
आषाढ़ के काले बादल
( Ashadh ke kale badal )
चारों और छाया ये घोर ॲंधेरा,
ये प्रकृति की देखों क्या माया।
आज नीले- नीले आसमान में,
घना ही काला ये बादल छाया।।
घड़ड घड़डकर ये बादल गरजे,
बादल संग बिजली भी कड़के।
गरज रही आज बदली नभ मे,
मोर पपीहा भी बोले ये संग मे।।
इधर भी गर्जन उधर भी गर्जन,
ख़ुश है मानसून देख सब जन।
वर्षा की बूंदे लगी जब तन पर,
झूम उठा सब का यह तन मन।।
नाच रहे थें जैसे खेत खलिहान,
पशु पक्षी फ़ूल पत्ते हर इन्सान।
हर जगह छाई आज खुशहाली,
खेतों में आयेगी अब हरियाली।।
मूॅंग-मोठ ज्वार-बाजरा मक्का,
ये धान है इससे जीवन सबका।
सलामत रखना ईश्वर सभी को,
आषाढ़ में खिलती कलियों का।।
रचनाकार : गणपत लाल उदय
अजमेर ( राजस्थान )