क्या खूब दिन थे!
क्या खूब दिन थे!
बड़ा मजा आता था बचपन में,
खलिहान हमारा घर हो जाता,
सुबह से लेकर रात तक,
मस्ती ही मस्ती सुहाती!
धान की सटकाई,
पोरे की बँधाई,
आटा सारे बँध जाने पर,
पुआल का गाझा बनता!
शाम पहर धान के गट्ठर पर,
गोबर का पिण्ड रखा जाता,
सांझ के दीपक से,
मॉ अन्नपूर्णा को पूजा जाता!
खलिहानों में दोपहर में,
महिला मजदूरों की चौपाल थी सजती,
खा पीकर, गप्पे मार और आराम कर
फिर काम में जुटतीं !
क्या खूब दिन थे बचपन के,
यादें खींच ले जातीं,
फिर वहीं पचपन से,
सब यादें आती हैं बारी-बारी
अब सब सपना बनकर रह गये,
नहीं रहे हमारे|
प्रतिभा पाण्डेय “प्रति”
चेन्नई
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