वैभव असद अकबराबादी की ग़ज़लें | Vaibhav Asad Poetry
फ़िर वही सब किया तो सुन बैठे
फ़िर वही सब किया तो सुन बैठे
इक परी-रू के ख़्वाब बुन बैठे
उसकी पायल की छनछनाहट यार
साज़ पर किस तरह ये धुन बैठे
साफ़ सुधरी सी ज़िंदगी जीना
बड़ी कमबख़्त राह चुन बैठे
इश्क़ वालों को इश्क़ से मतलब
उनको क्या करना कितने गुन बैठे
मुस्कुराए तो खिल उठे क़िस्मत
रूठ जाए तो अपशगुन बैठे
बात तो तब करें असद जी जब
जी में चलती उधेड़ बुन बैठे
कभी तस्वीर कभी कुर्सी या गुलदान की ओर
कभी तस्वीर कभी कुर्सी या गुलदान की ओर
घर से जाते हुए आँखें रहीँ सामान की ओर
लाख हों नुक़्स मगर अपना तो अपना है ना
हक़ का पलड़ा नहीं झुकता कभी अंजान की ओर
शोख़ियाँ हुस्न की देखीं तो सभी दौड़ पड़े
जानते होते तो क्या भागते ज़िंदान की ओर
आगे भड़ती ही गई दुनिया कि दुनिया दारी
पीछे देखा नहीं बच्चों ने भी मैदान की ओर
कौन पूछेगा हिफ़ाज़त में अगर मर भी गया
देखता कौन है आख़िर किसी दरबान की ओर
जी ने चाहा तो था चेहरे ही को पूरा पढ़ लें
ध्यान अटका रहा बस आपकी मुस्कान की ओर
इक हक़ीकत के न होने का जो इमकां है ‘असद’
एक मुद्दत से हैं माइल उसी इमकान की ओर
श्वान-व्यथा ( दर्द-ए-कुत्ता )
हम इंद्रप्रस्थ के रखवाले,
यह धरा हमारे पुरखों की ।
हमने देखे हैं कई बार,
शासन-सत्ता सुर-असुरों की ।।
हमने खिलजी को देखा है,
देखा है बिन तुगलक़ को भी ।
देखा है औरंगज़ेब और
गज़नी, ग़ोरी, ऐबक को भी ।।
तैमूर लंग जैसा घातक,
नादिर शाह भी देखे हैं ।
अब्दाली से अंग्रेजों तक,
की सत्ता नयन निरेखे हैं ।।
अब उनकी सत्ता आई है,
जो विश्व-प्राणि का हित चाहे ।
पूरी दुनिया परिवार कहे,
“सर्वे भवन्तु सुखिनः” गाए ।।
जो पुरा, मध्य और मुगल वंश
अंग्रेजों ने होने न दिया ।
मनु, धर्मराज, गांधी तक भी
कुत्तों को कभी रोने न दिया ।।
सबसे पहले हम स्वर्ग गए,
युधिष्ठिर के भी आगे-आगे ।
वे लोग बताएं—आवारा
जिनकी रक्षा में निशि जागे ।।
हम कुत्ते हैं या आप श्वान,
इसका भी सनद किया जाए ।
आवारा अपराधी है कौन,
बेझिझक हिसाब किया जाए ।।
हम खुले आम पेशाब करें,
दीवारें आप भी रंगते हो ।
हम नंग-धड़ंग विहार करें,
तन कहाँ आप भी ढकते हो ।।
हम बेपर्दा संभोग करें,
पर आप कहाँ पीछे रहते ?
होटल, उद्यान, हाइवे पर,
धाकड़ कुकर्म करते फिरते ।।
हम अपनी बहन बेटियों की
पीड़ा तक देख नहीं सकते ।
हे मनुज! सुनो, हम श्वान कभी
बच्चियों का रेप नहीं करते ।।
घुसख़ोर कौन? बेईमान कौन?
हरता दिल्ली का मान कौन?
दिल्ली के मालिक बतलाओ—
हम श्वान, मगर शैतान कौन?
