दी गर्दन नाप | Di Gardan Naap
दी गर्दन नाप
( Di Gardan Naap )
चार चवन्नी क्या मिली, रहा न कुछ भी भान।
मति में आकर घुस गए, लोभ मोह अभिमान।।
तन मन धन करता रहा, जिस घर सदा निसार।
ना जानें फिर क्यों उठी, उस आँगन दीवार।।
नहीं लगाया झाड़ भी, जिसने कोई यार।
किस मुँह से फिर हो गया, वह फल का हकदार।।
भाईचारे के लिखें, उन पर कैसे गीत।
जिनके मन ना प्रीत है, नहीं प्रेम की रीत।।
आज नहीं तो कल छुटे, सौरभ ऐसा साथ।
आखिर कितने दिन चले, पकड़े धक्के हाथ।।
रहा भरोसा अब कहां, जुड़े कहां पर आस।
भाई को जब है नहीं, भाई का अहसास।।
दिया सहारा रात-दिन, बनकर जिसको बाप।
खड़ा हुआ ज्यों पैर पर, दी गर्दन अब नाप।।
डॉo सत्यवान सौरभ
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,
333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी) भिवानी,
हरियाणा