जीवन संसय | Jeevan sansay
जीवन संसय
( Jeevan sansay )
जन्म की पीड़ मिटी ना प्यास बुझी, इस नश्वर तन से।
अभी भी लिपटा है मन मेरा, मोह में मोक्ष को तज के।
बार बार जन्मा धरती पर, तृष्णा में लिपटी है काया।
उतना ही उलझा हैं उसमें, जितना ही चाहे हैं माया।
भय बाधा को तोड़ने वाले, नरायण हर कण व्यापी।
फिर क्यों भटक रहा है मूरख,गली गली आजा काशी।
जिसमे तुझको मोक्ष मिलेगा, वरूणा गंगा की धारा।
महादेव हर इक रज में हैं, कल्पवृक्ष की भी छाया।
मन का संसय मिटा दिया तो, दिव्य दृष्टि तु पाओगे।
सूरदास सम बालक रूप में, हरि को सामने लाओगे।
अन्तर्मन मे झाँक अगोचर, आदि अंत का मेला हैं।
समझा ना हुंकार हृदय ये, जीवन संसय का खेला है।
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कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )