नजरों का धोखा
( Nazron ka dhokha )
नजरें धोखा खा गई, कैसी चली बयार।
अपनापन भी खो गया, गायब सब संस्कार।
नजरों का धोखा हुआ, चकाचौंध सब देख।
भूल गए प्रीत पुरानी, खोया ज्ञान विवेक।
नजरों का धोखा हमें, पग पग मिला अपार।
धूल झोंके नयनों में, वादों की भरमार।
नजरें धोखा दे गई, डोर हुई बेजान।
रिश्तो में अब जहर घुला, कैसे हो पहचान।
छल कपट लूट का हुआ, सजा धजा बाजार।
दिखावे की दुनिया में, रहा नहीं वो प्यार।
कवि : रमाकांत सोनी सुदर्शन
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )