धरती की व्यथा | Kavita Dharti ki Vyatha
धरती की व्यथा
( Dharti ki Vyatha )
मैं खुश थी
जब
धरती न कहला कर
सूरज कहलाती थी
तुममें समा
तुम्हारी तरह
स्थिर रह कर
गुरुग्रह जैसे
अनेक ग्रहों को
अपने इर्द गिर्द घुमाती थी
पर
जबसे तुमने मुझे
पृथक अस्तित्व में लाने का
प्रण किया
तभी से
एक नित नया अहसास दिया ।
ऊर्जा के क्षेत्र में तो
तुमने मुझे
अपना बंधक ही बना लिया
स्वयं को स्थिर कर
दाता कहलाने के गुमान में
हमेशा हमेशा के लिए
अपने चारों ओर
चक्कर काटने को
विवश कर डाला
लाखों मील दूर हो
पर आज भी
तुम्हारी तपिश सह रही हूँ
घमंड की सजा
आज भी पा रही हूँ ।
कभी मरुथल में रेत बना
तपाते हो
तो कभी
स्वयं बाढ़ बन कर
मेरा धरातल छील ले जाते हो ।
कभी पहाड़ो पर
बर्फ बन
मौत का जाल बुनते हो
तो कभी
सागर की गहराई में
तुफान रचते हो ।
सोचती हूँ
इतनी लीलाएँ तो
तुम स्थिर रह कर करते हो
यदि मेरी तरह
चलायमान होते
तो परिणाम कैसा होता
सुशीला जोशी
विद्योत्तमा, मुजफ्फरनगर उप्र