सिर्फ़ मेरे फ़ायदे की बात है
सिर्फ़ मेरे फ़ायदे की बात है
फिर तो ये आधी अधूरी बात है
क्या हुआ बदलाव का आया नहीं
छोड़िए काफ़ी पुरानी बात है
मान तो लेता मैं तेरी बात पर
बात मत करना ये कैसी बात है
वक़्त है अच्छा बुरा होता है दोस्त
ख़ुदकुशी करना तो ओछी बात है
जो भी है सब कुछ उसी का अक्स है
यानी ये सब कुछ उसी की बात है
प्यार में गिरने से उड़ने तक ‘असद’
तुम बताओ कुछ पते की बात है
इतना भी मत सहना तुम
इतना भी मत सहना तुम
जब मन हो तब बहना तुम
कोई कहानी गढ़ लेना
इक दम से मत कहना तुम
मैं सीरत हूँ अनदेखी
और चमकता गहना तुम
ज़ब्त ज़रूरी थोड़ी है
शुभ शुभ बोलो बहना तुम
राहें खुद बन जाएँगी
चलते फिरते रहना तुम
यार ‘असद’ वो बातें यार
हाए वो उसका कहना ‘तुम’
शहर की सूरत शहर का हाल
शहर की सूरत शहर का हाल
तेढ़ी बुढ़िया जैसी चाल
नेताओं का माया जाल
मालिक नौकर सब कंगाल
एक जनवरी बोली थी
आने वाला होगा साल
सोशल दुनिया कहती है
नेकी कर और वाॅल पे डाल
हाए क़हर ढाना उसका
कान के पीछे करना बाल
लड़की थोड़ी लम्बी हो
और कमर तक आऐं बाल
मर मर के जीते हैं हम
हम पर हँसता होगा काल
इतने से जीवन में भी
कितना है जी का जंजाल
इश्क़ अगरचे तूफ़ां है
होने दो सब कुछ पामाल
लोग कहाँ बाक़ी हैं ‘असद’
कैसी शकलें किसकी खाल
दिखता ही नहीं दूर तलक कोई सफ़र में
दिखता ही नहीं दूर तलक कोई सफ़र में
क्या ख़ूब रिहाइश थी कभी दिल के नगर में
माज़ूर ख़यालात के लोगोँ में घिरा हूँ
कितना ही बचा जाए हुजूर अपने ही घर में
तितली ने मुझे शौक़ में बांधा है कुछ ऐसा
में दोस्त नया बन गया पौधोँ की नजर में
है प्यास पे मौक़ूफ़, हो बर्बाद या आबाद
वरना तो कोई फ़र्क नहीँ ऐबो-हुनर में
है राह नहीँ सब्र बजाए तो करेँ क्या
लेकिन वो मिठास अब कहाँ मिलती है समर में
होते ही सहर लगता है शब आती ही क्यों है
शब आई तो लगता है क्या रक्खा है सहर में
ऐसा भी नहीँ हूँ नहीँ में महवे-तमाशा
रखता हूं नज़र दर्द न उठ जाए जिगर में
माना की नहीं ज़हन दिया तूने कमज़कम
दिल डाल दिया होता ख़ुदा दूसरा सर में
किसी जंगल के जैसा ही बना था
किसी जंगल के जैसा ही बना था
वो उतना शांत था जितना घना था
पकड़ में आ गयी दोनों की चोरी
उसी ख़ुशबू से मैं भी तो सना था
बड़े समझे हुए बच्चे हैं ये तो
मेरे बचपन में काफ़ी बचपना था
वो शहज़ादी थी और मैं आम लड़का
मुझे वो चाहिए था जो मना था
जड़ों की एहमियत जानी सभी ने
सहारा पेड़ को देता तना था
‘असद’ क्या जानिए किस हाल में है
कि हाज़िर था मगर कुछ अनमना था
मुझे जितना पता लगा
किसको यहाँ पे झूठ का सच का पता लगा
में ढूँढता रहा मुझे जितना पता लगा
आइंदा जानिएगा सियासत का ये तिलिस्म
क्या वाक़िया हुआ था हमें क्या पता लगा
कितनी सहज के साथ सयानी हुई है वो
सारी संभालते हुए देखा पता लगा
रुकता नहीं था काम कोई आशिक़ी में पर
उनको भी हमसे प्यार है अच्छा पता लगा
हर बात ना-गवार थी जो भी कही गई
जिस वक़्त मुझको यार का धोखा पता लगा
इतना ही ज्ञान है तो बिरहमन फलक़ पे देख
और सामने से मेरा सितारा पता लगा
सीने पे रक्खा हाथ तो हरकत नहीं हुई
आया जो उसका कान तो धड़का पता लगा
हम भी सुनी सुनाई में घबरा गए ‘असद’
मुश्किल नहीं था बाद में इसका पता लगा
प्यार प्यार कहते हैं, यार यार कहते हैं
प्यार प्यार कहते हैं, यार यार कहते हैं
इसको आशिक़ी में हम रोज़गार कहते हैं
देख कर तेरा चेहरा क्या तिलिस्म छाया है
कुछ बुखार कहते हैं कुछ ख़ुमार कहते हैं
ग़लतियों से बचते हैं भूल भी नहीं करते
ऐसे बेवकूफ़ों को होशियार कहते हैं
तुम हुनर तो रखते हो, तुम अदा भी रखते हो
वो जो तुम नहीं रखते, इख़्तियार कहते हैं
ख़ुश गवार रखता है पत्तियों का गिरना भी
तुम कहोगे पतझड़ है हम बहार कहते हैं
कब किन्हें वो क्या बोलें, अपने बस की थोड़ी है
जो भी अपने बारे में राज़दार कहते हैं
आप को लगा होगा, कौन क्या ही कहता है
कहने वाले कहते हैं, बेशुमार कहते हैं
हालात के बारे में कोई पूछ रहा था
हालात के बारे में कोई पूछ रहा था
सदमात के बारे में कोई पूछ रहा था
चीखों का फ़लक, ज़ह्र हवा, आग ज़मीं पर
ज़ुल्मात के बारे में कोई पूछ रहा था
सूखे हुए खेतों पे किसानों का था मरना
बरसात के बारे में कोई पूछ रहा था
शतरंज कहूँ या मैं कहूँ ज़िंदगी का खेल
शह-मात के बारे में कोई पूछ रहा था
ख़ामोश रहे जान के महफ़िल में सभी लोग
औक़ात के बारे में कोई पूछ रहा था
सब्ज़ा-ओ-बयाबाँ उसे दोनो ही दिखाए
दिन रात के बारे में कोई पूछ रहा था
हैरानी तो लाज़िम है कि इस ज़ुल्मो-सितम में
बाग़ात के बारे में कोई पूछ रहा था
जिस बात को तुम राज़ समझते थे ‘असद’ जी
उस बात के बारे में कोई पूछ रहा था
बेटा सब कुछ अच्छा है
हाथ देख के बोला बेटा सब कुछ अच्छा है
मुझको था मालूम बिरहमन कितना सच्चा है
सुंदर सी तस्वीर में इक छोटा सा धब्बा है
खैर ज़माने भर में बस धब्बे का हल्ला है
कौन नहीं चाहता है ये हालात बदल जाएं
और नहीं बदलेगा कुछ भी ये भी पक्का है
लाख बहाने ढूंढे छू लेने के कैसे भी
मुझसे क़िस्मत वाला उसकी कमर का गुच्छा है
काश बड़ों ने पहले ही डांटा पीटा होता
काश नहीं सोचा होता जाने दो बच्चा है
खून के बदले खून ही लेंगे आंख के बदले आंख
सोच ‘असद’ ये कहने वाला कितना कच्चा है
बिगड़ गया
बन्दे बिगड़ गये तेरे, मज़हब बिगड़ गया
कैसे हुआ ये क्यों हुआ ये कब बिगड़ गया
दरिया थमा हुआ था हवाएँ भी नर्म थीं
तुमने पलट के देख लिया सब बिगड़ गया
पीटे गए थे ढोल इकट्ठा किया हुजूम
यकदम ही फिर हुज़ूर का करतब बिगड़ गया
बिगड़े नहीं हैं जो उन्हें शाबाशी किस लिए
मौका मिला जहाँ जिसे वो तब बिगड गया
इस बार तुझको पा ही लिया होता मैंने यार
पर यूँ हुआ कि अबकि तेरा रब बिगड़ गया
देता रहा सदाएँ तुम्हें आँधियों में मैं
लौटे हो तुम भी ऐन ‘असद’ जब बिगड गया
आवाज़ जब सुनी
आवाज़ जब सुनी न गई दहर में मेरी
बांधी गई ज़ुबान किसी बहर में मेरी
हर ग़म से हर बला से दिखी इक रहे-निजात
दिलचस्पी बढ़ रही थी बड़ी ज़हर में मेरी
दिखते हैं सब के सब ही नमक हाथ में लिए
चर्चित हुई जो बात मेरे शहर में मेरी
ये शायरी नहीं है फ़क़त और कुछ भी है
तुम ढूंढना ये हुस्ने-अदा सहर में मेरी
इक पुल बना रहा था किनारों के दरमियाँ
मेहनत ये सारी ढह गई इक लहर में मेरी
दहर: world
बहर: systematically
सहर: morning
रहे-निजात: way of/to liberate
स्याह चादर है मगर अंजुम नहीं
स्याह चादर है मगर अंजुम नहीं
ये फ़लक भी यूँ ही तो गुमसुम नहीं
दिल को समझाने लगे हम प्यार से
तुम नहीं अब तुम नहीं अब तुम नहीं
उसकी आँखों जैसे तेरी मय कहाँ
नाफ़-प्याले जैसा तुझ पे ख़ुम नहीं
हम तुम्हारी बात मानेंगे, मगर
तुम जो सोचो हम हिलाएँ दुम, नहीं
हर जगह बिखरा हुआ सामान है
याद तेरी छिप गई है गुम नहीं
हाऐ फैशन की तलब ऐसी ‘असद’
नथ नहीं, बिछुए नहीं, कुम कुम नहीं
याद आना तुम्हारा
बुरा लगता है याद आना तुम्हारा
अजब ही रब्त है मेरा तुम्हारा
मेरी चीज़ों को मेरे बाद कोई
अगर ले जाए तो घाटा तुम्हारा
मेरी क़िस्मत का इस्मे हाथ होगा
किसी से हो गया रिश्ता तुम्हारा
कहानी पढ़ रहा था मैं सफ़र में
अचानक आ गया चेहरा तुम्हारा
बड़ी झूठी कसम खायीं थी मैंने
कभी चाहा नहीं अच्छा तुम्हारा
भरे बाज़ार में बिक जाऊँगा मैं
कि फिर इज़्ज़त का हो कचरा तुम्हारा
तुम्हें ने ही नहीं देखा था शायद
सभी ने देखना देखा तुम्हारा
गली वालों को कुछ बोला है तुमने?
मुझे सब कह रहे थे..क्या?..तुम्हारा
हर कदम पर इक इमारत है यहाँ
हर कदम पर इक इमारत है यहाँ
इन परिंदों की तो आफ़त है यहाँ
हो न ऊँचाई से बादल को ग़ुरूर
इसलिए शायद ये पर्वत है यहाँ
एक मैं हूँ, दूसरे तुम, तुम भी हो!
और कितनों को मोहब्बत है यहाँ
तीन सो पैंसठ दिनों में एक दिन
याद करने की रिवायत है यहाँ
हक़ भी आज़ादी भी और फिर भीक भी
माँगने में तो महारत है यहाँ
आप भी चापलूसी सीख लो
कुछ ज़ियादा ही ज़रूरत है यहाँ
कब तलक देता दलीलें मैं फिरू
सब को सब से ही शिकायत है यहाँ
पेड़ पर से फल नहीं तोड़े गए
पेड़ से कुछ और चाहत है यहाँ
धूप जाने को है शब आने को है
एक बस मुझको फ़राग़त है यहाँ
अब कहानी तो समय लेगी ‘असद’
हाँ मगर किसको ही फुरसत है यहाँ
न कोई ठोर ठिकाना
न कोई ठोर ठिकाना मेरा न घर इस दम
सो देखते हैं कहाँ ले चले सफ़र इस दम
ये कोशिशों का समय आप के लिए होगा
है दाव पर यहाँ कुछ की गुज़र बसर इस दम
तुझे निहारने में मसअला यही है बस
है चश्मे-नम सो है धुंधली हुई नज़र इस दम
तुझे यक़ीन न था मेरे उन बयानों का
मलाल कर न जनाज़े पे हम-दिगर इस दम
कभी महक भी उड़ेगी इसी चमन से दोस्त
अगरचे जंग से बचना हो कारगर इस दम
मैं जानता हूँ ‘असद’ वो जो आगे होना है
मुझे बताओ कि मैं क्या करूँ मगर इस दम
देखने वाले नम हूए होंगे
हिज्र जिस जिस भी दम हुए होंगे
देखने वाले नम हूए होंगे
और दुनिया उलझ गई होगी
उसकी जुल्फों में ख़म हुए होंगे
अपने क़िस्से में वो ग़लत हैं तो
उनके क़िस्से में हम हुए होंगे
ग़र्म लहजे को चिढ़ हुई होगी
सर्द लहजे को ग़म हुए होंगे
प्यार दुनिया से हो गया रुसवा
चाहने वाले कम हुए होंगे
जब सितमगर ही आशना हो तो
सोच कैसे सितम हुए होंगे
तजरबे जज़्ब हैं सुख़न में ‘असद’
आते आते रक़म हुए होंगे
कहने में क्या जाता है
