमारे पिताजी..
अपना दुख-दर्द छिपाकर हमारे होंठो पर मुस्कान बिखेरते हमारे पिताजी..
घर-आँगन और परीवार को
अपनी छत्रछाया में
संरक्षित और सुरक्षित रखते हमारे पिताजी
साईकिल की सवारी करते
हँसते मुस्कुराते हमारे पिताजी..
साईकिल की सवारी…
मेरे पिता मेरे भगवान
कैसे उतारें आपको
कागज पर
केवल एक लेखनी में भरकर..
भरे हैं आप हीं ने ह्दय में
प्राण हमारे
इतने काबिल कहाँ हम की
कुछ जरा सा भी लिख सकें हम आपके ऊपर..
मेरे पिता
आप मेरे भगवान हो
आप मेरे भगवान हो..
प्रति पल
हर पल
देखते हो आप हमें अपल
जान जाते हो दुख-दर्द हमारा
स्वयं अपना घाव भूलकर..
प्राप्ति हो..
समाधान हो..
मेरे पिता
आप ही तों मेरे भगवान हों ..
स्थिर हो
अविचल हो
चट्टान के सरीखे अडिग हो अटल हो…
ऊपर से नजर आतें हो पाशान
भीतर मे मोम हो..
सपनों के रंग परीवार पर अपने बिखेरते हों
सवयं कठोर संघर्ष के सफर पर निकल पडते हो..
मेरे पिता
आप हीं मेरे भगवान हो
आप मेरे भगवान हो..
दिशा हो
आप ही मेरी आशा हो
अनंत आकाश हो
आँसुओं के समंदर में अचानक से आयीं हँसी की लहर हो..
मेरी मरी हूई आत्मा का लिया हुआ दीर्घ श्वास हो..
जीवन के तपते रेगिस्तान में
शीतल छाया देने वाले
विशाल वृक्ष हो..
मेरे पिता..
आप हीं मेरे भगवान हो..
आप हीं भगवान हों ….
चालू घड़ी ही जीवन हैं
हासिल क्या हैं
क्या हैं पाया
और क्या खोना
जवाब एक ही होगा सबका
कुछ भी नहीं
कल कहाँ था
कल कहाँ हैं
कल कहाँ होगा
जवाब एक हीं होगा सबका
कंही नही..
आकाश गगन भर आया
बरसात बरसकर
खाली हुआ..
फिर आकाश भरकर आया..
निशाँ कहाँ था
कहाँ हैं
कहाँ होगा
जवाब एक ही होगा कंही पर भी नही
जो हैं आज हैं
इस क्षण हैं
इस पल हैं
कल किसने देखा हैं
कल कौन देखेगा
बस जो चल रहीं हैं घड़ी..
चालू घड़ी हीं जीवन हैं
चालू घड़ी हीं
जीवन हैं…
रक्तदान
साँसों के कड़ी को जो
टूटने से बचाये
प्राणों को जो उर्जावान बनाए ..
जाती-पाती के उपर उठकर
धर्म की बेड़ियों के बंधन तोड़कर..
होता हैं
केवल एक हीं दान..
मानवता की नींव
बनता आया हैं जिसका आधार
जो सारे विश्व में हैं
साकार और साभार
ऋण जिसका
उतारा नहीं जा सकता..
ईमानदारी से
नस-नस में जो हैं दौड़ता..
एक हीं हैं दान
महान हैं जो सब दानों में
एक हीं दान..
रक्तदान..
रक्तदान..
कमी तों रहें ही जाती हैं…
जीवन में..
कमी तो रहें हीं जाती हैं
कभी विश्वास की कमी जिसके कारण रिश्ते बिखर जाते हैं
कभी पैसों की कमी
जिसके कारण सपनें बिखर जाते हैं..
कभी शारीरिक अवयवों की कमी
जिसके कारण अपाहिज पन की पीड़ा सहनी पड़ती हैं
कभी साँसों की कमी..
जिसके कारण जीवन ही रूक जाता हैं..
कमी तों जीवन में रहें हीं जाती हैं ..
कमी रहें जाती हैं..
आज मुझसे पैसा बोल उठा
क्या हैं तुम्हारे पास ?
बहुत बड़ा सवाल कर बैठा ..!
आज मुझसे पैसा बोल उठा
क्या हैं ?
ज्ञान हैं..
बुद्धी हैं…
मेहनत हैं..
इन सबके होने के बावज़ूद भी
मेरे बगैर तुम
कुछ नहीं हो..
अपूर्ण रह गयें हो तुम जीवन में
हर पड़ाव पर
मेरे बगैर ..
बताओ तो अपने ज्ञान पर
अपनी मेहनत और बुद्धी पर
क्यो तुम इठलाते हों
मेरे बगैर जीवन मे तुमने जो की हैं कमी की अनुभूति
हर मोड हर पड़ाव पर
क्यो वह छुपाते हो
शिक्षा के उच्च स्तरीय साधन हैं प्राप्त मुझसे हीं
स्थान भी उच्च शिक्षा का मुझसे हीं पाते हो..
बगैर मेरे तुम कोई उच्च डीग्री कहाँ ले पाते हो
मुझसे ही हैं दुनियाभर के सारे कारोबार
शिक्षा का बना हैं मुझसे ही आज व्यापार और बाजार
आज मुझसे पैसा बोल उठा..
क्या हैं तुम्हारे पास ?
बहुत बड़ा सवाल कर बैठा..
मुझे बनाया तुमने हीं
और तुम ही मुझे पाने के लिए मेरे पिछे दौड़ते हो आज..
पैसा बोल उठा कमी हैं तुम्हारे जीवन में मेरे बगैर.
साँसों की..
जीवन की..
शिक्षा की..
रोटी कपड़ा और मकान की..
सपनों को पूर्ण करने में
असमर्थ हो तुम आज
किसान
कभी फसल उग भी जायें तों मेरे अभाव में अनाज का कवडी मोल पाता हैं ..
फिर भी गरीब के चहेरे की मुस्कान के आगे मैं हार जाता हूँ..
और क्षण भर के लियें
मैं भी भूल जाता हूँ..!!
की मैं पैसा हूँ..
मैं पैसा हूँ….
आज मुझसे पैसा बोल उठा..
पैसा बोल उठा…
पुस्तकों से मित्रता
मेरी बिटिया नही बनानी
किसीसे मैत्री
इस शैक्षणिक जीवन में
घनी हो केवल और केवल
पुस्तकों से मित्रता
शब्द कभी नही बदलते इनके
चाहें हो जाए कितने भी पूराने
इनके सारे पन्नों को पढ जाओ
मन -मष्तिष्क के गहराई तक इन्हे उतारो
भविष्य की घुट्टी समझकर पी जाओ
फिर एक रफ्तार मिलेगी
जीवन में हर समस्या आसान लगेगी..
हर मुश्किल होगी छोटी
उँची होगी हर सोच तुम्हारी
फिर भर सकोगी आकाश में एक ऊँची उड़ान..
हर डीग्री को हासिल करना फिर होगा आसान..
यह पुस्तक ज्ञान का भंडार हैं होते
नही किसी मोड पर भी धोखा देते
बना देंगे तुम्हारा भविष्य
राजाओं के समान
राजयोग कुछ एसा होगा..
तुम्हे हर जगह
एक मान मिलेगा
जीवन के इस पड़ाव पर
मेरी बिटिया मत बनाओ किसीसे मित्रता
केवल और केवल
पुस्तकों से ही हो तुम्हारी मित्रता
कभी न मिलेगा धोखा कोई
देंगे आखरी क्षण तक
साथ तुम्हारा एक -एक अक्षर
देंगे यही पुस्तक जीवन भर साथ तुम्हारा..
हो केवल और केवल
पुस्तकों से मित्रता..
पुस्तकों से मित्रता..
दीवारें
दीवारें
कभी बोलती हैं क्या ?
नही..!
हम जैसे चाहें
उन्हे रंग देते हैं
उनसे कभी उनकी
राय,दिलचस्पी
उनकी पसंद
पूछी जाती हैं क्या ?
की उन्हे
कौनसे रंग में रंगना अच्छा लगता हैं..!
