डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी की कविताएं | Dr. Chandresh Kumar Chhatlani Poetry

मैं नहीं जानता

मैं नहीं जानता कि क्या सामान ज़रूरी है,
चेहरा ज़रूरी है कि मुस्कान ज़रूरी है।

वो कहता है कि पैदा करना एहसान नहीं है,
तू कहता रह, बस इतना सा एहसान ज़रूरी है।

घर बना था मगर रौशनी गुम थी कहीं,
खिड़कियाँ हैं पर इक निगहबान ज़रूरी है।

छोड़ के जाना मुश्किलों में कुछ नया तो नहीं,
रिश्तों में पर इक नया इमान ज़रूरी है।

शिकवे हैं बहुत से मगर ए दोस्त सुन ले,
मुझको शिकवे नहीं इनसान ज़रूरी है।

एक कोशिकीय दंगा

किसी एक कोशिकीय जीव की तरह दंगा,
दंगों का माता और पिता दोनों है।
यह खुद को जन्म देता है,
अपने ही ज़हर में पनपता है,
और फैलता है ऐसे,
जैसे हवा में उड़ता कोई अदृश्य वायरस।

लोग समझते नहीं हैं-
यह कोई अचानक फूट पड़ने वाली चीज़ नहीं,
यह तैयार किया जाता है,
धीरे-धीरे, नफरत की प्रयोगशालाओं में,
अफ़वाहों के टेस्टट्यूब के साथ।

कोई अस्थमा का पंप, प्रेम की उखड़ती सांस को संभाल नहीं पाता।
और इंसान—
सहसा बदल जाता है जंगली जानवर में।

जानवरों की भीड़ उतार फेंकती है मस्तिष्क को,
वह कहां पहचानेगी आग और राख,
और उस अधजली सभ्यता की
दिमागहीन बूँद खुद को विभाजित करती है,
कर अंतर्जनन
वह दंगा बार-बार लौटता है,
अपने आप को दोहराते हुए।

काश लोग समझ पाते,
कि दंगा मारने से पहले
डीएनए में छिपे प्रेम को मारता है,
कुचल देता है संवेदना की नस को,
और ब्रह्मांड के गणितीय सूत्र में,
हम ‘मानव माइनस मानवता’ हो जाते हैं।

नहीं होती

टूटे रिश्तों की जिन्हें परवाह नहीं होती,
ख़ुद से ऊँची उनकी परवाज़ नहीं होती।

करते हैं नफरत जो रिश्तों से अपने,
ख़ुदाई से उनकी मुलाक़ात नहीं होती।

मोहब्बत और अमन है, नाम मज़हब का,
जो ना माने ये, उससे इबादत नहीं होती।

हर सच की इक आवाज़ हुआ करती है,
जो चुप हो गए तुम, ये कोई बात नहीं होती।

अच्छे आदमी

अच्छे आदमी करते हैं अच्छाई,
अपनों से पहले दूसरों की परवाह करते हैं।
यही उनकी बनती है पहचान,
जो उन्हें “अच्छा आदमी” बनाती है।

जब लोग जान जाते हैं कि कोई सचमुच अच्छा है,
तो वे उससे अपनी अच्छाई भी करवाने लगते हैं।
अच्छे आदमी चुपचाप करते रहते हैं अच्छाई,
शिकायत, हिसाब को रख कर परे।

धीरे-धीरे लोग उनकी अच्छाई को अधिकार समझ लेते हैं,
और अपनी अच्छाई करवाना उनकी आदत बन जाती है—
और यह आदत एक दिन, शोषण में बदल जाती है।

अच्छे आदमी समझते हुए भी नहीं रुकते,
अपने सुख-दुख, समय आदि की परवाह किए बिना,
हो के परेशान भी,
करते रहते हैं अच्छाई।
और यही अच्छाई, धीरे-धीरे थका देती है उन्हें।
शरीर जवाब दे देता है।

मन फिर भी ऊर्जावान रहता है,
वही ऊर्जा उनसे अच्छाई करवाती रहती है।
और, अच्छाई करने से मन में ऊर्जा बढ़ती भी जाती है।

वो बात कुछ और नहीं,
कि शरीर एक दिन निरंतर काम करने से खत्म हो जाता है।

और तब, जब वे नहीं रहते,
वही लोग, जो करते थे शोषण,
उनकी आँखें मुंदी देख, आँख मूंदकर कहते हैं—
“भगवान को भी अच्छे आदमी पसंद होते हैं, इसलिए उन्होंने जल्दी बुला लिया।”

श्री राम वन्दना

राम-राम में रम ले बन्दे, रम ले राम नाम में।
यही नाम तो आयेगा बन्दे, आखिर तेरे काम में।
जय राम – श्री राम – श्री राम जय-जय राम।

रोग-शोक ना क्रोध रहेगा
मन में विषाद ना आक्रान्त है।
राम नाम को जपने वाला
आनन्दित और शान्त है।

आओ उठकर सब पुकारें, आ राम आराम में।
जय राम – श्री राम – श्री राम जय-जय राम।

बजरंग जिसका ध्यान लगाऐं
नारद जिसकी कथा सुनाऐं।
ब्रह्ममुख से आई जो वाणी
राम नाम ही हम सब गाऐं।

राम नाम के जप से फैले, शान्ति चारों धाम में।
जय राम – श्री राम – श्री राम जय-जय राम।

पता नहीं क्या फायदा?

लड़ना है तो घर पे आई मुश्किलों से लड़ो,
अपनों से बैर बढ़ाने से क्या फायदा!

अपनों की आँखों में आंसू हों तो,
गैरों संग मुस्कुराने से क्या फायदा!

हाथ थाम कर गुदगुदा दो ज़िंदगी को,
मौत का ख़ौफ दिखाने से क्या फायदा!

रिश्तों को निभाने का हौसला रखो,
दुश्मनी को निभाने से क्या फायदा!

मोहब्बत की लौ से चिराग रोशन कर के देखो तो,
नफ़रत की आग जलाने से क्या फायदा!

और… हाँ दोस्त!
अगर दम हो तो दिल की वसुधा पर प्यार के बीज बोकर एक हो जाओ,
सोचो, दीवारों की फ़सलें उगाने से क्या फ़ायदा!

नव संवत्सर

यह नव संवत्सर, यह पल नहीं पराया,
प्रकृति की है यह मंगलकारी छाया।

धरती माँ के आँचल में है सबको समाना,
विश्वबंधुत्व का है सनातन आशियाना।

नव उषा की अरुणिमा लेकर आया है यह दिन,
जीवन पथ पर खिले आशा-कुसुम पल-छिन।

संकट के सागर की लहरें लौट जाएँ,
सुख की सरिता सबके द्वार ठहर जाए।

“सर्वे दुर्गाणि” का मंत्र गूँजे हर घर में,
हर मन दीपक बने, निराशा के अम्बर में।

भद्र दृष्टि से देखें यह विराट चित्रपट,
प्रेम का वृक्ष पलता रहे भारत के घट-घट।

कल्याण का दीप अनादि, अनंत जलता रहे,
मंगलगीत यह धरती का अनवरत गूँजता रहे।

प्रेम

प्रेम वही जो प्रेमी को राह सही दिखलाए,
प्रेम नहीं जो प्रेमी को राह से भटकाए।

प्रेम कहां जो प्रेमी पे, हक केवल जतलाए,
प्रेम साथ में अपने तो, ज़िम्मेदारी लाए।

प्रेम वही जो गहन अंधेरे, को रोशन कर जाए,
सड़कों पे भटकते को, मंज़िल की राह बताए।

प्रेम नहीं है भ्रम के पहाड़ों की चढ़ाई,
प्रेम के हर अक्षर में, छिपी है सच्चाई।

प्रेम नहीं है झील सा, सीमाओं पे ठहरा,
बनता सागर, ना पाएं लहरों पे हम पहरा।

प्रेम कभी हमें बनाए ना दावेदार,
साथ चलना है चाहे, राह हो कांटेदार।

प्रेम नहीं जो महलों के, सपने है दिखलाए,
देख दरार वह तो घर की, छत है बन जाए।

प्रेम नहीं जो प्रेमी से बातों को छिपाए,
प्रेम है वो, जो सच्चाई का आईना बन जाए।

प्रेम कहां पर केवल प्रेम गीत को गाता है,
सुख दुःख में ये खुद, गीत इक बन जाता है।

प्रेम वही जो अटूट रहे, हर स्थिति में निभ जाए,
हृदय में जो बसा रहे, वही सच्चा प्रेम कहलाए।

रिश्ते

कुछ रिश्ते प्रेम की अलौकिक छाया में हैं निभते,
कुछ काल के भँवर में बहकर विस्मृत हो हैं जाते।

कुछ नाते, डूबते सूरज की लौ सी हैं मिट जाते,
कुछ अँधेरे में चाँदनी बन कर याद हैं आते।

कुछ मृगतृष्णा बन झूठे सुख का स्वप्न दिखलाएँ,
कुछ सच्चे साथी धूप में छाँव बनकर आएँ।

कोई बंधन सहज साँस सा मन को है छू जाए,
कोई मर्म में गड़े काँटा सा दर्द बड़ा बन जाए।

कोई जीवन का सुर बन संगीत में घुल जाए,
कोई विषाद का गीत बन हृदय से धुल जाए।

कुछ रिश्ते बरसात की बूँद से सहारा बन कर आएं,
कुछ बिन बुलाए मेहमान से आकर, द्वार पर मुस्काएं।

कुछ राहों में बिखरे कांटों से बन जाएं,
कुछ अपनेपन के फूल चुपके से महकाएं।

रिश्तों का यह संसार भावों का महाकाव्य हो,
जहाँ प्रेम ही सच हो, बाकी माया का अध्याय हो।

न टूटे वही डोर, जो दिल की बातें समझे,
आत्मा को छुए जो, ही कहलाएं रिश्ते।

सच्चा रिश्ता है वही, समय की छाँव हो, धूप हो,
प्रेम के पत्ते न मुरझाए, ऐसा ही स्वरूप हो।

चंद्रेश कुमार छ्तलानी

उदयपुर (राजस्थान) 

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