अपना प्यारा गांव

( Apna Pyara Gaon )

 

जिस माटी पर पड़ा कभी
अपने पुरखों का पांव है।
महानगर से लगता मुझको
अपना प्यारा गांव है।

घर चौबारा आंगन देहरी
चौरा छप्पर छानी।
जाने कितने सुखों दुखों की
कहते नित्य कहानी।
पर्वों त्योहारों पर कितनी
हलचल हुई यहां पर,
बचपन हुआ जवान यहां का
खाकर दाना पानी।

भाव भरे मन का अभाव भी
आकर क्या कर लेगा,
ताप सभी शीतल होते
द्वारे पीपल की छांव है।
महानगर से लगता मुझको
अपना प्यारा गांव है।

गीतों की गुनगुन से गुंजित
रहते चूल्हा चक्की।
कितने ही पकवान बनाते
ज्वार बाजरा मक्की।
दादा दादी चाचा चाची
बच्चे टेर लगाते,
घूंघट से स्वर मुखरित होते
चाची अम्मा कक्की।

गिलहरियां गौरैया दिनभर
आंगन आंगन चहकें,
भिनसारे ही बैठ मुंडेरे
कागा करता कांव है।
महानगर से मुझको लगता
प्यारा अपना गांव है।

जाने कैसा, कण-कण से क्या
जुड़ा हुआ सम्बन्ध है।
जाने कितनी सुधि सपनों की
भरी पवन में गंध है।
सभी कहीं से घूमघाम कर
लौट यहीं मन आता,
इस धरती से हुआ न जाने
कैसा यह अनुबंध है।

थके हुये इन पांवों को अब
और कहां ले जाऊं,
जीना मरना सभी यहां पर,
और न कोई ठांव है।
महानगर से मुझको लगता
प्यारा अपना गांव है।

जिस माटी पर पड़ा कभी
अपने पुरखों का पांव है।
महानगर से लगता मुझको
अपना प्यारा गांव है।

sushil bajpai

सुशील चन्द्र बाजपेयी

लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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