कोप कुदरत का
कोप कुदरत का

कोप कुदरत का

( Kop kudrat ka )

 

कुदरत कोप कर रही सारी
आंधी तूफान और महामारी
फिर भी समझ न पाया इंसां
भूल हुई है अब हमसे भारी

 

खनन कर खोखली कर दी
पावन गंगा में गंदगी भर दी
पहाड़ों के पत्थर खूब तोड़े
खुद ही खुद के भाग्य फोड़े

 

सड़के  पूल जोड़ती सबको
दिलों में आज दूरियां क्यों है
अपनों  से अब दूर रहने की
मानव की मजबूरियां क्यों है

 

मंजर कुदरत का गहना होगा
प्रेम  सिंधु  बन बहना होगा
धीरज धर दुख सहना होगा
हरियाली लाओ कहना होगा

 

सब प्रकृति से प्रेम करेंगे
मानवता पर जिए मरेंगे
संस्कार नव पीढ़ी में भर
वृक्ष लगाओ भाव भरेंगे

?

कवि : रमाकांत सोनी

नवलगढ़ जिला झुंझुनू

( राजस्थान )

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