दरख़्त कुल्हाड़ी | Kavita
दरख़्त कुल्हाड़ी
( Darakht kulhari )
बूढ़ा दरख़्त बोल पड़ा कुल्हाड़ी कहर बहुत ढहाती
बिन लकड़ी के तू भी व्यर्थ चोट नहीं पहुंचा पाती
जिस लोहे की बनी हुई वह भी तो चोटे सहता है
अपना ही जब चोट करें तो दर्द भयंकर रहता है
बिन हत्थे के तू कुल्हाड़ी चल भी नहीं पाती है
लकड़ी का सहयोग पाकर तीखे वार चलाती है
परोपकार धर्म हमारा मरकर भी कर जाएंगे
भोजन पकाने चूल्हे में हम इंधन बन जाएंगे
सजा देंगे घर किसी का कुर्सी या टेबल बनकर
खाट बनकर आराम देंगे थका हारा सोए तनकर
जब-जब इतिहास तुम्हारा प्रसंग कोई भी आएगा
विध्वंसक कुल्हाड़ी को फिर जरूर बताया जाएगा
सोने की लंका नगरी को अंतर भेद ढहा जाए
कुल्हाड़ी में लकड़ी देख दरख़्त क्या कर पाए
कवि : रमाकांत सोनी
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )