मध्यकालीन हिंदी भक्त कवियों में तुलसीदास जी संभवत ऐसे कवि थे जिन्होंने व्यवस्थित साहित्य का सृजन किया। उनका जन्म संवत् 1554 की श्रवण सप्तमी के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ था।कहा जाता है की बचपन में ही उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई थी ।वह द्वार द्वार रोते बिलखते भीख मांगा करते थे।

जिसका वर्णन उन्होंने कवितावली में स्वयं किया है–
बारे तै ललात बिललात द्वार द्वार दीन। कवितावली, उत्तर. ७३

उनकी शादी रत्नावली से हुई थी। जिससे उनका जीवन कुछ व्यवस्थित हुआ ।परंतु एक बार मायके जाने पर वे उसके मायके पहुंच गए। कहा जाता है कि उस दिन जोरों की आंधी तूफान आए और अंधेरे में मुर्दे पर बैठकर वे नदी पार कर गए और जब घर पहुंचे तो सांप को रस्सी समझकर घर में कूद गए ।पत्नी ने जब ऐसा देखा तब उसने फटकार लगाते हुए कहा–
हाड़ मांस की देह ,ममता पर जितनी प्रीति ।
किसी आंधी जो राम प्रति ,अवसि मिटहि भवभीति।।

पत्नी के द्वारा इस प्रकार के फटकार को सुनकर उनका संसार से विरक्त हो गया। गृहस्थ से विरक्त होने के पश्चात कासी चले गए। कहा जाता है कि यहीं पर वे राम कथा कहने लगे । कहते हैं कि यहीं पर उन्हें हनुमान जी महाराज के दर्शन हुए ।

हनुमान जी से मिलने के पश्चात उन्होंने राम जी से मिलने की इच्छा जताई । हनुमान जी ने कहा तुम्हें चित्रकूट में रघुनाथ जी के दर्शन होंगे। यह सुनकर वह चित्रकूट आकर रहने लगे। कहां जाता है कि संवत् 1607 की मौनी अमावस्या के दिन श्री राम प्रकट हुए ।उन्होंने बालक रूप में तुलसीदास जी से कहा,-” बाबा हमें चंदन दो हनुमान जी ने सोचा कहीं तुलसीदास जी धोखा ना खो जाए इसलिए उन्होंने तोता का रूप धारण कर कहा ,–
चित्रकूट के घाट पर ,भई संतन की भीर ।
तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक देत रघुवीर ।।

तुलसीदास जी ने भगवान के उस दिव्य स्वरुप को देखकर अपने सुध बुध भूल से गए। भगवान ने अपने हाथों से लेकर तुलसीदास जी को एवं स्वयं चंदन लगाया। तथा अंतर ध्यान हो गए। कहते हैं कि इसके पश्चात तुलसीदास जी ने बहुत सी रचनाओं की और जीवन के सातवें दशक में रामचरितमानस की रचना कर अपने आराध्य को जन-जन का बना दिया।

जिस कालखंड में तुलसीदास जी का जन्म हुआ था उस समय भारत में मुगलो का राज था। जिन्होंने बेरहमी के साथ हिंदुओं के कत्लेआम करवाया ।लूटपाट की। बलात्कार किया और जजिया कर लगाया। उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि राजा ईश्वर का अंश होता है। ऐसे में लूटती पिटती जनता कैसे बगावत कर सकती थी।
उन्होंने मानस में लिखा है —
ईस अंश भव परम कृपाला।( मानस बाल.२८/८)

भगवान राम ईश्वर के अवतार थे फिर वह जगत के कल्याण के लिए अवतार लेते । लेकिन तुलसी के राम केवल ब्राह्मण, गौ ,देवता और संत के लिए ही अवतार लिया। ऐसी स्थिति में तुलसीदास जी ने भगवान राम के ईश्वर के स्वरूप को नकार दिया।
वे लिखते हैं–

विप्र ,धेनु ,सुर ,संत हित ,लीन्ह मनुज अवतार।( मानस.बाल.१९२)।
तुलसीदास जी यदि थोड़ी और दयालुता दिखाते तो कह सकते थे–
सकल जीव कल्याण हित, लीन्ह मनुज अवतार।।
इससे भगवान राम का स्वरूप और निखर जाता।

संपूर्ण रामचरितमानस को पढ़े तो उसमें यही दिखाई देता है कि जातिवाद को बढ़ावा दिया गया है। इसका कारण यह था कि मुसलमान के काल तक आते-आते हिंदुओं में जाति भावना की बेढियां ढ़ीली होने लगी थी । जिसके फल स्वरुप तथाकथित श्रेष्ठ जाति का थोपा गया मान घटने लगा था।

अपना धंधा बनाए रखने के लिए जरूरी था कि लोगों की भावनाएं उभार कर फिर से उन्हें जातिवाद की संकीर्णता में जकड़ा जाए। इसीलिए उन्होंने जाति का अपमान सबसे बढ़ कर कठिन माना है।–
जद्यपि जग दारून दुख नाना, सबसे कठिन जाति अवमाना।
(मानस,बाल.६३/७)
यही कारण है कि वह कहते हैं–
सापत ताडत परुष कहंता। विप्र पूज्य अस गावहि संता।
पूजिय विप्र सील गुन हीना,
शूद्र न गुन गन ज्ञान प्रवीना।।
( मानस, अरण्य.३४/१-२)
अर्थात ब्राह्मण चाहे शाप दे या कटु वचन कहे तो भी वह पूज्य होता है। ब्राह्मण शील और गुणों से हीन हो तो भी उसे पूजना चाहिए और शूद्र गुण और ज्ञान में निपुण हो तो भी उसे नहीं पूजना चाहिए ऐसा संत पुरुष कहते हैं।

इस प्रकार से हम देखते हैं कि तुलसीदास जी महाराज श्रेष्ठ भक्त कवि होते हुए भी जातिगत श्रेष्ठता से ऊपर नहीं उठ पाए। उनके साहित्य का उद्देश्य वर्णाश्रम व्यवस्था को स्थापित करना था। इसके लिए आवश्यक था कि किसी जाति को उच्च और किसी को नीचे और अधम सिद्ध किया जाए। जिसमें वे बहुत हद तक सफल भी हुए।

 

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

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