Vijayadashami kavita
Vijayadashami kavita

विजयादशमी

( Vijayadashami kavita )

( 10 ) 

 

जागो रावण

आए साल तूझे यूं खामोशी से जलता देख
हे रावण,मुझे तो तुझ से इश्क़ हो चला है

कभी तो पूछ उस खुदा से, क्या इन्साफ है तेरा
मरने के बाद भी ,सदियों ज़माना क्यूं सज़ा देता चला है

सोने की लंका थी मेरी ,शिव भक्ति गुरूर मेरा
एक नहीं कई ऐसे गुनाह भी कर जाता ,यही तो दस्तूर चला है

राम के हाथों मरा सो मरा, किस्मत मेरी , सौभाग्य मेरा
अब तो, मेरा ही हर बहरूपिया मुझे मारने चला है

यह सरासर तौहीन है ,मेरे उस एक दिन मरने पर भी
कांच के घर रहते है ये, फिर भी देखो कैसे पत्थर उठाने चला है

उठो,जागो, हे दशानन, अपना वही रुआब दिखाओ और कहो
मर्यादा में रहो फिर मारो , हर कोई त्रेता का राम क्यूं बनने चला है…

हे रावण, मुझे तुझ से यूं ही नहीं इश्क़ हो चला है…

 

लेखिका :- Suneet Sood Grover

अमृतसर ( पंजाब )

 

( 9 )

पुतले रावण के जलाकर
क्या तीर मार लेंगे

राम राम रटने वाले
भीतर के रावण को कब मारेंगे

चंगुल से उसके जानकी जिंदा ही क्या
अछूती ,पाक भी मिली थी

राम राम,रसना से कहने वाले
कब अपनी नज़रें साफ़ करेंगे

सीता को माता कहने वाले,
मर्यादा पुरुषोत्तम से कब बनेंगे

सदियों से रावण जला खाक करने वाले
खुद की खुदी को कब मिटाएंगे

रावण ही रावण को जलाने वाले
अपनी लिप्सा कब जलाएंगे

पुतले रावण ,मेघनाद के जलाकर
राम, हनुमान ‘से क्या ऐसे ही सब बन जाएंगे..

 

लेखिका :- Suneet Sood Grover

अमृतसर ( पंजाब )

 

( 8 ) 

ये रावण कब मरेगा?

रावण कभी मरता नहीं है
पलता रहता है नये नये भेष धर कर
कभी इस देह कभी उस देह
और फिर दशहरे के दिन प्रकट हो उठता है
नये कलेवर और तेवर के साथ..
पुतले को तो आग लगा देते हैं हम
लेकिन नहीं जला पाते मन में पलते रावण को
जो साल दर साल ज्यादा शक्तिशाली होकर,
प्रकट होता है।
बड़े कद और बहुत बारूद के साथ..
बचपन से देखते आ रहा हूँ
आगे भी निरंतर जन्म लेता रहेगा
शायद सदियों तक?
लेकिन फिर भी उम्मीद है मुझे
रावण, एकदिन मरेगा जरूर!

 

लेखकमो.मंजूर आलम उर्फ नवाब मंजूर

सलेमपुर, छपरा, बिहार ।

( पूर्णिका )

( 7 )

दस को हराकर के, दशहरा मनाइए।

अन्तस में राम जगा, रावण जलाइए।।

 

हो घमंड मद मोह, क्रोध को नसाइए।

अहंकार वृत्ति छोड़, खुशी से हरषाइए।।

 

लोभ ईर्ष्या और द्वेष, स्वार्थ राग मारिए।

वासना का दैत्य जला ,ज्ञान जगमगाइए।।

 

नकारात्मकता नाश कर आलस्य भगाइए।

 सकारात्मकता की तरंग, चारों ओर फैलाइए ।।

 

 घृणा निंदा चुगली, की आदत सुधारिए।

दया प्रेम सत्य, मानवीयता अपनाइए।।

 

पर्व है दशहरा ध्वजा, धर्म की फहराइए।

अपने-अपने रावण का,दहन कर आइए।।

 

