Dhalti Saanjh
Dhalti Saanjh

ढलती साँझ

( Dhalti saanjh )

 

ढलती साँझ के साये तले
कदम हमारे हैं बढ़ चले
गहराती रात का अंदेशा है
कल के आगाज का यही संदेशा है

बदली हुई धाराओं का शोर है
एक अलग ही अंदाज चहुँओर है
भूल चुके हैं दिन की तपिश को हम
जाने कल आने वाली कैसी भोर है

समझने को कुछ हम तैयार नहीं
भटकाए हैं खुद को कोई गैर नहीं
मानसिकता ही बदली है ऐसी
व्यक्तिगत किसी से कोई बैर नहीं

पाश्चात्य के असर में अतीत भूले
घर के लगाव में अपनों की प्रीत भूले
परिधान छूटा, लय,संगीत छूटा
अपने ही संस्कृति सभ्यता को भूले

क्या होगा परिणाम विचार नहीं इसका
होगा अंतिम उत्तर क्या ज्ञान नहीं इसका
वक्त के दामन में ही है भविष्य पले
ढलती साँझ के साए तले
कदम हमारे हैं बढ़ चले

 

मोहन तिवारी

( मुंबई )

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