क्यों करनी है दर्द बयानी, सहने में क्या जाता है
कैसे हो तुम? मैं तो खुश हूँ! कहने में क्या जाता है
इक दिल में अपना घर करना, तब तो उसको इश्क़ कहें
ऐसे कितने घर में रह लो, रहने में क्या जाता है
संग-दिलों की आँख का कतरा, जज़्बातों का दरिया है
नाज़ुक दिल वालों का आख़िर, बहने में क्या जाता ह
तुम अपनी दीवारों में खुश, हम अपनी दीवारों में
यार ‘असद’ इन दीवारों के ढहने में क्या जाता है
क्या देखना
इल्म-दाँ हो रिंद हो या बावरा क्या देखना
चारा-गर तू घाव भर, किसका भरा क्या देखना
ज्ञान देते उन अमीरों से वो कासा बोल उठा
भूख में रोटी दिखा, सोना ख़रा क्या देखना
ताज पर जब चाँदनी बरसे तो जन्नत सा लगे
बात यूँ तो ठीक है पर मक़बरा क्या देखना
पहले इक पे घात करके फिर करे नस्लों पे वार
ख़ून मुँह लग जाए फिर ज़्यादा ज़रा क्या देखना
कोई सानिहा हुआ हो या कोई धोखा-धड़ी
सर पटक कर एक दीवाना मरा क्या देखना
मशवरे पर मशवरे पर मशवरे लेते रहे
क्या बचा इसमें तुम्हारा, मशवरा क्या देखना
मीरो-ग़ालिब के हवाले से हुई है शाइरी
लखनऊ दिल्ली है कहती, आगरा क्या देखना
तीन रंगों को बराबर का दिया दर्जा ‘असद’
कितना केसरिया है कितना है हरा क्या देखना
कोई बात करो
तन-ए-तन्हा हूँ, परेशाँ हूँ, कोई बात करो
महव-ए-ख़लवत से फ़िगाराँ हूँ कोई बात करो
मैं जो ज़ाहिर हूँ बस उतना ही नहीं समझो तुम
मैं किसी बात से पिन्हाँ हूँ कोई बात करो
देखने में भले लगता हूँ मैं मुश्किल गुत्थी
यार सच मुच में मैं आसाँ हूँ कोई बात करो
मैं हर इक पल घिरा रहता हूँ कई लोगों से
ध्यान से देखना वीराँ हूँ कोई बात करो
मेरी फ़ेहरिस्त अज़ीजों की बड़ी लम्बी है
उन अज़ीज़ों पे पशेमाँ हूँ कोई बात करो
बैठे बैठे तो किसी को नहीं ये सूझेगा
मैंने बोला ना हिरासाँ हूँ कोई बात करो
मैं ‘असद’ दर्द में या ग़म में नहीं दुख में हूँ
और तो और फ़रावाँ हूँ कोई बात करो
फ़िगाराँ: थका हुआ
पिन्हाँ: छिपा हुआ
पशेमाँ: लज्जित
हिरासाँ: घबराया हुआ
फ़रावाँ: बहुत ज़ियादा
कोरे छोड़ के कारे पन्ने फाड़ दिए
कोरे छोड़ के कारे पन्ने फाड़ दिए
आँसू से तर ख़ारे पन्ने फाड़ दिए
दर्द में इतनी लज़्ज़त थी रानाई थी
जितने भी थे प्यारे पन्ने फाड़ दिए
मैं बस उसका अक़्स मिटाने बैठा था
इक इक करके सारे पन्ने फाड़़ दिए
हर पन्ने को अपना बीज दिखाना था
जो निकले बंजारे पन्ने फाड़ दिए
लिखना था मज़लूम है कितने लोग ‘असद’
ग़ुस्से में बेचारे पन्ने फाड़ दिए
मरते थे दोनो प्यार में
मन को बहलाने के सौदे चल रहे बाज़ार में,
लद गया वो वक़्त जब मरते थे दोनो प्यार में,
हर किसी से हँस के बोलो, सब की तारीफ़ें करो,
और क्या ही रह गया है दोस्ती व्यापार में
फिर वफ़ा का करके वादा बे-वफ़ाई कर गए
आ गई दिलबर के जैसी ख़ूबियाँ सरकार में
क्या तआज्जुब आदमी खाने लगे खुद आदमी
क्या नहीं कुछ हो रहा है आजकल संसार में
दो किसी जिद्दत नज़रिए को नए पैकर तमाम
तब कोई जा कर कहेगा, कुछ तो है फनकार में
दोस्ती हो, दुश्मनी हो, या मुहब्बत हो ‘असद’
शख़्स आख़िर एक ही है, है अलग किरदार में








