हिन्दी के अन्तर के स्वर
हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा मान्य किये जाने के लिये १९७५ में लोकसभा में प्रस्तुत प्रस्ताव अमान्य कर दिये जाने के क्षोभ और विरोध में “हिंदी के अंतर के स्वर” शीर्षक रचना लिखी गई।१९७६ में मारीशस के द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन में यह रचना प्रस्तुत हुई तो यह वहाॅं प्रशंसित और अभिनन्दित हुई।इस रचना के कारण वहाँ हुए विमर्ष के बाद हिन्दी सम्मेलन ने पत्र द्वारा भारत सरकार सेअनुरोध किया कि हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा मान्य करने के उपाय किये जावें।
जन गण मन में सजे तिरंगे ध्वज रंगों में
एक अबूझे अपनेपन का परिचय मिलता!
शक्ति,शौर्य,गरिमा पूरित है राष्ट्र चिन्ह जो
त्याग अहिंसा मानवता के दर्शन भरता!
राष्ट्र – गीत रोमांचक राष्ट्र वंदनाओं में
भारत भू के वृहद रूप का वर्णन करता!
हर प्रतीक इन में आदर्शों को धारित कर
बान्ध रहा जन-गण में अपनेपन के बंधन !!
किन्तु देश के स्वाभिमान का आजादी का
किन्तु देश कीआजादी का स्वाभिमान का
इनसेपहले का प्रमुख प्रतीकअभी तक भी
अपना मान नहीं धारण करने पाया है
अब तक भी है रिक्त राष्ट्रभाषा का आसन !!
निज पुत्रों से बने संचलित संविधान में
सात दशक से सतत तिरस्कृत रहने वाली
भावों की भाषा- हिंदी के अंतर के स्वर
व्यक्त कर रहे अपनी पीड़ा और वेदना
इस भारत भाषा हिन्दी की व्यथाकथा का
अनजानाअनसुना रहाहै मौनकरुण क्रंदन !!१
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यह उस आहत मन की पीड़ा निसृत होती
जिसके माध्यम परिचय होता हर पीड़ा से!
जिस साधन से भाव सभी पहचाने जाते
जिससे मिलती अभिव्यक्ति हरअनुभूति को
जो बांधा करती है राष्ट्र समाज धरा को
जिसके कारण जुड़ता है मानव मानव से!
जो जिव्हा को, मस्तिष्कों कोऔर ह्रदय को
सभी कामनाओं को, सारे अनुरागों को
एकाकार किया करती निज समरसता से
पूर्ण किया करती मानव की हर अपूर्णता!
शंका और समाधानों – ज्ञानों – विज्ञानों
विस्तारों को और अपरिचय व्यवधानों को
जिसके रथचढ़ पार किया करता मानवमन
ग्राम नगर औ’ प्रांत राष्ट्र बनते हैं जिससे!
केवल अक्षर नहीं समाहित होते इसमें
प्राण प्राण युग युग बहते हैं इस निर्झर में
करते शब्दों और प्रतीकों भावों के स्वर
इसमें अरूप अव्यक्त निराकारी अवगाहन !!२
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हिंदी – हिंदुस्तानी – भारति ! भारत माता !
कहती- अब तो समझो पुत्रो मुझसे नाता
कब तक मेरा यह मातृत्व और सुलगेगा
मेरा रोम – रोम, अक्षर – अक्षर अकुलाता !
सात दशक से अधिक प्रतीक्षारत बैठी मैं
मेरे स्तन मेरे आंचल भारी भारी
और तुम्हारे अधर क्षुधित सूखे सूखे हैंं !
कब मेरे ऑंचल की छाया अपनाओगे?
कब मां ! कहके मुझकोतुमसब दुलराओगे?
कब मेरी ममता को अमृत कह पाओगे?
मेरे तुम से सौतेले संबंध नहीं हैं
“जननी जन्मभूमि”की महिमा मुझसे निसृत
” स्वर्गादपि गरीयसी” वह मुझसे ही होती!
जाने कब यह मेरा सोया भाग्य जगेगा
मुझको भारत भाषा का सम्मान मिलेगा
हिमचल से उस गर्जितोर्मि सागर के तटतक
कहलाएगा यही राष्ट्र हिन्दी का ऑंगन !!३
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कब समझोगे जो मेरा विस्तार हुआ है
वह साम्राज्यवादिता नहीं प्यार है मेरा
सुगम सहजऔ’ सरल स्नेह की पूजा है वह
जिसको इस धरती के कणकण ने पाया है !
युग ने कोने कोने जिस के बीज बिखेरे
जिसके दर्पण में भारति के अंचलस्वर भी
ऐसे चित्र बने जिनको तुम कहते भाषा
किंतु मिली है मुझको केवल गहननिराशा!
जब गणतंत्र बना कुछ ने यह सच जाना था
एक वचन भी दिया न तबजो अनजाना था
मैंने -माॅं ने-अपने बेटों की इच्छा सुन
सोचा पन्द्रह बरस रहूंगी वनवासी मैं!
किंतु बरस पन्द्रह क्या गुजरे सात दशक हैं
और न जाने कितने बीत जाएंगे आगे
कब मेरे बेटों की मातृ भावना जागे
जाने कब भारत जन गण मुझको पहचाने
मुझे राष्ट्र की भाषा समझे जाने – माने
जाने कब तक और मुझे रहना है उन्मन !!४
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किसी देश की सारी संस्कृति और सभ्यता
का भाषा परिप्रेक्ष्य हुआ करता निर्माणी
जन जन या स्थानों की ही नहीं मात्र वह
भाषा युग युग इतिहासों की होती वाणी
राजनीति या अर्थ, ज्ञान- विज्ञान सभी की
नीति धर्म सबकी आधारा यह कल्याणी!
