अंतिम चांस | Antim Chance
वैसे उन्हें गुरु जी कहते थे। कहें भी क्यों नहीं जो उन्ही के ही मार्गदर्शन में तो कई उच्च अधिकारी बन गए थे । परंतु भाग्य की विडंबना कहे या कर्मों का फल जो कुछ भी कह लें कई बार तो एक नंबरों से ऐसे लुढ़क पड़ते थे जैसे कोई पहाड़ी से फिसल गया हो।
उम्मीद के सहारे बैठे-बैठे उनके सिर के सारे बाल झड़ चुके थे । खैर मनाइए कि उनकी शादी विवाह हो चुके थे। नहीं तो जनाब मेहरिया का भी सुख नहीं देख पाते । अरे पढ़ने लिखने से क्या होता है अब नोट का जमाना है नोट का! जिसकी कांखी में नोट है वही सबसे बड़ा धर्मात्मा हैं इस जमाने में। नोट बिना सारे गुण धर्म दो कौड़ी के है!
क्या-क्या जनाब आप डिग्रियों को ले लेकर के उससे पेट भरने वाले नहीं । ऐसा तो नहीं हो सकता तो फिर किस काम की है यह डिग्री । जब तक पेट भरा रहता है सब ठीक है । नहीं तो लो सुनते रहो कवि सम्मेलन देखो तुम्हारा पेट भरता है कि नहीं।
जनाब की उम्र भी धीरे-धीरे बढ़ने लगी है । बाल तो रहे नहीं अब दाढ़ी भी पकने लगीं हैं। उनके एक बेटी है 10 वर्ष की ।
वह जब मम्मी से पूछतीं है कि-” पापा कहां रहते हैं? क्या करते हैं? वे जब घर आते हैं खाली क्यों चले जाते हैं ? मम्मी आपके लिए सुंदर-सुंदर साड़ी एवं हमारे लिए जींस शर्ट नहीं लाते पापा जी ।”
अब मैं कैसे समझाऊं बेटी को की पापा कोई बिजनेस या नौकरी नहीं करते।
बल्कि अभी अंतिम चांस की आस लगाए बैठे हैं । हो सकता है उम्मीद की अंतिम कड़ी साथ दे जाए । कैसे धैर्य बिठायें रिंकी बिटिया को कि तेरे पापा जब बहुत बड़े अफसर हो जाएंगे तो एक क्या , दसों रंगों के कपड़े से बिटिया रानी को सजा देंगे ।
बिटिया का फ्रॉक भी फटने लगा है । किसी भी तरह से सिलकर काम चला रही है। यही हालत मेरी साड़ी की है। परंतु जब कहिए जनाब से तो यही कहेंगे -“थोड़ा और धीरज रखो मेरे सपनों की रानी ! देखना जब मैं अफसर बन जाऊंगा तो तुझे हीरे जड़ित साड़ी ला दूंगा। ”
लोगों के ताने सुनते सुनते भी अवसाद ग्रस्त रहने लगे हैं । दिनभर अकेले कमरे में बैठे-बैठे किताबों को पन्ने पलटते रहते हैं। परंतु पढ़ने का मूड नहीं होने के कारण किताब बंद कर देते हैं । जो भी पढ़ने लगते हैं तो लगता कि दसों वर्षों से रात रात भर रट रहा हूं ।
किताब का एक-एक पृष्ठ उन्होंने रट लिया है तो अब नई बातें क्या है? जिसे पढ़ा जाए। परंतु मन को भी शांत्वना देनी है कि बच्चा पड़ेगा नहीं तो सफल कैसे होगा ! छोटे बच्चों की तरह रहना उन्हें नहीं भाता ।
अरे जनाब एक उम्र भी होती है रात रात भर पढ़ने की । बुढ़ापे में तो रटा जाए ।
क्या कहा मैं बूढ़ा हो गया! अरे अभी उम्र ही कितनी है हमारी! 35 वर्ष होने वाले हैं । क्या कोई 35 वर्षों में बूढ़ा होता है?
बूढ़ा नहीं तो क्या दिन रात किताबों में आंखें गड़ाए गड़ाएं आंखों में चश्मा लगने लगा है। धीरे-धीरे आंखों की कमजोरी बढ़ती जा रही है । सर के सारे बाल तो गायब हुए ही चेहरे पर लकीरें भी दिखने लगी हैं । आखिर किस सुख के लिए मैं जिंदगी को क्यों बर्बाद कर दे रहा हूं?
धीरे-धीरे मौज मस्ती की सारी बातें भी छुटती जा रहे हैं। क्योंकि यह कोई ऐसी वैसी तो परीक्षा है नहीं कि जैसे मर्जी हो लिख दिया और पास होने का सर्टिफिकेट मिल गया । अरे इसमें तो लाखों को पछाडते हुए अपनी जगह बनानी पड़ती है ।
यदि एक से भी चूके तो मेरिट हजारों के नीचे पहुंच जाती है । अभी पिछले वर्ष की परीक्षा में तो मात्र दो नंबरों के कारण छांट दिया गया। बहुत आस लगाए बैठा था कि इस बार सलेक्शन हो कर रहेगा परंतु भाग्य की लीला कहें लौटना पड़ा।
आज कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। धीरे-धीरे अब किसी से मिलने की इच्छा भी तो कम होती जा रही है । ? क्या रखा है मिलने में । कभी-कभी इच्छा होती है तो गंगा किनारे चले जाते हैं जहां मां गंगा की शीतल निर्मल धारा मन को थोड़ा सुकून देती है।
कभी-कभी नदी किनारे बैठे-बैठे खुले आसमान के नीचे सोचने लगते हैं-” बचपन में मैं भी कितना मुक्त था ! कहीं कोई टेंशन नहीं। खाया पिया मौज किया, कभी-कभी सिनेमा भी देख लिया। जब घर वालों को पता चला तो झूठ बोल दिया कि दोस्त के यहां बहुत जरूरी काम से गया था ।कभी-कभी झूठ काम कर जाता था ।
परंतु कभी-कभी इसका उल्टा जब हो जाता तो बहुत डांट पड़ती थी। उस डांट में भी आनंद था । अगले दिन फिर वही मस्ती शुरू हो जाती । जब कोई समझाता कि पढ़ लिख लो भविष्य में नहीं तो पछताओगे ।
तो मैं उसे ही समझा देता। भविष्य को मारो गोली यार! किसने देखा है कल क्या होगा? जीवन को आज भरपूर जी लो।कल रहे ना रहे । अच्छा वह हर दम किताबों को चाटती गुड़िया जब देखो तब उसको कोई ना कोई प्रोजेक्ट वर्क ही करना रहता उसको ?
नाम तो वैसे साधना था परंतु मैं उसे चिढ़ाने के लिए साधु कहा करता था । तो वह गजब की स्मार्ट थी जनाब ।किसी की क्या मजाल की उसे कुछ भी कह कर निकल जाए ।”
लेकिन मैं भी कच्ची गोली नहीं खाई थी । उसको एक न एक दिन पिघला ही दिया परंतु वह अपने घर वालों से इतनी डरी सहमी थी की कोई उत्तर सही नहीं दे सकी। वह कोई पत्थर की मूरत थोड़ी थी। उसके भी मन में संवेदना थी परंतु समाज के पहरेदारों ने हमारे उसके बीच दूरियां बना दिया था।
समय बदलता गया। वह विद्यालय की टॉपर बनीं ।उसे गोल्ड मेडल मिले तो मेरा हृदय खुशी से भर गया। अपुन को क्या किसी तरीके से पास हो गया। सब बातें समय के अंधेरे में खो गई।पिछले कई वर्षों से उसका कुछ पता नहीं चला है।”
अरे मैं किसी सपने में खो गया। कहां वह मस्ती भरे दिन थे। कहां आज है इस बार अंतिम चांस है! कहीं ना हुआ तो हम कहीं के नहीं रहेंगे।। हमने जिनको गाइडलाइन दिया, पढ़ाया वह आज डीएम बन गए हैं और मैं कोई छोटा बाबू गिरी करूं । क्या यह मेरे व्यक्तित्व को शोभा देता है ?लेकिन जनाब जीने के लिए भी खाने को चाहिए क्या हवा पीकर जिओगे?
अरे अभी इतनी चिंता करने की क्या जरुरत आ पड़ी है ?
अभी तो अंतिम चांस बाकी है। जो होगा देखा जाएगा ।परंतु मन को कौन समझाए ।
यह अनेकों ख्वाब बुनता रहता है ।
कभी मन बेचारा मासूम हो जाता है तो कभी खुशी से झूम उठता है। खुशी गम के साए तो जीवन में लगे ही रहते हैं । उनसे इतना घबराने की क्या जरूरत है? अब सब भूलकर परीक्षा की तैयारी करनी होगी!
मन ना लगे फिर भी समझाना होगा। देख मेरे मन !तू अब ख्वाब देखना छोड़ बेटा! मेरी जिंदगी का अंतिम चांस है! यह तू समझता क्यों नहीं ?
क्यों इतनी धमा चौकड़ी लगाता है । रुक जा मेरे भाई !नहीं तो मैं बर्बाद हो जाऊंगा !आखिर तू समझता क्यों नहीं है !क्या तू मुझसे जूते साफ करवाना चाहता है! तू जानता है ना की मैं यदि इस बार भी सफल नहीं होकर दिखाऊंगा !
अरे यह मैं क्या सोचने लगा। इतना नेगेटिव में कैसे हो गया। अभी नहीं मुझे पाज़िटिव थिंकिंग रखकर तैयारी करनी है। अपने लिए ना सही तो कम से कम अपनी लाडो समान बिटिया के लिए मुझे जीना होगा ।सफल होना होगा। जिंदगी यही खत्म नहीं हो जाती। अभी मुझे आसमान छूना है। उस फतह की अंतिम घड़ी अभी बाकी है।
नोट – यह कहानी सत्य घटना पर आधारित है। आपकों कैसी लगी प्रतिक्रिया जरूर व्यक्त करें।
योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )