Ab Bhi
Ab Bhi

अब भी

( Ab Bhi ) 

 

ज्यादा कुछ नही बिगड़ा है अभी
संभलना चाहोगे तो संभल जाओगे
कौन नही गिरा है अभी यहां पर
उबारना चाहोगे तो उबर जाओगे…

दिखती हो बंजर भले कोई धरती
बूंदों के आगमन से छा जाती हरियाली
आया हो भले ये मौसम पतझड़ का
ठानते ही आएगी फिर खुश हाली…

धाराओं मे बंटकर बहाव कम होता है
पहुंच जाता है जल फिर भी सागर तक
पानी भले भरा हो आधा ही घड़े तक
कंकड़ के प्रयास से पहुंच जाता है मुंह तक…

न रुकती है जिंदगी और न वक्त ही
न रुकता है सूरज और न चांद ही
तब पथिक रुक रहा क्यों तू हार मान
न अवसर खत्म होते हैं ,न उम्मीद ही….

फिर बढ़ाकर हांथ समय को देख ले
अब भी रास्ते हैं कई इंतजार मे तेरे खड़े
अब भी छू सकता है ऊंचाई तू गगन की
माना की अब भी राह मे हैं कंटक पड़े…

 

मोहन तिवारी

( मुंबई )

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