स्वर्णिम साँझ सवेरे | Sanjh Savere
स्वर्णिम साँझ सवेरे
( Swarnim sanjh savere )
टकराती हैं शंकित ध्वनियाँ ,
ह्दय द्वार से मेरे ।
अभिशापित से भटक रहे हैं ,
स्वर्णिम साँझ-सवेरे ।।
विकल हुईं सब जोत-सिद्धियाँ,
किसके आवाहन में
एक अनोखा जादू छलता ,
मन को सम्मोहन में
ठहर गया है ह्दय-द्वार तक ,
कोई आते -आते
चँहक उठी है पीर ज्वाल सी ,
मादक मलय पवन में ।
जिज्ञासित अनुरक्त पुजारी ,
कब तक माला फेरे ।।
टकराती हैं——
शेष आज भी मिलन पर्व की ,
झाँकी है सपनों में
खिला हुआ है दिव्य-लोक का,
ह्दय-कमल नयनों में
सौंप चुका है सुधियाँ इतनी ,
मन को आते-जाते
निर्जन में भी लगता है मैं ,
बैठा हूँ अपनों में
ह्दय-पटल पर उसने अपने ,
इतने चित्र उकेरे ।।
टकराती हैं——
विरह-व्याल ने ली अंगड़ाई ,
अभिलाषित आँचल में
जीवन निधियाँ हुईं विसर्जित,
सब गीले काजल में
इस उत्सव में कैसे यह मन ,
मधुरिम गीत सुनाये
धधक रहीं हों जब जीवन की,
श्वासें विरहानल में
व्याकुल मन कब तक अधरों से,
सौरभ राग बिखेरे ।।
टकराती हैं ——–
हर एक निशा तम घेरे है,
हर दिन है दुखदाई
सूने मरघट में साग़र यह,
किसने अलख जगाई
बीत रहा है जीवन अब तो,
हर क्षण आँसू पीते
क्यों असीम इस अंतराल में,
मुझको टेर लगाई
विचर चुके जब नील गगन में,
मन पाखी बहुतेरे ।।
टकराती हैं———–।
अभिशापित से——-।।
कवि व शायर: विनय साग़र जायसवाल बरेली
846, शाहबाद, गोंदनी चौक
बरेली 243003
मुदाम–निरंतर, हमेशा