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भाग्य
( Bhagya )
एक डाली टूट कर, गिर के जँमी पे आ गयी।
अपनों से कटते ही, दुनिया की नजर में आ गयी।
बचना है उसको, बचाना है यहाँ अस्तित्व को,
द्वंद में ऐसी पडी, घनघोर विपदा आ गयी।
किसको अपना मानती, सन्देह किस पर वो करे।
इससे थी अन्जान अब, समाधान कैसे वो करे।
घूरती दुनिया की नजरे, जान कर अन्जान थी,
जो घरौंदा था कभी, अब ना रहा क्या वो करे।
पवन की गति दामिनी, आकर गिरी उस डाल पर।
डाली टूटी और घरौंदा, बिखरा है अब राह पर।
कोई ना इसमे बचा, इक छोटी चिडिय़ा छोड कर,
उसकी ही ये दास्तान, हुंकार लिखता आह पर।
भाग्य की गति रूग्ण होती, काल से कालान्तर।
कौन जाने कब कहाँ, ले जाए वो देशान्तर।
भाग्य पर इतरा न जाने, कब ये पलटी खाएगा।
सोचने से ना मिलेगा, राम मन रम माधवम्।
कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )