मैं माटी का दीपक हूँ
मैं माटी का दीपक हूँ
जन्म हो या हो मरण
युद्धभूमि में हो कोई आक्रमण
सरण के अग्निकुण्ड का हो समर्पण
या पवित्र गंगा मे हो अस्थियों का विसर्जन
मैं जलाया जाता हूँ
माटी का दीपक हूँ ….
अंत में इसी रजकण मे मिल जाता हूँ
मैं माटी का दीपक हूँ
माना की नहीं है
सूर्य किरणों सी आभा मुझमे
चंद्र सी नहीं है प्रभा
असंख्य तारे नहीं है मेरे संगी-साथी
अकेला ही जलता जाता हूँ
जल की लहरों पर मैं हिचकोले खाता हूँ
टिमटिमाते जुगनू की भाँति
मैं तूफ़ान में
झंझावात में
बुझता तो कभी जलता जाता हूँ
मैं माटी का दीपक हूँ …..
अंत में इसी माटी के रजकण में मिल जाता हूँ
अंधियारे को हूँ मैं चिरता
राह प्रकाश की
चलता चला जाता हूँ
नहीं जानता मैं
फिर कभी प्रज्वलित हो पाऊँगा या नहीं
तथापि स्वयं को तिमिर में बांधकर तेल ,बाती,और अग्नि के साथ उत्सर्जित किए जाता हूँ
कभी तर्पण की
कभी अर्पण की
राष्ट्र पर शहीद हुए वीर- वीरांगनाओं के समर्पण की
अमर ज्योत बनने का सौभाग्य भी मैं पाता हूँ
मैं माटी का दीपक हूँ …..
अंत में इसी रजकण में मिल जाता हूँ
मैं माटी का दीपक हूँ…
जन्म हो या हो मरण ..
मैं जलाया जाता हूँ…
मैं माटी का दीपक हूँ….
मैं माटी का दीपक हूँ…
चौहान शुभांगी मगनसिंह
लातूर महाराष्ट्र
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