इतिहास | Kavita Itihas
इतिहास
( Itihas )
उड़ती हैं नोट की गड्डियाँ भी
दरख़्त के सूखे पत्तियों की तरह
होती है नुमाइश दौलत की
फ़लक पे चमकते सितारों की तरह
बेचकर इमां धरम अपना
बन गई है सिर्फ खेल यह जिन्दगी
अय्याश का भोग हि जीवन बना
धरी की धरी रह गई है बंदगी
शिक्षा जरिया बनी धन का
टूट चुका है बांध मन का
सभ्यता छूटी संस्कार छूटा
बढ़ गया है मोल झूठी शान का
नारी भी रही सिर्फ जात की नारी
शर्मो हया का परदा हटा
बाज़ार सी वो बन चली है
बहुत हि कम मे है अब भी अदब डटा
यही क्या है विकास की परिभाषा
क्या इसी पर रहेगा कल टिका
समझ हो वक्त की वक्त से पहले
तब हि इतिहास उसका बचा
मोहन तिवारी
( मुंबई )
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