इससे है आरंभ विकासों की हर गाथा
इसका आदर सबका ऊॅंचा करता माथा
जिन जन परिवेशों में नहीं हुआ करती है
निज की स्वत्व पूर्ण राष्ट्रभाषा यदि कोई
उनका बुद्धि विवेक सदा कुंठित रहता है
निजता और स्वतंत्रता की हत्या सहता है!
समय शेष है समझो इतिहासों की भाषा
या स्वीकारो फिर सदियों की घोर निराशा
निश्छल निर्मल प्राणों जनजन के ह्रदयों के
अब तो अपने कर्तव्यों को पहचानो तुम!
समझो इस भारति को और समर्पण करदो
उठकर अपने स्वत्व सुनो इसका आवाहन !!५
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देखो तो मित्रो ! इसका स्वरूप कैसा है !
इसमें गंगा की लहरों की कल कल ध्वनि है
इसमें मंदिर के घंटो की आवाजें भी
और उन्हीं के साथ गूॅंजती पाओगे तुम !
हर मस्जिद से उठती रोज अजानों को भी
गिरिजाघर के गीतों के सामूहिक स्वर भी
एक ओर पाओगे अनहद नाद निनादित
और दूसरीओर”अनलहक” के स्वर कोभी!
इसमें राम – कृष्ण – ईसा – पैगंबर सारे
शुभ्र हिमालय का इसमें सौंदर्य मिलेगा
बिखरी आद्योपांत हरीतिमा भी दीखेगी
यमुनाऔर जलधि की मोहक मधुर नीलिमा
विंध्याचल की बिखरी है केसरिया घाटी
और मालवा की यह श्याम सलोनी माटी!
त्याग शौर्य शोणित के रंग उभरते पल पल
इसमें हर भारत भाषा के प्राण समाहित
बहती रक्त सम्मान सभी अड़तीस प्रांत में
भारत भू की यह ही भाव धरा है पावन !!६
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जब-जब बात राष्ट्र भाषा की चल पड़ती है
वह अक्सर कहने सुनने की ही होती है!
लोग सुना करते हिंदी के मन की पीड़ा
कवि सम्मेलन , मंचों पर रचनाएं आती
नए विचार गोष्ठियों के आयोजन होते
कुछ अति उत्साही सड़कों पर भी आ जाते!
फिर उत्तर की प्रतिक्रिया होती दक्षिण में
फिर दक्षिण की प्रतिक्रिया होती दिल्ली में
कोई बड़ा राज नेता अपनी परवशता
लंबे चौड़े शब्दों में समेट कर कहता
“इसे राज्य ही देखें समझे औ’ सुलझाऍं”!
और राष्ट्र के विपुल बहुल जन की यह भाषा
अंगीकार नहीं कर पाती वह परिभाषा
जिससे इसे राष्ट्रभाषा “संविधान” कह सके
यही कम नहीं जो कुछ भी हिंदी ने पाया
एक बरस में एक दिवस तो करते गायन !!७
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विचलित करने वाली आवाजों में ढल कर
फूट और अलगाव सामने आ जाते हैं
पंजाबी कश्मीरी मिजो गोरखा बन कर
सुंदर सपनों के भारत से टकराते हैं!
खुले आम पाता है राष्ट्र – गीत अनादर
परसंस्कृति करदेती निजसंस्कृति की हत्या
ऊंच – नीच, विद्वेष और कटुता से उपजे
संघर्षों की आग भड़कती ही जाती है!
कर्नाटक महाराष्ट्र कभी टकरा जाते हैं
और कभी दिल्ली घिर जाती है शोलों में
गहराई से सोचो यदि इन सब का कारण
पाओगे सब अंगों में संवाद ना होना!
नहीं समझता कोई मराठी को केरल में
कन्नड़ तमिल और मलयालम को उत्तर में
पंजाबी तो झगड़ों की भाषा लगती है
बंगाली अनबूझ रहा करती गोवा में
स्नेहिल राखी के भावों की भाषा ही
इन्हें बांध सकती है सहज और मृदु बंधन !!८
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वृक्ष अगर ऊंचा होता दृढ़ आधारों पर
उसके साथ लताएं भी ऊंची होती हैं!
नीचे रेंग – रेंग कर आगे बढ़ने वाली
कोमल – निर्बल काया की होने पर भी वे
उस पर चढ़”आकाश” चूमने चल पड़ती हैं!
इसी तरह यदि हिंदी का आधार पुष्ट कर
उसे वास्तविक राष्ट्र- प्रतीक बना पाए हम
संविधान में प्रथम और सर्वोपरि आदर
और राष्ट्रभाषा की सच्ची संज्ञा दे कर
केरल से कश्मीर- मिजोरम से गोवा तक
के विस्तृत नक्शे में इसआत्मीय स्वरूप को
सर्वमान्य भारत माता सा अपना लें यदि
तो विकास के उन विराट लक्ष्यों के पथ तक
असम्बन्ध के और अपरिचय के जंगल से
स्नेहों का अपनेपन का मार्ग पकड़कर
कोटि कोटि जन सतत निरंतर बढ़ सकते हैं !
युगों युगों इस जन गण ने परखी हर भाषा
लेकिन केवल हिंदी ही निकली है कंचन !!९
कवि : मनोहर चौबे “आकाश”
19 / A पावन भूमि ,
शक्ति नगर , जबलपुर . 482 001 ( मध्य प्रदेश )
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