भोर की नव बेला
भोर की नव बेला

भोर की नव बेला

( Bhor ki naw bela )

 

मैं करोना को हराकर बाहर आई हूँ

खुद की बहादुरीपर थोडा इतराई हूँ

मालूम था सफर बहुत कठिन है

फिर भी हिम्मत खूब मन में जुटाई है

 

खूब पिया पानी खूब भाप भी ली

खूब प्राणायाम की लगाई झडी

लम्बी साँसे छत पर जाकर खींची

प्रभु स्तुति में पल प्रतिपल लीन हुई

 

हाँ विचलित रही परिचितो की मृत्यु से

देश के कौने कौने की अनहोनी खबरो से

लोगो के जीवन की लड़ाई के मंजर से

अचानक आई संसाधनो की कमी से

 

पर बाहर तो आना ही था समस्याओं से

याद किया और विचारा होसलो से लड़ने वाले

नर्स डाक्टर्स वार्डवॉयज एंबूलेंस आटो डाइवर्स

समाजसेवी  सर्घष रत लोगो को

 

 देखा सरकारी एवं गैरसरकारी लोगो को

जुझारू बनकर व्यवस्था सम्भालते हुऐ

लाशो के बाजार में आँसू की बहती गंगा देखी

सडको से गलीहारों तक भयावह तम देखा

 

कलम को सिपाही बनाकर कमान थामे रही

हर टूटे हुऐ मन को दिया सहारा एवं हौसला

लिखी मुस्कुराहटे कपकंपाती कलम से

लगातार बाँटती रही सकारात्मक ऊर्जा

 

दिल को मिला सुकून मिला सहारा खूब

दुख जो आया उसे जाना होगा जुरूर

ये जुरूरी बिल्कुल नहीं रोया ही जाऐ

हंसते मुस्काते भी क्यूं ना ये दिन काटे जाये

 

हिम्मत बडी चीज है बडो की है सीख भी

मन चंगा तो तन चंगा सुना था कभी

एक-एक ग्यारह बने जरूरत आज की है

फतह हासिल करने का मूल मंत्र भी यही

 

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डॉ. अलका अरोड़ा
“लेखिका एवं थिएटर आर्टिस्ट”
प्रोफेसर – बी एफ आई टी देहरादून

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