
वक्त की आवाज
( Waqt ki awaz hai ye : Geet )
वक्त की आवाज है ये, समय की पुकार भी।
तोड़े नियम सृष्टि के, नर कर लो स्वीकार भी।
चीरकर पर्वत सुरंगे, सड़के बिछा दी सारी।
वृक्ष विहिन धरा हुई, बरसी भीषण बीमारी।
कहर कुदरत का बरसा, तिरोहित हुआ प्यार भी।
वक्त की आवाज है ये, समय की पुकार भी।
अतिथि को देव मानते, पत्थर को भगवान यहां।
खुदगर्जी में अंधा हो गया, कितना इंसान यहां।
भागदौड़ से भरी जिंदगी, लुप्त हुए संस्कार भी।
वक्त की आवाज है ये, समय की पुकार भी।
कहां गया वो अपनापन, जोश जज्बा हौसला।
मुस्कान लबों की खोई, भीड़ में भी नर अकेला।
प्रेम की बहती गंगा में, दिखावे का बाजार भी।
वक्त की आवाज है ये, समय की पुकार भी।
स्नेह के मोती लुटाओ, प्रेम की गंगा बहा दो।
वक्त के मारे मिले जो, आगे बढ़ गले लगा लो।
दो दिन की जिंदगी में, अब कर लो बेड़ा पार भी।
वक्त की आवाज है ये, समय की पुकार भी।
कवि : रमाकांत सोनी
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )