सच्ची स्वतंत्रता आएंगी – योग से
पूरे देश में स्वतंत्रता के 78वीं वर्षगांठ मनाई जा रहा है। हमें इस विषय पर चिंतन करने की आवश्यकता है। क्या हम स्वतंत्र हैं?
स्वतंत्रता का अर्थ है अपना तंत्र, अपना कानून, अपना नियम। देखने की आवश्यकता है कि क्या हम अपने बनाए हुए नियम कानून पर चल पाते हैं।
वास्तव में देखा जाए तो हमारा संपूर्ण जीवन गुलामी में गुजरता है। ना हम शारीरिक रूप से, ना मानसिक रूप से, ना सामाजिक रूप से, ना धार्मिक रूप से, ना आध्यात्मिक रूप से, हम किसी भी प्रकार से स्वतंत्र नहीं है। गुलामी हमारी मानसिकता में ऐसी बैठ गई है कि हम चाह कर भी उससे निकल नहीं पा रहे हैं।
शारीरिक रूप से स्वतंत्र होने का अर्थ है कि क्या हम अपने शरीर की आवश्यकता अनुसार आहार विहार करते हैं। लेकिन देखा जाए तो हम ऐसा नहीं करते एक प्रकार से हम अपनी आदतों के गुलाम होते हैं।
आदतों की गुलामी के कारण आजकल कोई भी व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ मिलना मुश्किल है। हम चाहते हैं कि हमें शुद्ध आहार मिले लेकिन समाज में इतनी मिलावट खोरी व्याप्त हो चुकी है चाह कर भी हमें शुद्ध आहार नहीं मिल पाता।
इस प्रकार से स्व पर नियंत्रण न होने के कारण आज संपूर्ण मानवता बीमार हो चुकी है। आज का मनुष्य इतना तनाव से ग्रस्त हैं कि उसका स्व पर नियंत्रण खत्म हो चुका है ।
यही कारण है कि तनाव की स्थिति में वह दिनभर खाता रहता है । जहां मिलता है वहीं मुंह मार देता है। जिसके कारण वह विभिन्न प्रकार की शारीरिक बीमारियों की चपेट में आ जाता है।
इसी प्रकार से वह सामाजिक रूप से भी स्वतंत्र नहीं हैं।समाज जैसा चाहता है वैसा उसे नचाता है। हमारा सामाजिक ढांचा मनुष्य को गुलाम बनाने की है। इस समाज में स्वतंत्र व्यक्ति घातक होता है ।
यही कारण है कि संपूर्ण समाज के लिए स्वतंत्र व्यक्ति एक चुनौती बन जाता है। गुलाम समाज को लगता है कि यह व्यक्ति हमारे लिए घातक है। सच्ची स्वतंत्रता व्यक्ति को योग के माध्यम से ही प्राप्त हो सकती है।
जब व्यक्ति योग ध्यान करता है तो उसके अंदर से सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है। ऐसा व्यक्ति किसी पर अधिकार नहीं जमाना चाहेगा । वह सब की भावनाओं की कदर करता है। एक स्वस्थ समाज की संरचना के लिए योग से सुंदर माध्यम दूसरा कोई नहीं हो सकता है।
इसी प्रकार से धार्मिक रूप से भी व्यक्ति गुलाम होता है । जिस प्रकार के वह धर्म को मानता है उसके धर्मगुरु उसे उसी प्रकार से नचाते हैं। एक प्रकार से धार्मिक रूप से व्यक्ति अपने धर्म गुरुओं का गुलाम होता है।
वह अपने धर्म की बात को ही श्रेष्ठ मानता है और अक्सर देखा गया है कि वह दूसरे के धर्म को घृणा की दृष्टि से देखता है। यही कारण है कि जितने लोग दुर्भिक्ष अकाल में नहीं मरते उससे ज्यादा लोग धार्मिक दंगों में मारे जाते हैं।
उसका वर्तमान उदाहरण बांग्लादेश आदि देशों में देखा जा सकता है जहां पर दूसरे धर्म से घृणा के कारण उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है। धार्मिक रूप से सत्य , अहिंसा, भाईचारा आदि की बातें मात्र दिखावे की है।
यदि किसी धर्म में प्रेम दया करुणा है तो वह केवल अपने विचारों के मानने वालों के लिए ही क्यों है? क्यों लोग दूसरे के धर्म से इतनी घृणा रखते हैं ? यह समझने वाली बात है।
दूसरे धर्म के विचारधारा के लोगों को प्रताड़ित करना, उनके धार्मिक स्थलों को तोड़ना- फोड़ना यदि धर्म है तो आखिर अधर्म क्या है? यह तो कुछ वैसी ही बात हुई कि मन में राम बगल में छुरी।
योग धार्मिक रूप से स्वतंत्र बनाता है। योग ध्यान करने वाला व्यक्ति कभी दूसरे धर्म के लोगों से घृणा नहीं करता है। यदि उसके मन में सभी धर्मों के प्रति करुणा की भावना ना जगे तो वह योग नहीं पाखंड कर रहा है।
पता नहीं वह कैसे लोग हैं दिन-रात भगवान की पूजा करने वाले, पांच बार नमाज पढ़ने वाले भी एक दूसरे के धर्म से इतनी घृणा कैसे कर लेते हैं? ऐसे लोग धार्मिक रूप से अभी बहुत पीछे हैं। उन्होंने धर्म के मर्मों को समझा ही नहीं।
योग तो प्रेम लाता है। योग से करुणा का जन्म होता है। अहिंसा का जन्म होता है। इसलिए जीवन में शांति पानी है तो योगी बनकर ही पाया जा सकता है।
योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )