मार्क्स की दौड़
अभिभावक शिक्षक बैठक(PTM) में बच्चों की परीक्षा की कॉपियां दिखाई जा रही थी। आराध्या भी अपने पिता के साथ PTM में आई हुई थी। आराध्या कक्षा 4 में पढ़ती है।
वह पढ़ाई में काफी अच्छी है, लेकिन एग्जाम में पता नहीं उसको क्या हो जाता है? वह काफी गलतियां कर देती है जिस कारण उसके नंबर काफी कट जाते हैं। जबकि घर पर टेस्ट लेने के दौरान वह ना के बराबर ही गलती करती है।
आराध्या की कक्षा अध्यापिका अनामिका मैडम ने आराध्या के पिता को संकोच के साथ, आराध्या की कॉपियां चेक करने और उसमें आए मार्क्स देखने को दी।
आराध्या के पिता ने मात्र 2 मिनट में सभी विषयों की कॉपियों के ऊपर लिखे नंबरों व आराध्या द्वारा कॉपी में किए गए कार्य पर एक सरसरी नजर डाली और कापियां मैडम को लौटा दी।
अनामिका मैडम ने नज़रें न मिलाते हुए संकोच के साथ आराध्या के पिता से कहा-
“सर आराध्या पर और ज्यादा मेहनत करने की जरूरत है। यह पढ़ाई लिखाई में तो अच्छी है लेकिन एग्जाम में काफी गलती कर देती है। हम तो क्लास में सभी बच्चों को काफी अच्छे से पढ़ाते हैं। आराध्या के मात्र 78% ही मार्क्स आए हैं जबकि इसके मार्क्स कम से कम 90% होने चाहिए थे। आप आराध्या का ट्यूशन लगा दीजिए। इससे मार्क्स बढ़ाने में मदद मिलेगी।” यह कहकर मैडम चुप हो गई।
आराध्या भी नजरे झुकाए खड़ी थी। वह अपने पापा से नज़रें नहीं मिला पा रही थी।
“कोई बात नहीं मैडम जी, आराध्या के तो काफी नंबर आ गए। जब मैं पढ़ता था तो मेरे इतने कभी मार्क्स नहीं आये। कम से कम आराध्या के इतने सारे मार्क्स आए तो सही। यह तो पढ़ाई में मुझसे बहुत ज्यादा होशियार है। मुझे अपनी बेटी पर गर्व है।” आराध्या की नज़रें नीची देखकर.. उसका मनोबल बढ़ाने के लिए… आराध्या की पीठ थपथपा कर पिताजी बोले।
वे आगे बोले- “मैडम जी, मैं नंबरों की दौड़ में ना तो कभी खुद पड़ा और ना ही अपने बच्चों को दौड़ाना चाहता हूँ। मार्क्स से ज्यादा जरूरी यह है कि आपका बच्चा कुछ जानता भी है या नहीं? मुझे पता है कि आराध्या को सब कुछ आता है। एक दिन आराध्या अपनी गलतियों से सबक लेते हुए सबको पीछे छोड़ देगी। अभी मैं इसको गलती करके सीखने के पर्याप्त अवसर देना चाहता हूँ.. वह भी बिना दबाव बनाएं। वह पढ़ाई को इंजॉय करें.. उसको बोझ न समझें।”
“मैंने पहले व्यक्ति आप देखे हैं जो मार्क्स को इतना ज्यादा महत्व नहीं दे रहे। सुबह से हर अभिभावक को मैंने बच्चों पर ज्यादा मार्क्स लाने का दवाब बनाते तथा कक्षा में प्रथम तीन स्थानों पर जगह बनाने के लिए डाँट लगाते देखा है। एक बच्चे की दूसरे बच्चे से तुलना करते देखा है। मैं आपकी सोच से प्रभावित हूँ और सहमत भी। क्या मैं जान सकती हूँ कि आप करते क्या हैं?”
“मैं भी आपकी तरह एक अध्यापक हूँ। मैडम जी, मेरी बातें आपको अजीब लग रही होंगी, लेकिन मैं मानता हूँ कि खेलने कूदने की उम्र में छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाई को लेकर.. मार्क्स ज्यादा लाने को लेकर.. इतना ज्यादा जवाब बनाना ठीक नहीं है। हमें बच्चों से उनका बचपन छीनने का कोई हक नहीं है।
इसी उम्र में बच्चों का सर्वांगीण विकास होता है। मैं जानता हूँ कि ऐसा करने से, बच्चों पर दबाव बनाने से, बच्चों के बौद्धिक, शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जो आगे चलकर बहुत घातक सिद्ध होता है।
अगर हमारा बच्चा चीजों को समझता है, प्रश्नों के सही जवाब देता है, सवाल हल करने का तरीका जानता है.. तो मैं मानता हूँ कि यह पर्याप्त है। फिर यह मायने नहीं रखता कि बच्चों के मार्क्स कम आएं हैं या ज्यादा। कक्षा में बहुत सारे बच्चे होते हैं।
उन बच्चों में सिर्फ तीन बच्चे ही प्रथम तीन स्थानों पर रहेंगे..चाहे 50 बच्चों ने मार्क्स ज्यादा लाने के लिए जी-तोड़ मेहनत की हो। मार्क्स की लड़ाई में बाकी 47 बच्चों पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है, जिससे वे डिप्रेशन में जा सकते हैं। इसलिए उनसे प्रेम से पेश आना चाहिए व उनको प्यार से समझाना चाहिए।
अतः बेहतर है कि हम बच्चों के मार्क्स न देखकर… यह देखें कि बच्चों को नॉलेज है या नहीं। तभी हमारा बच्चों को पढ़ाना सफल होगा।”

लेखक:- डॉ० भूपेंद्र सिंह, अमरोहा
यह भी पढ़ें :-







