भूख | Bhookh Par Kavita
भूख
( Bhookh )
मैं भूख हूं,
मैं मिलती हूं हर गरीब में अमीर में
साधू संत फकीर में
फर्क बस इतना किसी की पूरी हो जाती हूं
कोई मुझे पूरा करने में पूरा हो जाता है
मैं आदर्शवाद के महल के पड़ोस में
पड़ी यथार्थवाद की बंजर जमीन हूं
में मिलती हूं मजदूरों में
,मजबूरों में,मजलूमों में
उनके परिवार की आंखों में
उनकी हड्डियों केढांचों में,मैं मिलती हूं
उस बच्चे के सूखे कंठ में जिसे सींचने के लिए
उसकी मां बेच देती है अपनी आबरू।
अक्सर मिल जाती हूं किसी कोठे पर
बचपन के रूप कुचलते मसलते और सिसकते हुये।
और कभी खुद के अस्तित्व को तलासती हूं
एक मध्मय वर्गीय परिवार की रसोई में,
खाली पड़े टीन के डिब्बों में
पर यहां मैं स्वयं को छिपा लेती हूं
संस्कारों एवम् मर्यादाओं के घेरे में
किसी को नजर नहीं आती,
डरी सहमी सी दुबक जाती हूं
मैं बजती हूं उन घुंघुरुओ में
जो बचपन के पैरों में बंधे होते हैं
मैं लटकती हूं नट की उस रस्सी पर,
जिस पर कोई बचपन करतब
करते हुये पिघल रहा होता है
उसके श्रमबिन्दुओं के रूप में
मेरे आंसू टपक रहे होते हैं।
मैं मिलती हूं बैलों की जोड़ी में,
हल और माची में।लोहार के घन,
बढ़ई के बसूले और कुम्भार की माटी में।
कभी- कभी आस बनकर पड़ी रहती हूं
सड़क किनारे पोलीथीन और कचरे में
अगर नहीं,पहुंचती तो सरकारी हुक्मरानों के दफ्तरों में
क्योंकि वहां हर कोई किसी बड़ी फाइल में मस्त है
दरवाजे पर खड़ा चपरासी बाहर ही रोक देता है
ये कहकर कि बाद में मिलना साहब अभी ब्यस्त हैं।