नारी | Poem on nari
नारी
( Nari )
घर सुघर होता है जिससे पल्लवित है प्रकृति सारी।
जन्मदात्री होकर अबला ही कही जाती बेचारी।।
सूर्य चांद सितारे ग्रह नक्षत्र सब जन्मे हुये हैं।
थे अदृश्य जीव सारे नारी से तन में हुये है।
ब्रह्मा विष्णु महेश नारी साधना में रत रहे हैं।
जगत की अम्बा है नारी आगम निगम कह गये हैं।
इतना हो करके भी वह रहती है फिर क्यूं मारी मारी।।
जन्मदात्री ०
न अरि पर मित्र बनकर पुरुष के संग में खड़ी है।
प्राण रक्षा पति की हो यमराज से भी तो लड़ी है।
दो कुलों की मान मर्यादा का ध्वज कर में लिया है।
निर्जला रह करवा चौथ वट सावित्री व्रत किया है।
कौनसे अपराध बस दु:शासन ने खींची थी सारी।।
जन्मदात्री ०
कोई वन मे छोड़ता है समझता कोई नौकरानी।
रोना घुटना सहमी रहना नारी की यही कहानी
दहेज लोभी नारी बंचक घोर नर्क में जायेगे।
यमदूत जाकर वहां पर पीड़ा बहुत पहुंचायेंगे।
चिकित्सा अभियांत्रिकी भी कर रही है आज नारी।।
जन्मदात्री ०
समय का चक्कर है क्या नारी ने बदला रंग है।
अधखुला तन सूप नख परपुरुष प्रिय कुसंग है।
शास्त्रों ने देवी कहा है पथ विमुख सी हो रही है।
ज्ञान दीप बुझा हुआ विवेक मोती को रही है।
शेष मणि युगों युगों से नारी का ही है पुजारी।।
जन्मदात्री ०