बिछा लो प्रेम की चादर | Kavita bichha lo prem ki chadar
बिछा लो प्रेम की चादर
( Bichha lo prem ki chadar )
बिछा सकते हो तो बिछा लो प्यार की चादर।
गोद में पलकर हुए बड़े कर लो उनका आदर।
बिछा लो प्रेम की चादर
आंधी तूफानों में भी हम आंचल की छांव में सोए।
साहस संबल मांँ ने दिया पुचकारा जब हम रोए।
जन्मदाता भटक रहे लाचार होकर क्यो दर दर।
तीखी वाणी के तीर चला क्यों कर देते हो बेघर।
बिछा लो प्रेम की चादर
बारूद का ढेर लगाते हो चिंगारी कहीं जलाते हो।
नफरतों का जहर उगले माहौल क्यों बनाते हो।
पड़ोसी के दुख दर्द से तुम हो गए कैसे बेखबर।
पीर औरों की देख मन पे होता क्यों नहीं असर।
बिछा लो प्रेम की चादर
वो सड़के निगलते हैं तुम नदिया निगल जाते।
वो तीर चलाते हैं तुम भीषण बारूद बरसाते।
संभल जाओ अभी वक्त नहीं है देर प्रभु के दर।
कहीं ऐसा ना हो बन जाए खुद मौत का ही घर।
बिछा लो प्रेम की चादर
कवि : रमाकांत सोनी सुदर्शन
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )