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जिन्दगी | Zindagi

जिन्दगी

( Zindagi )

 

हमेशा तो ये नहीं होता कि जो हम चाहें, जिन्दगी वैसे ही चले।
उतार-चढ़ाव जीवन का हिस्सा है।

धीरे-धीरे हम शिकायतें करना बंद कर देते हैं। हर हाल मे ऐसा अनुभव करने लगते हैं, जैसे जो भी चल रहा है, ठीक है।

हम ठीक हैं।
होना कोई नहीं चाहता, लेकिन होना पड़ता है ऐसा भी।

सदा के लिए तो यहाँ कुछ भी नहीं होता।
लोग, चीज़ें, और रिश्ते, सब कुछ छूट जाने के लिए ही बने हैं। और यही होना भी चाहिये, हम इन्हें कमाने तो वैसे भी नहीं आये हैं यहाँ।

कभी माँ साथ न हो, तब भी हमें अपना लंच बॉक्स तैयार कर के खुद बैग मे रखना पड़ता है।
कभी पापा से दूर हों, तो भी बिना देर किये, समय से घर आना पड़ता है।

कोई साथ न हो, तो भी खुद का सर सहला कर सुलाना पड़ता है खुद को।
और किसी और को तकलीफ न हो, इसलिए खुद की जिम्मेदारी भी खुद लेनी पड़ती है।

जो जितना साथ छोड़े, उसका भी आभार,
जो जितना निभाए, उसके लिए भी शुक्रिया।
जिन्दगी सिर्फ़ सफर बन कर रह जाती है कभी-कभी।
हमको जाना कहीं नहीं होता, फिर भी निरंतर अपनी धुन मे चलना होता है।

स्वाभाविक तौर पर, बिना कोई द्वेष, घृणा या अपमान को सहे, प्रेम और दया को अपने मन मे लेकर, चलते रहना होता है।

क्यों कि कोई किसी के बिना रुकता नहीं है। सबका अपना-अपना रास्ता है।
जिस रिश्ते की जितनी उम्र होगी, वो उतना साथ रहेगा, और फिर बिछ्ड़ेगा।
और जब हम इस बात को मानना सीख जाते हैं, फिर कोई आये, रहे, जाये,, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

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रेखा घनश्याम गौड़
जयपुर-राजस्थान

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