युद्ध के बोझ से
( Yuddh ke bojh se )
क्यों न आसमां को सुस्ताने दिया जाए,
कुछ बरस तक युद्ध को जाने दिया जाए।
इंशा की लालच का कोई इंतिहाँ नहीं,
पहचाने जो चेहरा आईना दिया जाए।
युद्ध के बोझ से वो कब का है थका,
बैठ गई आवाज, गर्म पानी दिया जाए।
चिथड़ा-चिथड़ा कर डाली मिसाइलें उसे,
जो सुने शिकायतें, मुसिंफ दिया जाए।
चला रहा युद्ध की हवा, वो दूर बैठा,
क्यों न उसका पर अब कतर दिया जाए।
बाँटना है तो अम्न की खैरात बाँटो,
मौत की बरसात को बंद किया जाए।
लोग अपनी छतों पे तन्हा नहीं सो सकते,
चाँद को फिर से छत पे आने दिया जाए।
कजरारी आँखों में तैरते थे जो ख्वाब,
उनका सुनहला दिन लौटा दिया जाए।
लड़ने का है शौक बेरोजगारी से लड़ो,
जंग की तबाही से तौबा किया जाए।
चीख- चीत्कार से भरा नीला गगन,
मोहब्बत का दरीचा खोल दिया जाए।
रामकेश एम यादव (कवि, साहित्यकार)
( मुंबई )
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