अहं का नशा

अहं का नशा

नशा मदांध कर देता है
मनुष्य जन्म का मूल
उद्देश्य ही भुला देता है
जो उड़ते है अहं के आसमानों में
ज़मीं पर आने में वक़्त नही लगता
हर तरह का वक़्त आता है ज़िंदगी में
वक़्त गुज़रने में वक़्त नही लगता हैं
नशा जहर से ज़्यादा घातक है
अहं का नशा हावी हो ही जाता है
और उनके विवेक पर सही समझ
के विकास का पर्दा पड़ ही जाता है
वह इसी तरह कुछ विशेष
उपलब्धि होने पर या
अच्छी-खासी कमाई कर लेने
पर बहुधा आदमी में आ जाता है
अहम मन में हो जाता है
सर्वोपरि होने का वहम
दिमाग में इस प्रकार
छा जाता है एक नशा सा
तब आदमी समझने लगता हैं
अपने आपको समझदार खासा
उसकी बोली में भी, भाषा में भी
झलकने लगता है यह नशा।
बहुत बार तो उसे सही
गलत का भान ही नहीं रहता
कि अहं में वह खुद भी
बन जाता है एक तमाशा
वे फिर यह भूल जाते हैं कि
तूफान ज्यादा हो तो कश्तियाँ
भी डूब जाती हैं और अहं ज्यादा हो
तो हस्तियाँ भी डूब जाती हैं
हम यह कई प्रसंग में देख समझ सकते है
कल तक जो राजा था आज वो रंक़ हैं
कल तक जो भोगी था आज वह योगी है
हम झुककर चलेंगे तो यह धरती भी मान देगी
अगर अहं के नशे में चलेंगे तो गर्त में जाना निश्चित है ।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)

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