रोज़ उसकी आरजू ये जिंदगी करती रही
रोज़ उसकी आरजू ये जिंदगी करती रही

रोज़ उसकी आरजू ये जिंदगी करती रही

( Roz uski aarzoo ye zindagi karti rahi )

 

 

यार पाने को उसको ही बेकली करती रही

रोज़ उसकी आरजू ये जिंदगी करती रही

 

पर यहाँ चेहरे हज़ारों थे नगर की  भीड़ में

ज़ीस्त उसके फ़ासिलो का मातमी करती रही

 

क़ैद जैसे रूह उसकी रूह से है मेरी तो

रोज़ उससे जिंदगी ये आशिक़ी करती रही

 

वो गया परदेश में जब से मुझे तन्हा करके

पर परेशां ही  बहुत उसकी कमी करती रही

 

पर मुहब्बत की करी कोई न बातें आज तक

तल्ख़ बातें से ज़ख्मी दिल लाज़िमी करती रही

 

भूलना जितना उसे ही चाह दिल से अपने है

रोज़ यादें आंखों में उतनी नमी करती रही

 

पर नहीं इस बार कलियों पे बरसी उल्फ़त बनकर

याद शबनम को चमन की हर  कली करती रही

 

हाथ जितनी बार आज़म ने बढ़ाया यारी का

दोस्ती को मेरी वो ही बेदिली करती रही

 

 

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शायर: आज़म नैय्यर

( सहारनपुर )

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