साक्ष्य
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साक्ष्य

( Sakshya : Hindi Vyang )

महाराज दुष्यंत के युग में वही विधायिका थे, वही कार्यपालिका थे एवं वही न्यायपालिका थे। इस व्यवस्था के कई लाभ थे।

अपराधो को अधिवक्ता नियुक्त नहीं करना पड़ता था।, प्रकरण पीड़ियों नहीं चलता था। व्यवस्था ही एक पीढ़ी की थी तो प्रकरण पीढ़ियों कैसे चलता? और मानवीय न्यायालय के पास ढे़रो मुकदमें नहीं आते थे ।

महाराज एक दिन मुकदमें के इन्तजार में बैठे थे । अपराध पश्चात प्रतिहारी ने द्वारा उचित माध्यम सूचना दी कि महिला न्याय मांगने आई है।

उस वक्त तक महाराज के पास पर्याप्त न्याय एकत्रित हो चुका था अतः वह बांटना ही चाह रहे थे। कोंई महिला न्याय मांगने आई है। यह सुनकर महाराज अति प्रसन्न हुये ।

उनके प्रगतिवादी कदमों का सुफल आने लगा था । जिस तरह आजकल अपराध सिद्ध न होने पर बा-इज्जत बरी किया जाता है उसी तरह उस युग में हर चस्तु सादर प्रस्तुत भी की जाती थी। महाराज ने उस वस्तु को भी सादर प्रस्तुत किये जाने की आज्ञा दी।

एक अनिंद्य सुन्दरी एक सुन्दर बालक के साथ मलयानिल लपेटकर अन्दर आई। महाराज ने सोचा कि बालक को विदेशो में उच्च अध्ययन के लिए भेज कर सुन्दरी को रखा जा सकता है। वह सुन्दरी उस बालक के साथ भी स्चीकार किये जाने योग्य थी।

महाराज ने आपाद मस्तक शहद होकर उस सुन्दरी को शिकायत करने की अनुमति दी उस सुन्दरी ने जवाब दिया। “महाराज यानि महाराज दुष्यन्त ने मुझसे गन्धर्व विवाह किया है।

अतः मुझे स्वीकारे।” महाराज ने न्याय पताका लहराते हुए कहा “सुन्दरी, हमारे राज्य में हर आम  व्यक्ति को न्याय पाने के अधिकार है।

हम आपके कथन से सहमत है। पर क्या आपके पास आपके विवाह का किसी राजपत्रित अधिकारी से अभिप्रमाणित प्रमाण पत्र है।

“महाराज” सुन्दरी ने उत्तर दिया “गन्धर्व विवाह की कोई योजना नहीं बनाई जाती वह तो हो जाता है। अतः उसका कोई प्रमाण पत्र मेरे पास नहीं है ।”

“अच्छा तो इस बालक का जन्म प्रमाण पत्र किसी नगरपालिका से ले आई है।” महाराज मैं जिस आश्रम में पली हॅू वह नगरीय क्षेत्र मे नहीं आता।” उस समय झूठे प्रमाण पत्र नहीं बनते थे।

महाराज धर्म संकट में फंस गये। उस सुन्दरी के पास अनिन्ध रूप के अलावा कोई वैधानिक परिवत्र नही था। जो स्चीकार किया जा सकता।

इतने में न्यायपीठ के एक सदस्य ने मूर्खता पूर्ण प्रश्न किया। यह बालक उस गन्धर्व विवाह की परिणति है या इस बालक के होते हुए भी आपने गन्धर्व विवाह किया था ? “यह एक असम्बन्ध प्रश्न है पीठाधीश ने छड़का –

अधीनस्थ पद सकपका गया दूसरे पद ने प्रश्न किया – आपकी मां का क्या नाम है ?

“जी मेनका।” यह सुनकर दरबार में सनसनी समाहित हो गई जो चार पाॅच ज्ञात सुन्दरियांॅ राज्य में थी वे तो उसके सामने ठहरती ही न थी हो न हो वह मेनका की पुत्री ही होगी।

अब पिता के नाम का प्रश्न उपस्थित हुआ। वह कव्व के आश्रम में आई जरूर थी पर कव्व ने स्वयं दरबार में उपस्थित न होकर उनकी असम्बद्धता एवं दरबार के प्रति उनकी निष्ठा स्पष्ट कर दी थी।

महाराज, सह मुख्य न्यायाधीश सह मुख्य प्रशासक ने पूछा –

कृपया आपके पिताश्री के बारे में कुछ प्रकाश डालें।

वह सुन्दरी जो अब तक शकुन्तला के नाम से जानी जा चुकी थी, बोली –

“जी मुझे मेरे पालक श्री कव्व ने बतलाया था कि उनका नाम महर्षि विश्वामित्र है।” भय के कारण आधा दरबार इधर एवं आधा उधर सरक गया। अब किसमें इतना साहस था कि उस सुन्दरी को श्रीमती दुष्यन्त बनने से रोके।

महाराज दुष्यन्त ने अभी तक कोई ऐसा कार्य निष्पादित भी नही किया था जो उन्हें इतिहास में अमर कर दे। अतः उन्होने सोचा कि वह उस सुन्दरी को अपना कर अवश्य अमर हो सकते है।

प्रकट ने उन्होने कहा “सुन्दरी हमने वाद एवं प्रतिवाद दोनों में मानसिक विचरण कर लिया पर निर्णय हम सुरक्षित रखते है। कुछ समय पश्चात् निर्णय देंगें।

अभी आपके निकट कोई स्पष्ट साक्ष्य नही है। अतः न्यायपालिका यह उत्तरदायित्व भी लेती है कि आपको साक्ष्य निर्माण कर देवे। आप निश्चित होकर बालक को बड़ा कीजिये।”

और इतिहास साक्षी है कि इस प्रकरण में स्वयं न्यायपालिका ने साक्ष्य बना कर प्रस्तुत किया था।

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लेखक : : डॉ.कौशल किशोर श्रीवास्तव

171 नोनिया करबल, छिन्दवाड़ा (म.प्र.)

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