शरद वेदना (ककहरा) | Kahkara sharad vedna
शरद वेदना (ककहरा)
( Sharad Vedna – Kahkara )
कंगरी सगरी लघु नीर भई
बदरी छतरी बनि धावत है।
खटिया मचिया सब ढील भये
हथिया बजरी पसरावत है।
गरवा हरवा जस बंध लगे
बिछुवा पग चाल बढ़ावत है।
घुंघटा लटका छटका न टिका
पवना सर से सरकावत है।।
चमकी चमके बहुत घाम भये
बनकास सफेद फुलावत है।
छोटका मोटा देवरा हमरा कछु
बोलि के नाहीं लजावत है।।
जबहि सुधि आवत पावत न हम
सगरन आंसु चुवावत है।
झुमकी ठुमकी न लगे मनकी
नुपुरा घुंघुरा घुंघुंरावत है।।
टूटही मड़ई घर में मनई
सखियां सब लाल खेलावत है।
ठनकी सनकी ननकी ननदी
हर बात बात लड़ावत है।
डेहरी धरि बैठे हैं सास ससुर झकि
झांकि के ताक लगावत है।
ढरकी अंखियां फरकी बहियां अब
काहें नहीं पिया आवत है।।
तगड़ी रतिया सब हैं घतिया
कुतवा बहुजोर लगावत है।
थकती तकती हम जात मरी
अब काहे न आई बचावत है।
देखत तरसत बरखउ बीती
अब शरद भी शेष बितावत है।
लेखक: शेष मणि शर्मा “इलाहाबादी”
प्रा०वि०-बहेरा वि खं-महोली,
जनपद सीतापुर ( उत्तर प्रदेश।)
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