केसरिया..
लाल ..
पीला..
नीला ..
रंग आसमानी या हरा
गेरूआं रंग जो है बहुत ही पक्का
साथ न छोड़े कभी..
क्या कभी पूछा हैं हमने
अपनी दीवारों से ?
नही..!
कभी ना पूछा हैं
ना ही उन्होने कभी कोई नाराजगी जताई..
और ना कभी कोई शिकायत की
बस ..!
खड़ी रहती हैं
हमारी खुशी के लिए
एक ही जगह
चाहें दीवारों से
रंग उड जायें..
या रंग चढ जायें..
एक ही जगह
अपने आप में
मौन…!
मौन…!
माँ ..
मंद मंद बाती सरीखी
जलती हो
माँ …
सर पर हमारे सदैव
आशिर्वाद की मखमली चादर बूनती हो
माँ …
तुम ध्यान रखतीं हो सबका
पर कभी
एहसास तक नही होने देतीं हो
माँ …
मंद मंद
बाती सरीखी
जलती हो
जलता होगा ना माँ
कभी मन तुम्हारा भी
होतीं होगी कभी
ह्दय में पीड़ा
दिल में दाह तुम्हारे भी
पर कभी
आभास तक नही होने देती हो
माँ …
मंद मंद
बाती सरीखी
जलती हो
ठोकर लगी जब -जब
ठेस लगी पाँव में मेरे
बहा लहू हो गये गहरे जख्म कभी
हर घाव
चाहें मन का हों या हो शरीर का
भरने के लिए
तुम ही दौड़कर आतीं हो
माँ..
मंद मंद
बाती सरीखी
जलती हो
कैसे लिखूँ मैं तुम्हे
वह शब्द नहीं मेरे पास अभी
एक दो शब्दो में मेरे
तुम कहाँ समाती हो
निशब्द मुझे हर बार बनाती हो
माँ..
मंद मंद
बाती सरीखी
जलती हो
थक जाता हैं
घर सारा
तुम क्यो नही थकती हो
फट गई तुम्हारे पाँव की एड़ियां
हाथ बन गये बबूल की छाल
सबकी आदतें संभालते संभालते
आदतों के सिवाय
स्वयं जी लेती हो
सबको उनका स्थान दिलाते -दिलाते
अस्तित्व तुम अपना खो देती हो
माँ..
अस्तित्व अपना खोती हो
मंद मंद
बाती सरीखी
जलती हों
सर पर हमारे सदैव
आशिर्वाद की
मखमली चादर बूनती हो
माँ..
मंद मंद
बाती सरीखी
जलती हो
हर पल
हर क्षण
जलतीं हो ..
मंद मंद
बाती सरीखी…
माँ..
अरी ओ बिजली..
शुन्य में ..
आकाश गगन में करती हो नर्तन..
देख तुम्हें..
अवसाद भरें मन में
होता क्षण में परिवर्तन..
क्यों दिखाती हो
मन को झूठी आशा और अभिलाषा
क्या भूल गई हो अब तुम भी
किसान के मन की परिभाषा
किसान के मन की
परिभाषा
अरी ओ बिजली..!
क्यों चमकती हो यूँ बार-बार…!!
बरसता नही जल..
न गाता हैं अब पावस पँछी पहले के समान
समंदर की दिशा से नही बहती अब बरसाती हवायें ठंडी ठंडी..
अरी ओ बिजली..
शुन्य में गगन
आकाश में
करती हो नर्तन..
देख तुम्हें
अवसाद भरे मन में
होता क्षण में परिवर्तन..
क्यो दिखाती हो मन को
झूठी आशा और अभिलाषा..
क्या भूल गई हो तुम भी
किसान के मन की परिभाषा..
किसान के मन की
परिभाषा…
अरी ओ बिजली..!!
किसान के बच्चे तुम्हे देख-देखकर गाते हैं गीत..
आँगन में नाचते-गाते बना लेते हैं तुम्हे अपना मनमीत..
कंठ कभी नही सुखता उनका देख तुम्हें
तुम्हारी चमक हीं उल्हास भरी बनाती उन्हे..
अरी ओ बिजली..!!
