रोज़ जीती हूँ रोज़ मरती हूँ | Roz Jeetee Hoon Roz Marti Hoon
रोज़ जीती हूँ रोज़ मरती हूँ
( Roz jeetee hoon roz marti hoon )
रोज़ जीती हूँ रोज़ मरती हूँ
शम्अ सी रोज मैं तो जलती हूँ
पिघला देती हूँ मैं तो पत्थर को
मैं जो सोचूँ वही मैं करती हूँ
ईंट का दूँ जवाब पत्थर से
मैं कहाँ अब किसी से डरती हूँ
बीत जाता तो फिर नहीं आता
वक़्त के साथ ही मैं चलती हूँ
बेटी होना गुनाह हो जैसे
सबकी नजरों को क्यों मैं चुभती हूँ
तेरी रहमत सदा रहे मुझ पर
बस ख़ुदा इल्तिजा ये करती हूँ
दफ़्न करके जहाँ के ग़म मीना
नित नयी इक ग़ज़ल मैं कहती हूँ
कवियत्री: मीना भट्ट सिद्धार्थ
( जबलपुर )
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