Pehchan Hindi Story

पहचान | Pehchan Hindi Story

आज मेरा पहला उपन्यास छप कर आया है , इसे मैंने पापा को समर्पित किया है , जो हूँ आज उन्हीं की वजह से हूँ। यूँ तो कुछ साल पहले तक मैं उनसे नफरत करता था , उन्हें पापा भी नहीं कहता था , कोशिश करता था कि उनसे बात ही न करनी पड़े , पर जब कभी करनी पड़ जाती , तो दबी जबान से अंकल कह देता , और इसमें कुछ गलत था भी नहीं , वे मेरी माँ के पति हैं , पर मेरे पिता नहीं, ये मेरी माँ की दूसरी शादी है।

बात उस ज़माने की है , जब औरत का सुन्दर होना शादी के लिए सबसे बड़ा गुण माना जाता था, और शादी स्त्री जीवन की सबसे बड़ी विजय यात्रा।

मेरी माँ , सोनिआ, उस साल मिस लेडी श्री राम कॉलेज बनी थी , सुन्दर , स्मार्ट , पॉलिशड , बस फिर क्या था दिल्ली के धनी परिवारों ने सूंघ लिया , और मेरे दादा दादी अपने इकलौते बेटे संजय का रिश्ता ले नाना नानी के पास पहुंच गए, नाना नानी ने अपने को धन्य समझा, बस एक शर्त रक्खी कि सोनिया की पढ़ाई जारी रक्खी जायगी, दादा दादी को इस बात से कोई एतराज नहीं था , संजय भी अभी सेंट स्टीफ़न कॉलेज से इकोनॉमिक्स में बी ए ओनोर्स कर रहा था।

दोनों गुड्डे गुड़िया की तरह सज कर आ गए शादी के लिए , शादी पूरे पांच दिन चली , मेरे माँ बाप थोड़े कन्फ्यूज्ड जरूर थे , पर सबके साथ उन्होंने भी पूरा एन्जॉय किया।

हनीमून के लिए मेरे दादा दादी उन्हें  लंदन ले गए।  वापिस आकर वो फिर से बड़ी बड़ी गाड़ियों में बैठकर अपने अपने कॉलेज जाने लगे।  इससे पहले कि उन्हें शादी के गहरे अर्थ पता चलते , मैं आ गया।  इससे मेरे माँ बाप के जीवन में कोई विशेष अंतर नहीं आया , मेरे दादा दादी नौकरों से भरे घर में एक नया खिलौना पाकर खुश हो गए।

मेरे माँ बाप ने एम ए किया और मेरा भी स्कूल में एडमिशन हो गया। अब वो दोनों बड़े हो गए थे , और समझ रहे थे कि वो दोनों एक दूसरे के लिए नहीं बने हैं।  संजय को पाश्चात्य संगीत पसंद था तो , सोनिया को हिंदुस्तानी क्लासिकल, एक कॉन्टिनेंटल खाना चाहता था तो दूसरा छोले भठूरे , खैर , सूचि लम्बी है , आप मेरा मतलब समझ गए होंगे।

तलाक के बाद संजय अमेरिका चला गया , और मैं पांच साल की उम्र में माँ के साथ नानी के घर आ गया।  माँ ने स्कूल में नौकरी कर ली , मुझे दादी की जगह नानी देखने लगी , माँ मुझे पहले से ज्यादा वक़्त देने लगी , और मैं कुछ ही समय मेँ उस माहौल मेँ एडजस्ट हो गया , परन्तु मेरी माँ की यात्रा अभी शेष थी , मुश्किल से वह अभी २४ वर्ष की ही तो थी , अब बेटे की वजह से वह जीवन प्रवाह रोक तो नहीं देतीं।