श्रीमती अनुराधा गर्ग ‘ दीप्ति ‘

जबलपुर ( मध्य प्रदेश )

( 6 )

बुरे तो हम हैं बुरा रावण को क्यों बताते हैं,
अंदर के रावण को हम क्यों नहीं मिटाते हैं ,

कब का मर चुका है युगों पहले जो रावण
विजयादशमी पर आज भी हम उसे जलाते हैं।

भूल चुके हैं द्रोपदी के चीर हरण वाले को,
नहीं कभी दुर्योधन का पुतला हम जलाते हैं।

याद नहीं है क्या हमे दुशासन की हैवानियत,
फिर क्यों कुंभकरण को पापी हम बताते हैं।

सब जानते हुए भी बन जाते हम अंजान
अभिमान व अहंकार में रात दिन डूब जाते हैं।

महा बलशाली पराक्रमी को मारा था श्रीराम ने,
सिर्फ पुतले का दहन कर खुद को राम बताते हैं!

 

कवि : सुमित मानधना ‘गौरव’

सूरत ( गुजरात )

( 5 ) 

आज कौन नहीं रावण,कौन है राम।

आज तीर चलाने से पहले आंकना खुद को
किस से जलेगा यह रावण,क्या तुम हो वो राम।

अरे, रावण ही बन जाओ एक असली, दशानन
भीतर छुपाए कई चेहरे , तुम बाहर बने हो श्री राम।

लेने आए थे,उसी की जमीं पर प्रभु खुद चलकर आप
क्या औकात है तुम्हारी जो धनुष उठाए खड़े बन प्रभु राम

 

Suneet Sood Grover

लेखिका :- Suneet Sood Grover

अमृतसर ( पंजाब )

( 4 ) 

ऊर्जस्वित कदमों से, विजय भव मंत्र साकार

दृढ़ संकल्प लक्ष्यबद्ध कर्म ,
सकारात्मक सोच परम बिंदु ।
आशा उमंग हर्ष हिलोरित,
सरित आनंद अंतर सिंधु ।
सत्य अटल शाश्वत अप्रतिम ,
सदा अस्त असत्य आधार ।
ऊर्जस्वित कदमों से,विजय भव मंत्र साकार ।।

स्वस्थ स्वच्छ तन मन,
सफलता प्राप्य अहम ।
परास्त पथ कंटक बाधा,
आत्मविश्वास मित्र विक्रम ।
धर्म रक्षा प्रतिज्ञा शीर्ष,
वंदन निज संस्कृति संस्कार ।
ऊर्जस्वित कदमों से,विजय भव मंत्र साकार ।।

चिंतन मनन भाव तरंगिणी,
पुरुषार्थ पथ दिव्य गमन ।
आचमन आध्यात्म ओज,
नैराश्य वैमनस्य मूल शमन ।
शौर्य पराक्रम साहस संग,
रणभूमि नित जय जयकार ।
ऊर्जस्वित कदमों से, विजय भव मंत्र साकार ।।

पाप काम क्रोध लोभ ,
प्रगति राह वृहत बाधा ।
मोह मद अहंकार आलस्य,
सुख समृद्धि वैभव आधा ।
हिंसा चोरी जड़ तज ,
जय श्री नित साक्षात्कार ।
ऊर्जस्वित कदमों से,विजय भव मंत्र साकार ।।

 

महेन्द्र कुमार

नवलगढ़ (राजस्थान)

( 3 ) 

अधर्म पर धर्म की जीत का है ये पर्व पावन,
अधर्म प्रतीक रूप में जलेगा आज फिर से रावण।

प्रभु श्रीराम ने इस दिन लंका नगरी पर विजय पाई थी,
महासती सीता माता का स्वाभिमान व अस्मिता बचाई थी।

इस दिन प्रभु श्रीराम ने सत्य धर्म की शक्ति सबको दिखलाई थी,
निर्दोष अबला नारी पर कुदृष्टि डालने की सजा रावण ने पाई थी।

पाप और अधर्म का खात्मा कर प्रभु ने नवयुग की नीव जमाई थी,
अधर्म अनाचार का वध कर प्रभु कृपा से धर्म पताका फहराई थी।

विजयादशमी का पावन पर्व प्रतीक है अधर्मियों के संहार का,
सत्य धर्म और सुनीति रक्षा की खातिर पाप के प्रतिकार का।

विजयादशमी हमें शिक्षा देता अपने अंदर के रावण को मारने का,
काम क्रोध लोभ अहम जैसे अवगुणों को स्वभाव से हटाने का।

परंतु जब तक कोई अपने अंदर की बुराइयां नहीं छोड़ेगा,
तब तक कैसे कह सकता कि बुराई का अंत हो जाएगा।

जब तक लोगों में हैं ये बुराइयां ये पापी खत्म न हो पाएगा,
कितना भी जला लो रावण पुतले को ये फिर जिंदा हो जाएगा।।

 

रचनाकार –मुकेश कुमार सोनकर “सोनकर जी”
रायपुर, ( छत्तीसगढ़ )

( 2 )

कैसी विजय?
किसकी विजय ?
क्या रावण जैसे राक्षसी लोगों द्वारा ,
स्त्री अपहरण की घटनाएं बंद हो गई हैं ?
क्या भगवान राम द्वारा,
स्त्री का नाक कान काटना बंद हो गया है ?
क्या स्त्रियां आज अपमानित नहीं हो रही हैं ?

आखिर कैसी विजयदशमी ?
कौन सी विजयादशमी?
कौन सी विजयगाथा है यह?
राम हो या रावण,
दोनों ने किया,
स्त्री का अपमान,
दोनों के मध्य में है स्त्री,
फिर एक भगवान,
और एक राक्षस ,
कैसे हो सकता है?
जब दोनों के कर्म समान रूप से एक है,
यह यक्ष प्रश्न,
सम्पूर्ण स्त्रियां,
आज भी पूछ रही है?
हर वर्ष रावण,
विजयादशमी पर,
अट्टहास करता रहेगा?
मैंने एक स्त्री का अपहरण,
किया तो,
हजारों वर्षों से,
पुतला जलाया जा रहा है,
राम ने स्त्री का,
अंग विच्छेद करके,
स्त्री का अपमान किया,
फिर मैं राक्षस,
वह भगवान कैसे?
जब दोनों ने कर्म,
एक ही किया।
हजारों वर्षों से,
पूछ रहा है रावण?

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

 

( 1 ) 

हर हाल में हर काल में अभिमानी रावण हारा है
अहंकार  का  अंत हुआ सच्चाई का उजियारा है

विजयदशमी  विजय  उत्सव  दशहरा पावन पर्व
मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र प्रभु पर करते सभी गर्व

रामराज्य  में  मर्यादा का फर्ज निभाया जाता था
रामराज में खुशहाली न्याय धर्म निभाया जाता था

दशानन का दंभ तोड़ राम ने रावण को मारा था
सिंधु  पर सेतु  बनाया  भूमि  का भार उतारा था

विश्वनाथ की कर स्थापना शक्ति का ध्यान किया
शक्ति बाण से रावण का चूर चूर अभिमान किया

काला  धन  काली  करतूतें आज खूब आबाद हुए
दिनोंदिन नैतिकता लूढ़की घटित कई अपराध हुए

धनबल भुजबल से देखा छीनते हुए निवाला है
कलयुग  काल में  रावण  राज  बोलबाला  है

आस्था विश्वास प्रेम घट घट में डगमगा रहा
लूट खसोट झूठ फरेब संस्कारों में आ रहा

पाखंडी धर्मगुरुओं ने जन आस्था ढहा डाली
भ्रष्ट आचरण लीन होकर मर्यादाएं गंवा डाली

फन फैलाए इस रावण का श्रीरामजी अंत करो
मधुर  प्रेम  सद्भाव  घट  में स्थापित तुरंत करो

विजय उत्सव हर्ष खुशी उल्लास उमंग जगाएगा
घर-घर दीप रोशन हों कोना-कोना जगमगाएगा

कवि : रमाकांत सोनी

नवलगढ़ जिला झुंझुनू

( राजस्थान )

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