प्रतिस्पर्धी | Pratispardhi
प्रतिस्पर्धी
( Pratispardhi )
हार जीत तो जीवन का हिस्सा है
यह जरूरी नही की
धावक के हर कदम पर
पदक ही धरा हो
हार भी तो जीत के लिए ही
किया गया प्रयास है
जो सीखा देता है स्वयं की कमियों को
जीत की दिशा मे बढ़ने के लिए
सफलता मे यदि प्रसन्नता है तो
हार पर खिन्नता क्यों
अपनेपन मे ही सार्थकता है यदि तो
पराजित होने पर भिन्नता क्यों
धावक दौड़ता नही कभी पराजय के लिए
परिस्थितियां भी बन जाती हैं बाधक
जरूरी है की साथ रहें हरदम
पहले जैसे ही पराजय मे भी
जीवन स्वयं भी तो एक संग्राम ही है
संग्राम मे जीत हार की होड़
स्वाभाविक ही है
प्रतिस्पर्धी तो आश्वस्त है कल की जीत के लिए
सोचनीय तो वे हैं
जो आज विपरीत मे कहां खड़े हैं
( मुंबई )