रे आदमकद | Re Aadamkad
रे आदमकद !
( Re aadamkad )
हो गया है तू कितना बौना!
तुझे हर वक्त चाहिए
सुख सुविधाओं
का बिछौना!
भूल गया है तू
इस पुण्य धरा में
कहांँ-कहांँ महान
सभ्यता- संस्कृति के
गौरव चिन्ह छुपे हुए हैं
अपने मन से पूछ
क्या तूने कभी खोजें हैं!
अधुनातन रंग में रंग गया है
जड़ों को खोखला कर के
अकेलेपन में ढ़ल गया है!
दिखावे का और भटकाव
का मार्ग अपनाकर
तू ख़ुद को भूल गया है।
कण-कण है जिसकी
शक्ति से गतिमान
कभी गहराई में उतर
ख़ुद ही हो जाएगी
उससे पहचान
यूंँ भोग विलास, बनावट
का बजाकर तंबूरा
काल का भोग बन
विस्मृत कर रहा
अपना अस्तित्व पूरा!
इस नकलीपन
को कहीं फेंक दे!
पहनकर सच का चोला
शांति ,सुकून, प्रेम की
त्रिवेणी में झूल झूला।
किसी से क्या सत्य पूछना है!
किसी से क्या सच सुनना है!
जब स्वयं के भीतर बहता
अध्यात्म का पावन झरना है
जो अनिवर्चनीय, अप्रतिम,
शाश्र्वत,अमोघ अभ्यर्थना है।
नदियांँ प्रक्षालन कर
रही है जिसका
खग-विहग,मोर
मगन आलाप कर रहे
यक्ष ,गंधर्व, किन्नर
धरा पर उतर
इन स्वर लहरियों में
संगत दे रहे
सूरज ,चांँद, तारे
उतर रहे करने
आरती सृष्टि की
इस आत्मिक अनुभूति को
चाहिए बस एक सुंदर दृष्टि।
भारतीयता की भाव
अनुभूति विलक्षण है
विराट संगीत,
विराट सत्ता का
स्तुति वंदन है
कण- कण में जैसे घुला
सुनहरा चंदन है
विलक्षण ,अप्रतिम ,
अद्भुत नाद है
हवाओं में मधुरम बज रहा
बांँसुरी का प्रेमराग है,
जो ह्रदय का गीत है
धड़कनों की मौज है
कुछ और नहीं,
सिर्फ अध्यात्म का ओज है
रे आदम कद ! अब बता
फिर तुझे किसकी खोज है!
( साहित्यकार, कवयित्री, रेडियो-टीवी एंकर, समाजसेवी )
भोपाल, मध्य प्रदेश
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