मंजिल | Poem manzil
मंजिल
( Manzil )
मंजिल अपनी निश्चित है,और भाव भी मन मे सुदृढ़ है।
रस्ता तय करना है केवल,जो मंजिल तक निर्मित है।
जो मिलता ना रस्ता तो फिर, खुद ही नया बनाएगे।
कर्मरथि हम मार्ग बनाकर, खुद मंजिल तक जाएगे।
टेढी मेढी हो पगदण्डी या फिर कंटक राहों मे।
हम पर्वत को पार करगे, या भूगत व्यवधानों से।
हूंक नही हुंकार सजग है, पग पंकज हरि साथ रहे।
वो ही मार्ग दिखाएगे, मंजिल और मन मे विश्वास रहे।
कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )