स्वयंसेवको के आदर्श : दीनदयाल उपाध्याय

स्वयंसेवक वह जो अपने समस्त कर्तव्यों को करते हुए राष्ट्र की बलिबेदी पर न्योछावर हो जाए। सच्चा स्वयंसेवक किसी के ऊपर भार नहीं बनता बल्कि वह छोटे से छोटा काम भी स्वयं ही करता है। स्वयंसेवक वह हीरा है जिसकी चमक की धार कभी कम नहीं पड़ती।

डॉक्टर हेडगेवार एवं गुरु जी ने जो स्वयंसेवकों के लिए आचार संहिता बनाए थी उसके दीनदयाल साक्षात प्रतिमूर्ति थे । उनकी भाभी उनके बारे में रहती थी कि-” वह किसी से कभी सेवा नहीं करवाता था। बचपन में उसके सिर में फोड़े हो गए थे ।

सारा सिर फोटो से भर गया था। किसी को बताया भी नहीं । घर में आटा नहीं था तो आप सर पर चुपचाप गेहूं लाद कर ले गया और उसे पिशवाकर गरम गरम अपने सिर पर धरकर ही ले आया। ऐसा हिम्मतवाला और कष्ट सहिष्णु रहा था वह।”

इसी प्रकार प्रयागराज के एक स्वयंसेवक के पिताजी जहां दीनदयाल जी उसके घर गए थे कहा -“मुझे तो यह नेता बिल्कुल नहीं लगे लल्लू। यह तो कोई साधु सन्यासी लगते हैं । इतनी सादगी इतनी गंभीरता इतनी निष्प्रियता और धर्म के प्रति ऐसी निष्ठा तो किसी साधु में ही होती है।”

वास्तव में स्वयं सेवक के पिता ने जो कहा सत्य ही कहा ।करोड़ की संख्या में भगवा पहन कर दर-दर भडटकने वाले साधु भी वें नहीं थे बल्कि उनके जीवन में साधुता थी।

उनका जन्म मथुरा के स्वामी का नगला नामक गांव में २५ सितम्बर १९१६ को हुआ था। वह अभी 4 वर्ष के भी नहीं हुएं थे कि थोड़े-थोड़े दिन के पश्चात उनके माता-पिता का देहांत हो गया। बचपन में ही जब बच्चों को माता-पिता की अत्यंत आवश्यकता होती है वह छोड़कर चले गए।

दीनदयाल अनाथ हो गए । परंतु संसार के सारे रिश्ते नाते जब समाप्त हो जाते हैं। संसार की निराशा के बीच एक मात्र परम प्रभु का सहारा ही अंतिम बचता है । अबोध दीनदयाल जीवन और मृत्यु का यह खेल कुछ समझ नहीं पाया।

लेकिन दुखों का पहाड़ टूटना अभी खत्म नहीं हुआ। वे जब तेरह ही वर्ष के थे उनके छोटे भाई शिवदयाल की टाइफाइड से मृत्यु हो गए । माता-पिता के पश्चात भाई के देहावसान से उन्हें संसार की असारता का बोध होने लगा।

उन्हें लगा कि एक दिन मुझे भी इसी प्रकार चला जाना पड़ेगा तो इस जीवन का क्या अर्थ रहा। उन्होंने जीवन की वास्तविकता का जब गहराई के साथ अनुभव किया तो लगा कि जब एक दिन मुझे भी इसी प्रकार चले जाना है तो क्यों ना कुछ करके जाया जाए। उनका जीवन अब विरक्त सन्यासी की भांति हो गया।

उन्होंने सोचा कि मानव जीवन का उद्देश्य मात्र अपने लिए जीना नहीं है । अपने लिए तो कुत्ते बिल्ली जैसे जीव भी जी लेते हैं ।अपने लिए जिया तो क्या जिया? शमशान में जाकर एकाध क्षण तो सभी के जीवन में वैराग्य कीड़े फूटने लगती है परंतु कितने लोग ही उसे स्थाई बना पाते हैं। और वह बिरले ही धन्य होते हैं।

आगरा विश्वविद्यालय से एमए करने के पश्चात उन्होंने 1942 में एल.टी. किया। उन्हें लगा कि समाज सेवा का कार्य उच्च शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात और अच्छी तरह से किया जा सकता है। पढ़ाई के दौरान ही वह राष्ट्रीय स्वयं संघ के घनिष्ठ संपर्क में आए और वह कुछ दिनों में ही प्रमुख कार्यकर्ता बन गए।

वे जहां भी जाते उनके मधुर व आत्मीय व्यवहार के कारण उन्हें लोग गले से लगा लेते। लखीमपुर जिले के गोकर्ण गांव का जब स्वयंसेवक बनाकर भेजा गया तो उन्होंने गांव वाले का दिल जीत लिया।

गांव के एक मात्र हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक के रिटायर्ड होने के पश्चात गांव वालों ने प्रधानाध्यापक के पद की पेशकश की और ₹300 वेतन देना चाहा। यह सुनकर उन्होंने कहा -” भाई!मुझे दो धोती और दो कुर्ते और भोजन की आवश्यकता है। लगभग 30 रुपए में मेरा सारा खर्च चल जाता है।

इतने रुपए का क्या करूंगा ?लोगों ने जब उनकी बात सुनी तो दंग रह गए ।उन्होंने यह बात मात्रा कहा ही नहीं बल्कि आजीवन इसका निर्वाह भी किया। उस हाई स्कूल में जब तक रहे वेतन मात्र ₹30 मासिक ही लिया।

उनका जीवन ही स्वयं में संदेश था ।’वसुधैव कुटुंबकम ‘और ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु ‘ की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी थी । वे पत्तों को सीचने पर विश्वास नहीं करते थे बल्कि मूल को ही सीचने के हिमायती थे ।जब जड़ मजबूत होंगी तो तना सहज में मजबूत होता जाएगा।

समाज में आज जो भ्रष्टाचार, घूसखोरी , नफरत की दीवारें खींचने लगी है उसके मूल में यही है कि हमारे राजनेताओं ने कभी अपने वोट बैंक के कारण सामाजिक एवं राष्ट्रीय किसी भी समस्या का समाधान नहीं खोजा । जिसके कारण आजादी के सात दशक बीत त जाने के पश्चात भी देश में गरीबी , भुखमरी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार बढ़ती जा रही है।

काम में सबसे आगे और सम्मान में सबसे पीछे रहने वाले दीनदयाल जी आजीवन एक स्वयं सेवक की भांति जिए और मरे भी तो स्वयंसेवकों का जीवन धन्य कर गए । 11 फरवरी 1967 को सदा सदा के लिए प्रभुधाम के पथिक बन गए। आज वे नहीं है परंतु मानवता के लिए उन्होंने सेवा की सदा सदा के लिए स्मरण किए जाते रहेंगे।

 

लेखक : योगगुरु धर्मचंद्र

प्रज्ञा योग साधना शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान
सहसो बाई पास ( डाक घर के सामने) प्रयागराज

संदर्भ देश के कर्णधार पृष्ठ ११९से १२१

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