क्यो चमकती हो यूँ बार-बार
ना जल बरसता हैं
ना होता हैं
किसान का कोई सपना साकार..
अरी ओ ..!
बिजली….!!!!
पता ही नही चला : कब चालीस के पार हो गयें
कब चालीस के पार हो गये
पता ही नही चला
कब सपने हमारे मर गयें
हमे तो पता ही नही चला
चूल्हे पर रोटियाँ बनाती थी माँ
उठता था धुआं
कब माँ की आँखे धुंधली हो गयी
हमें तो पता ही नही चला
इमली आमचूर डली अरहर की दाल
नींबू और आम आम का अचार
गर्म रोटी पर मस्के का गोला
कब पनीर और आलू में बदल गया
हमें तो पता ही नही चला
हरी मिर्च का ठेचा सिलबट्टे में बटा
मूंगफली, अलसी लहसुन की सुखी चटनी ओखली में पीसी
वह अलाव में भूना बैंगन का भरता
कभी सत्तू मन मत्तू आम का तक्कू
कब मिक्सर कुकर और गैस की नकली चकाचौंध बीच खो गया
हमें तो पता ही नही चला
सबका वह पीपल के पत्तों से भरे आँगन में बैठकर खाना
किसी का रोना रूठना मनाना
वह डाकिए का अचानक से आना
सबका मन लगाकर चिट्टी का संदेसा सुनना
बूढ़े नानाजी की दादी-नानी की कहानियाँ
कब मोबाइल, टी.वी ,कंप्यूटर में दफन-सी हो गयीं
हमें तो पता ही नही चला
पिताजी का वह रेडीयो के तराने गाना ,”राही मनवा दुख की चिंता क्यों सताती हैं, दुख तो अपना साथी हैं …”
माँ का भावविभोर होकर सुनना
हमारा संग-संग गुनगुनाना
कब डायनिंग टेबल की चुप्पियों में सिमट गया
हमें तो पता ही नही चला
अब बच्चे खाते हैं पिज्जा बर्गर और गाते हैं अंग्रेजी हिपाॅप
हम बैठे रहते हैं बनकर गुंगे और बहरे
कब माँ-बाप अनपढ से हो गये
पता ही नही चला
कब चालीस के पार हो गये
पता ही नही चला
और कब सपने हमारे मर-से गये
सच में हमें तो पता ही नही चला
पता ही नही चला …
युग बदल रहा हैं : आत्महत्या
जी हाँ
युग बदल रहा हैं
कलयुग की दस्तक दे रहा हैं
ज्ञान प्राप्त करने वाला विद्यार्थी पंखे से लटक रहा हैं
गुरू कहलाने वालों के हाथों ज्ञान को बेचा जा रहा हैं
शिक्षा का बाजार हो रहा हैं
युग बदल रहा हैं
कलयुग की दस्तक दे रहा हैं
भारत का राजा कहलाने वाला अन्नदाता
किसान कर्ज के बोझ से त्रस्त होकर
पेड़ की फांदी को फांस बना रहा हैं
देश का अन्नदाता हीं दाने -दाने को और खाने को तरस रहा हैं
जी हाँ
युग बदल रहा हैं
पालनकर्ता की भी पालनकर्ता हैं जो
शक्ति का हैं रूप और स्वरूप
क्षण भर में ही उसे अत्याचार का शिकार बनाया जा रहा हैं
संस्कारित मेरे देश में
महिलाओं के सुरक्षा पर सवाल लग रहा हैं
बलात्कार जैसे राक्षसी वृत्ती का
स्त्री को शिकार बनाया जा रहा हैं
जी हाँ
युग बदल रहा हैं
पता नहीं और कितना होगा बदलाव
कभी विद्यार्थी
कभी स्त्री
कभी वृद्ध बुजुर्ग
तों कभी अन्नदाता देश का राजा किसान
बन रहें हैं इस बदलते हुए युग का शिकार..
हो रहीं हैं आत्महत्याएं
आरक्षण के लिए सारा भारतवर्ष लड़ाई लड़ हा हैं
जी हाँ
युग बदल रहा हैं
कलयुग की दस्तक दे रहा हैं
स्वतंत्र होकर हो गये हैं पचहत्तर वर्ष
फिर भी मेरा भारत बेरोजगारी का रोना रो रहा हैं
भारत बदल रहा हैं
जी हाँ मेरा देश बदल रहा हैं
युग बदल रहा हैं
युग बदल रहा हैं…
मेरी पाठशाला
मेरे गुरू..
अनायास ही याद आ गयीं
आज
मेरी पाठशाला और मेरे गुरू
पाठशाला भरा करतीं थीं एक
चिरेबंदी पत्थर के पूराने हेमाडपंथी महादेव जी के मंदिर में
गुरू हमारे बैरागी थे
जो आया करतें थे
नदी को पार करके
धौती कुर्ता और सफेद टोपी था उनका पहरावा
हाथ की नीम की छड़ी जोर से कभी लगती तों याद आ जाता तुरंत चूका हुआ पहाडा..
आज वैसी हीं हैं
मेरे गाँव की पाठशाला
आसपास के ईमली के पेड़ वहीं हैं बेरी के पेड़ वहीं हैं
बस गुरूवर के चरण चिन्ह कंही खो गयें हैं
गुरूवर बैरागी पिछले वर्ष
नब्बे वर्ष में स्वर्ग सिधार गयें
अब वह पाठशाला खड़ी हैं अपनी ही जगह पर
एक खंडहर बनकर
मंदिर वहीं हैं
पाठशाला का चलचित्र नजरों में घूमता वहीं हैं
बस गुरूदेव बैरागी अब इस दुनियां में ना होकर भी
रहें गयें हैं हमारे ज्ञान में
अमर होकर
अमर होकर
आज भी वहीं हैं
मेरी पाठशाला और वहीं हैं
बैरागी हमारे ज्ञान में चलतें हमारे साथ निरंतर जीवन भर
चलतें ज्ञान के साथ निरंतर…
हो गयें हैं ज्ञान के साथ गुरूवर अजरामर…
हो गयें हैं गुरूवर अजरामर…
पेड़ पौधों का उपकार
पर दादा ने लगायें हैं कुछ पेड़ खेत में
देते आ रहें हैं जो हमें
शुद्ध हवा और छाँव
बगैर भुगतान..
दादी ने लगाई हैं कुछ बेलें घर में
अनार हैं फलों का राजा
कलियाँ हैं बिजली के फूल सरीखी
देखते ही सुंदरता बनतीं हैं जिनकी
बाड़े में लगा हैं
नींबू का एक पेड़
बनाया हैं मधुमक्खी ने छत्ता उसीपर
गुलाब हैं खिला-खिला..
कनहैर हैं लाल रंग गुलाबी पीला पीला
गेंदे की ओर नजर हैं रूकती
चंपा चमेली की डाली हैं झूकती
जुहीं की कली हैं मुस्कुराती
रातरानी अपराजित मधूमालती हैं अपनी सुंदरता बिखेरती..
बरगद पीपल और गुल्लर हैं घने जंगल के राजा
जिन्होने हैं हमारा जीवन बचाया..
हैं हमपर पेड-पौधौं का उपकार
जीवन। हैं
साँसे हैं हमारी
इन्ही का दिया उपहार
कैसे भूले हम शताब्दियों तक
चिरस्थाई हैं इनके दियें हमें और हमारे आनेवाले पिढीयों के लिए उपकार
हम भी सब मिलकर पेड़ पौधों को लगायें
उन्हे जिंदा रखें साथ आने वाले पिढीयों का रखें जीवन रखें सुरक्षित
पेड़ लगाकर जंगल घना बनायें रखें सुर्य का संतुलित तेज और ताप..
पेड-पौधों के हम पर हैं
अनेको अनेक अनंत उपकार..
चौहान शुभांगी मगनसिंह
लातूर महाराष्ट्र
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स्मृतियाँ | Kavita Smritiyan
आदरणीय चौहान शुभांगी मगन सिंह जी आपकी कविताएं सराहनीय व हृदय को प्रफुल्लित करने वाली हैं | हार्दिक शुभकामनाएं |