धिक्कार | Dhikkar
धिक्कार!
( Dhikkar )
सिसक रही क्यों ममता मेरी
हाहाकार मचा है क्यों उर मेरे
नारी होना ही अपराध है क्या
क्यों सहती वह इतने कष्ट घनेरे
पली बढ़ी जिस गोद कभी मैं
उसने भी कर दिया दान मुझे
हुई अभागन क्यों मैं बेटी होकर
तब पूज रहे क्यों कन्या कहकर
नारी ही नारायणी की यह भाषा
और करे पुरुष ही उसकी दुर्दशा
बेटी, बहन और बहु वह कहलाती
पत्नी ,संगीनि और वही जन्मदात्री
बंधन कठोर क्यों उसके हक मे
चुपचाप उसे ही सब सहना क्यों
नजरें सबकी सहकार वो रहती है
तानों के बाण सदा ही सहती है
नोच खसोट से उसको ही बचना है
मर्यादित सीमा मे ही उसको रहना है
इच्छित कर्म करे नर जब जैसा चाहे
अन्याय सहे पर कुछ बोल न पाए
धिक्कार है तुझपर ऐसा नर होने पर
दे न सके सम्मान केवल उपयोग भर
धिक्कार उस पुरुष को जो हांथ उठाए
धिक्कार धिक्कार जो वो नर कहलाए
( मुंबई )