नानी ने बताया ‘ तेरी माँ को एक प्रोफेसर से प्यार हो गया है , वो शादी करके उसके साथ चली जाएँगी , और तू हमारे साथ रहेगा।  सुनकर मेरा रोना निकल आया , मैंने जोर जोर से रोना शुरू कर दिया , पहली बार मुझे लगा एक एक करके मुझे सब छोड़ना चाहते हैं।  माँ की शादी के बाद नाना नानी मुझे रोज घुमाने ले जाते , जो कहता मुझे मिल जाता , पर मेरे दिल की उदासी न जाती।  माँ जब भी अपने नए पति के साथ आती बहुत खुश दिखती , उसके नए पति मुझसे भरसक दोस्ती करने की कोशिश करते , बार बार कहते , “ मुझे अंकल नहीं पापा कहो। ” और मैं जैसे बदला लेने के लिए और भी जोर से कहता ,” अंकल। ”

एक दिन नानी ने कहा , “ अब कुछ महीने तुम्हारी मम्मी यहां आकर रहेगी। ” मेरी तो ख़ुशी का ठिकाना न रहा।  मुझे लगा , अब उसे समझ आ गई है , वो अंकल को छोड़कर मेरे साथ रहना चाहती है। पर इससे पहले कि वह ख़ुशी मेरे मन के भीतर तक पहुँचती , नानी ने कहा , “ तेरे साथ खेलने वाला भाई या बहन आने वाला है , तुझे क्या चाहिए – बहन या भाई ? “

सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगा , मैंने गुस्से से कहा ,” कुछ भी नहीं , मम्मी भी नहीं। ”

सात साल की उम्र मेँ न जाने मुझे क्यों लगा , मेरी माँ मुझसे और दूर जा रही है।  मैं गुस्से मेँ बाहर बच्चों के साथ खेलने निकल गया।  रात हो गई , और मैं फिर भी घर नहीं आया तो नाना मुझे ढूँढ़ते हुए आ पहुंचे।  प्यार से गोदी मेँ बिठाकर वो चाँद तारे दिखाने लगे।  मेरे नाना कहानियों का भंडार थे, सारा रास्ता वो मुझे कहानी सुनाते रहे , और मेरा मन शांत होता गया।

माँ के साथ, नानी के घर,  जिंदगी के सारे रंग भरने लगे , मेरी बहन आई तो मेरा मन ख़ुशी से झूम उठा।

फिर एक दिन अंकल किसी राक्षस की तरह उन दोनों को मुझसे छीनने आ गए।  इस बार जाते हुए  माँ मुझसे लिपट कर बहुत रोई, नानी ने कहा , “ रो क्यों रही है , दो महीने बाद पापा इसको तेरे पास छोड़ जायेंगे। ”

माँ चली गई , तो मैंने गुस्से मेँ कहा , “ मैं नहीं जाऊंगा , तुम्हे भी जाना है तो जाओ नानी। ” पता नहीं क्यों मेरा मन हुआ कह दूँ , बस नाना को रहने दो।

मेरे लाख मना करने पर भी नाना मुझे मां के पास छोड़ आए , पर एक बार वहाँ पहुँचने पर मैं माँ , बहन को फिर से पाकर बहुत खुश था , अंकल मुझे ज्यादा पसंद नहीं थे , पर वो मुझे देखकर वैसे ही खुश होते थे जैसे मेरी माँ और बहन संध्या को देखकर।

माँ का यह घर बहुत छोटा था , सब कोई एक दूसरे के करीब रहता , मुझे यह बहुत अच्छा लगता , फिर माँ खाना बनाती थी , और मुझे स्कूल के लिए तैयार भी करती थी , कभी कभी मुझे वो संध्या का ध्यान रखने के लिए कहती , तो मुझे लगता जैसे उन्हें मेरी जरूरत है।

समय बीतता गया , बारवीं मेँ मेरे पिचानवे प्रितशत नंबर आये, और आय आय टी   में मेरा एडमिशन हो गया।  मेरी माँ की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था।  मैं जानता था , उच्च वर्ग से मध्य वर्ग की यह यात्रा उसके लिए सरल नहीं थी , वह मेरे लिए चिंतित थी और दुखी भी , मैं एक गुमनाम राजकुमार सा था , वह चाहती थी मैं फिर से अपना परिचय पा जाऊं , आय आय टी उसके लिए सीड़ी हो सकती थी।

मैं हॉस्टल में रहने लगा , मुझे इंजीनियरिंग की पढाई में बिलकुल मजा नहीं आ रहा था , मैं नाना की तरह कहानियां सुनाना चाहता था।  मैं माँ को रोज खत लिख रहा था कि मुझे इंजीनियरिंग नहीं , साहित्य और इतिहास पढ़ना है , पर माँ थी कि बस एक ही जिद्द , इंजीनियरिंग करके अमेरिका चला जा।

एक दिन सब छोड़ कर घर पहुंच गया।  माँ का यह रूप मैंने कभी नहीं देखा था। रो रो कर उनकी ऑंखें सूज गई थी , उन्होंने खाना पीना छोड़ दिया , क्योंकि वह अपने बेटे का भविष्य यूँ उजड़ता हुआ नहीं देख सकती थी।  आखिर थकहार कर मैं फिर से हॉस्टल आ गया , मेरा दुर्भागय कि मेरे नंबर फिर से बहुत अच्छे आये।

परन्तु अब मैं बहुत अस्वस्थ रहने लगा , रात को मुझे छाती मेँ दर्द हो जाता , साँस लेने मेँ कठिनाई होती, दिनों शौच न होता , किसी दोस्त के साथ पीछे स्कूटर पर बैठते डर लगता।

एक दिन रात को मैं यह और नहीं सह पाया , और अँधेरे मेँ सब छोड़ निकल भागा।  घर पहुंचा तो माँ मुझे देखते ही उखड़ गई , उनकी इस उदासी का लिए मेँ अपराध भाव से दबने लगा।

अगले दिन हम रात का खाना खाने मेज पर बैठे तो माँ ने कहा , “ तू तो मुझे मार कर रहेगा। ”

माँ से ऐसी बात सुनकर मैं सकते में आ गया , पता नहीं कैसे मेरे मुँह से निकला , “ मैं आत्महत्या कर लेता हूँ , तब तो सब ठीक रहेगा न ?”

मैंने थाली खिसकाई और दरवाजे की तरफ बड़ा , “ रुको। ” पीछे से अंकल की आवाज आई , इतने अधिकार से उन्होंने मुझे पहली बार कुछ कहा था , मैं अपनेपन की उस खुशबु से वहीँ रुक गया

उसी अधिकार से उन्होंने माँ से कहा , “ बच्चों से ऐसी बात की जाती है ? ऐसा उसने क्या किया है जो तुम इतना परेशां हुई जा रही हो। ”

माँ किसी तरह अपने आंसू थामे खाना खाती रही।  अंकल ने मुझे भी पहली बार ऊँचे स्वर में कहा ,” अपनी छोटी बहन के सामने ऐसी बातें करते अच्छे लगते हो ?”

संध्या को देखकर मैंने कहा , “ सॉरी। ”

वो मुस्करा दी।

खाने के बाद अंकल ने मुझसे कहा , “ चल अरुण , पान ले आते हैं। ”

चलते हुए उन्होंने घर की चाबी ले ली , और माँ से कहा , वह सो जाएँ। ”

हम चलते चलते पार्क तक आ गए और वहां कोने में पड़े खाली बेंच पर बैठ गए।

“ हाँ , अब सुनाओ क्या हाल हैं ? “ अंकल ने मेरी पीठ पर धोल जमाते हुए कहा।

मैं समझ रहा था कि वह मुझसे खुलने की कोशिश कर रहे हैं।

और कोई समय होता तो मैं उनकी इस कोशिश को झटक देता , पर इस वक़्त मुझे भी सहारे की जरूरत थी।  मैं हल्का सा मुस्करा दिया।

“ जब मैं तुम्हारी उम्र का था तो अपनी माँ से बहुत लड़ता था , अब सोचता हूँ प्यार भी तो सबसे ज्यादा उन्हीं से करता था , मेरी सारी फ़्रस्ट्रेशन उन्हीं पर निकलती थी , और वो भी कितनी जल्दी सब भूल जाती थी। “

“ पर मेरी माँ तो मुझे अपना गुलाम समझती हैं। ” सच कह रहा हूँ मुझे नहीं पता ये मेरे मुहं से कैसे निकला , पर मैं  वहां रुका नहीं , बस बोलता ही गया , “ तलाक लेते हुए मेरे बारे मैं नहीं सोचा , कभी सोचा है उनके हर निर्णय के साथ मेरा जीवन भी जुड़ा है , वो ऐंश करें और मैं एडजस्ट करूँ , क्यों ? मुझे लगता है मेरे भीतर वो पूरा कब्ज़ा कर के बैठी हैं , मुझे मेरा अंतर्मन वापिस चाहिए। ”

उस रात मैं न जाने मन में छुपे कौन से अँधेरे कोनों को टटोलता रहा और बोलता रहा , दूर आसमान मैं सूरज  चढ़ने की आहट हुई तो हम लौट आए ।

उस दिन न जाने मैं कब तक सोता रहा , उठा तो संध्या चाय ले आई।  माँ ने खाना लगा दिया , वो थोड़ी नरम पड़ गई लग रही थी।

मैं खाना खाकर कल की तरह बाहर जाना चाहता था , पर अंकल पहले ही सोने जा चुके थे , शायद कल की नींद पूरी नहीं हुई थी।

सब सोने चले गए , तो मैंने कागज़ निकाला और लिखना शुरू किया , मुझे नहीं पता उस रात मैंने क्या लिखा, लिखने के बाद मैंने सारे पेज फाड़ दिये, और चैन से सो गया।  मैं महसूस कर रहा था , जैसे जैसे मैं अपने मन की घुटन को शब्द दे रहा था वैसे वैसे मैं स्वयं के साथ परचित हो रहा था और मेरे भीतर एक नए आत्मविश्वास  का जन्म हो रहा था । मेरा छाती का दर्द , सांस की कठिनाई, शौच की समस्या सब जाती रही । मैं पहले से कहीं अधिक स्वस्थ अनुभव करने लगा ।

दो दिन बाद शनिवार था , मैं और अंकल जाकर उस बेंच पर बैठ गए , फिर लगातार इसतरह कई दिन जाते रहे , मैं बोलता और वो सुनते , आखिर एक दिन मैंने कहा , ” मैं माँ की बहुत इज़्ज़त करता हूँ और प्यार करता हूँ, पर मेरा जीवन मेरा है , उसे मैं अपने ढंग से जियूँगा। ”

” और वो ढंग क्या होगा ? ”

” में दिल्ली यूनिवर्सिटी ज्वाइन करना चाहता हूँ, और अगले कुछ वर्ष सिर्फ पढ़ना चाहता हूँ.।  आप फ़िक्र न करें अपने गुज़ारे लायक कमा लूँगा। ”

” मुझे उसकी फ़िक्र नहीं है.। ” अंकल ने मुस्कराते हुए कहा। ” अच्छा मुझे यह बताओ तुम क्या लिखना चाहते हो ? ”

” अपने समय को , अपने अस्तित्व को जानना चाहता हूँ , इसी में से जो मूल्य निकलेंगे वही लिखना चाहता हूँ ।”

” फिर इंजीनियरिंग क्यों छोड़ना चाहते हो, आखिर फिजिक्स , मैथ्स का ज्ञान चिंतन को स्पष्ट करेगा। ”

” वो तो है, पर अभी मैं दूसरे विषय पढ़ना चाहता हूँ ।”

” ठीक है , मै तुम्हारे पहले उपन्यास की प्रतीक्षा करूंगा। ”

” तो आपको लगता है मै लिख सकूंगा ?”

” ” क्यों नहीं , अगर तुम्हारे अंदर की आवाज यह कह रही है तो यही तुम्हारा सच्च है। ”

” तो आप माँ से बात करेंगे? ”
” क्यों, मै  क्यों करूंगा , आज से तुम्हारी सारी जिम्मेवरियां अपनी, मैं सिर्फ़ कुछ वर्ष के लिए पैसा भेजूँगा , तुम पर भरोसा करता हूँ, जो मै जनता हूँ  तुम नहीं तोड़ोगे ।”

उस दिन मुझे लगा , मेरे पापा मेरे लिये इससे ज़्यादा क्या करते ।

और मेरे पापा तो हरदम मेरे साथ थे, मैं ही नहीं पहचान पाया था ।

शशि महाजन – लेखिका

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