युद्ध के दौरान कविता | Yuddh ke Dauran Kavita
युद्ध के दौरान कविता
( Yuddh ke Dauran Kavita )
रात के प्रवाह में बहते हुए अक्सर
अचेत-सा होता हूं
छूना चाहता हूं —
दूर तैरती विश्व-शांती की वही पुरानी नाव-देह .
अंधेरे और उजाले का छोर पाटती
तमाम निर्पेक्षताओं के बावजूद
यह रात भी /
एक राजनैतिक षड़यंत्र लगती है मुझे .
जहां
कोई शिखर सम्मेलन हो या समझौता-वार्ता
हमेशा मेरे प्रेम की तरह ही असफल रही है.
कि
इस सेतुबंध के नीचे
कितने लोग आये और पतलून उठाकर लौट गये…
मैं अकेला खड़ा सोचता ही रह गया
नदी में, चांदनी का जाल और सरहदों का हर इक गांव बह गया .
यह कैसी __
उद्धत
उन्मत्त
भयावह
रात की स्थिति है
हथियारों और विचारों के दो किनारों के बीच
क्या यही आत्म-पात की स्थिति है ?
सुरेश बंजारा
(कवि व्यंग्य गज़लकार)
गोंदिया. महाराष्ट्र