कौन समझे यहां पर जुबां प्यार की।
कौन समझे यहां पर जुबां प्यार की।

कौन समझे यहां पर जुबां प्यार की

( Kaun samjhe yahan par zuban pyar ki ) 

 

कौन समझे यहां पर जुबां प्यार की।
रौनकें खो गई सारी गुलजार की।।

 

हर तरफ तल्खियों का है मौसम सदा।
छा रही है बहारें यहां ख़ार की।।

 

छल-कपट से भरा हर बशर है यहां।
बात सारे करें सिर्फ तकरार की।।

 

भूख दौलत की मिटती नहीं है कभी।
बस यही है कहानी इस संसार की।।

 

वजह बिन ही कलह रोज होता’कुमार’।
बात होती नहीं है कभी सार की।।

 

लेखक: * मुनीश कुमार “कुमार “
जींद (हरियाणा)

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