आवारा धूप | Awara Dhoop
आवारा धूप
( Awara dhoop )
धूप तो धूप ही होती है
इस कोहरे ठंड से ठिठुरते शहर में
धूप का इंतजार रहता है सबको
कहीं से थोड़ी सी धूप मिले,
सूरज सो गया है कंबल में लिपटकर,
धूप को सुला लेता है,
आगोश में अपनी ,
धूप सो जाती है, सूरज की बाँहो में
नींद के पंखों पर सवार,
प्रणय मिलन के बाद,शिथिल सूरज
अपने सीने में सिर छिपाये धूप को,
धीरे से करता है आजाद,
तो नशीली हो उठती है गुनगुनी धूप,
जिद्दी हो जाती है धूप,
आवारा सी घूमती है धूप,
जहां मन करता है,
वहाँ पसरने लगती है धूप,
जो लोगों के इंतजार को,
खत्म करती है धूप,
आंगन में, बालकनी ,पेड़ फूलों,
गाय, भैंस, कुत्तों पर भी,
बिखरने लगती है धूप,
मतवाली धूप में खेलने लगते है,
बच्चे खरगोश के भी,
पूजा घर में भी खेलती है धूप,
आरती के स्वरों में मिल जाती है धूप,
झोपड़ियों के छोटे-छोटे सुराखों से भी,
छन छन कर आती है सुनहरी धूप,
सुबह-सुबह नहा कर आती,
मां के गीले बालों पर भी फैलने लगती है धूप,
ये धूप चिलचिलाती भी बन जाती है,
नाम मनुष्य ने ही रखे हैं, धूप के,
धूप स्वतंत्र हैं, मालिक है अपनी मर्जी की,
धूप कैद नहीं तुम्हारी मुट्ठी में,
कोई कैद नहीं कर सकता धूप को,
आवारा सी भोली है धूप,
जीवनदायिनी है धूप,
धूप है तो जीवन है |
इन्दु सिन्हा”इन्दु”
रतलाम (मध्यप्रदेश)