सुदेश दीक्षित की कविताएं | Sudesh Dixit Poetry
चंद घड़ी के मेहमान
तुम चंद घड़ी के यहां मेहमान हो
फिर भी बनते फिरते शैतान हो
बताओ तो कब से हो गए इंसान
लगते लोगों को अभी भी हैवान हो
नहीं पहचान पाओगे चालों को तुम
दुनिया में अभी भी तुम नादान हो
फैसला कभी नहीं भी होता हक में
उसके फैसले पर क्यों तुम हैरान हो
बोलें भले ही सबके सामने कुछ भी
मानते हैं आज भी तुम मेरी जान हो
मूंद के आंखें गुजर जाओ करीब से
जैसे कुछ नहीं जानते तुम अनजान हो
मुहब्बत
मुहब्बत को मुहब्बत समझोगे तभी मुहब्बत करोगे।
रहेगी ही नहीं मुहब्बत तो किससे मुहब्बत करोगे।
मुहब्बत की बातें नहीं अच्छी लगती तिहारे मुंह से।
मां बाप से न की तो औरों से ख़ाक मुहब्बत करोगे।
छोड़ कर चले गए परिवार को सोता रात में चुपके से।
परिवार से न की तो खुदा से तुम क्या मुहब्बत करोगे।
डगर मुहब्बत की इतनी आसान नहीं है बरखरुदार।
चलोगे इस पर तो तुम खुद से सच में मुहब्बत करोगे।
दर्द ज़ख्म ग़म दगा धोखा बेवफा का नाम है मुहब्बत।
दीक्षित दोस्ती करोगे इनसे तभी मुहब्बत से मुहब्बत करोगे।
गिले-शिकवे उसको करना नहीं आता।
गिले-शिकवे उसको करना नहीं आता।
दिया ज़ख्म उसको भरना नहीं आता।
खाए हों जिसने धोखे खुद से ही ।
धोखों से उसको डरना नहीं आता।
कैसे यकीं कर लूं कि मर गया वो।
वो जो उसको मरना नहीं आता।
हार कर मैं चुप हो जाता हूं अक्सर।
सच में मुझे झगड़ना नहीं आता ।
ज़िद्दी है मानता ही नहीं बात मेरी।
छूटे पल्लू का छोर पकड़ना नहीं आता ।
सच यही है
सच यही है कि लोग अजमाने लगते हैं।
बात बात पे ताहने सुनाने लगते है।
आज के बच्चों में यही इक दिक्कत है।
भले की बोलो तो आंखें दिखाने लगते हैं।
फेल तो होंगे ही वो समाज की परिक्षा में।
दो दो को चार नहीं छ:जो वताने लगते हैं।
नहीं है ऐसे लोग भी कम हमारे जीवन में।
जो मदद को एहसानों में गिनाने लगते हैं ।
निकलती है मुख से तब भी दुआ उनके लिए
जो जन्म दात्री का दिल जब दुखाने लगते हैं।
कर देता है फैसला सही गलत का पल में।
खुद को जो खुदा से ऊपर बताने लगते हैं ।
छूट जाती है तरक्की जिंदगी में उनसे।
जो बाप को ऊंच नीच समझाने लगते हैं।
चंद घड़ी के
तुम चंद घड़ी के यहां मेहमान हो
फिर भी बनते फिरते शैतान हो
बताओ तो कब से हो गए इंसान
लगते लोगों को अभी भी हैवान हो
नहीं पहचान पाओगे चालों को तुम
दुनिया में अभी भी तुम नादान हो
फैसला कभी नहीं भी होता हक में
उसके फैसले पर क्यों तुम हैरान हो
बोलें भले ही सबके सामने कुछ भी
मानते हैं आज भी तुम मेरी जान हो
मूंद के आंखें गुजर जाओ करीब से
जैसे कुछ नहीं जानते तुम अनजान
सोचा न था
सच बोलने पर झगड़ा होगा सोचा न था।
झूठ से ही मुंह मीठा होगा सोचा न था।
यूं ही मज़ाक में सौदा किया था दिल का।
सौदा इतना मंहगा होगा सोचा न था।
झगड़े सुलझाने ले जाते थे लोग जिसे।
अपने ही खूं से दंगा होगा सोचा न था।
मुक्ति पाने को रावण ले आया था जानकी।
कलयुगी रावण लुटेरा होगा सोचा न था।
बड़े बड़े सपने सजा दौड़ रहे थे नींद में।
होगा एक भी न पूरा ऐसा सोचा न था।
चिड़िया सोने की है भारत अभी भी तो।
आधा हिस्सा नंगा भूखा होगा सोचा न था।
जला कर दिल रौशन की राहें तेरी।
अपने घर में अंधियारा होगा सोचा न
सूरज भी
अनाथ कर बाप जब मरता है।
जमाना तभी सर पे चढ़ता है।
जिंदा है बाप जब तक सच में।
सूरज भी आंख दिखाने से डरता है।
होते हैं होंसले बुलंद बाप के रहते।
साया भी तब पानी भरता है।
कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता दुःख दर्द।
इन सब से हिफाजत बाप करता है।
चुपके से
बड़ी मासुमियत से जो दर्द अदा कर गए।
उठा न सकूं सर इतना खौफ जदा कर गए।
रात गुजारी है कैसे क्या बताएं हम।
हमारे ख्वाब हमी से दगा कर गए।
वो डराते रहे साथ रह कर हमें सदा।
फिर भी हम उनसे वफ़ा कर गए।
मशगूल थे हम पुराने ग़मों को भुलाने में।
चुपके से वो इक ग़म और अता कर गए।
नहीं दिल को अच्छी कोई हसीं चीज अब।
जब से वो बांतों से हमें खफा कर गए।
छोड़ दिया
साया उठा बाप का,बाहर जाना छोड़ दिया।
आई होश जब तोआंखें दिखाना छोड़ दिया।
आ गए जूते बच्चों के पांवों में जब मेरे।
हो गये वो स्याने उन्हें समझाना छोड़ दिया।
घर है खुला जब मर्ज़ी आ के लूट लो।
सांकल टूटी तो ताला लगाना छोड़ दिया।
बहुत छोड़े रखा दिल को साथ उनके ।
किराए दार इसमें बसाना छोड़ दिया।
लौटे तो देखा सब बिखरा था इधर-उधर।
जो लुट गया उस पर आंसू बहाना छोड़ दिया।
दो गली छोड़ ले लिया घर उसने सुना है।
घर पड़ा अधूरा अपना बनाना छोड़ दिया।
सहारे गए
पता नहीं क्यों हम नकारे गए ।
लुटा के सब हम मारे गए।
सहारा दिया अपना समझ।
तभी तो अपने सहारे गए।
वक्त की दौड़ में पिछड़ गए।
हाथों से छूट किनारे गए।
हमने चाहा जी भर सभी को।
हमीं सब ओर से नकारे गए।
बहला कर हमें,हमारे हक।
सामने हमारे डकारे गए।
सुदेश दीक्षित
बैजनाथ कांगड़ा
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