
संसय
( Sansaya Kavita)
मन के रावण को मारे जो, राम वही बन पाएगा,
वरना सीता को रावण से, कैसे कौन बचाएगा।
कुछ नर में रावण बसते है, कुछ नारी में सूर्पनखा,
संस्कार को त्याग दिया तो, धर्म को कौन बचाएगा।
दीपक के जलने से बुझता, अन्धकार रूपी माया,
मन मे जगता ज्ञान तो मिटता, काम क्रोध रूपी छाया।
संसय मन विचलित कर देता, संयम त्याग दिया जबसे,
मन का रावण जग जाता है, अनाचार जबसे भाया।
हूक मिटे हुंकार जगे, तपता मन हो निर्मल काया।
गंगा गौधन राम रमे है, भारत की जगती आभा।
आओ मन के रावण को, हम खुद ही मार गिरा दे,
सकल जगत कल्याण करे, प्रभु राम का ऐसा हो जामा।
कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )