त्याग निद्रा,जाग मुसाफिर | Poem Jaag Musafir
त्याग निद्रा,जाग मुसाफिर
( Tyag nidra jaag musafir )
बीती रात ,हुआ सवेरा
पक्षी कुल का, हुआ बसेरा
कैसे लक्ष्य,तय होगा फिर
त्याग निद्रा,जाग मुसाफिर,
सोकर कौन? कर पाया क्या?
बैठ करके,खोया ना क्या?
खोते वक्त, मत जा आखिर,
न सोवो उठ,जाग मुसाफिर।
अपने आप, समझता क्यों न?
होके सबल, सभलता क्यों न ?
न बैठ यहां , बनकर शातिर
त्याग निद्रा,जाग मुसाफिर।
न बैठ यहां,समय बिताओ
अंतर्मन न, यूं बहलाओ
समझ सही,उठ गिर गिर फिर
त्याग निद्रा,जाग मुसाफिर।
चिंता न कर,दिन लौटेगा
संभल जरा,ना भटकेगा
तब मिलेगा,अच्छा दिन फिर
त्याग निद्रा,जाग मुसाफिर।